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नये कानूनों की सफलता राज्यों पर निर्भर

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अभी तक दर्ज मुकदमों की सुनवाई पुराने कानूनों के अनुसार होगी. नये कानूनों को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गयी है, लेकिन इन्हें लागू करने की अधिसूचना नहीं जारी हुई है. उसके बाद दर्ज मामलों की लिखा-पढ़ी और सुनवाई नये कानूनों के अनुसार होगी.

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तीन नये आपराधिक कानूनों के नाम हिंदी में हैं. मैकाले के समय के औपनिवेशिक कानूनों में बदलाव भारतीयता की जीत है. लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी कानून) तो 1973 में ही बदल गया था. इसलिए तीन की बजाय सिर्फ दो अंग्रेजी कानूनों में बदलाव हुए हैं. नये कानूनों में बहुत सारी अच्छी बातें हैं. इनमें तकनीक और फॉरेंसिक के इस्तेमाल से जांच प्रणाली को आधुनिक बनाने की कोशिश है. ऑनलाइन एफआइआर के साथ छोटे अपराधों के जल्द निपटारे के लिए त्वरित सुनवाई का प्रावधान है. सनद रहे कि नये कानून बनने से पहले ही आठ करोड़ एफआइआर ऑनलाइन हो गयी हैं. महिलाओं और बच्चों से जुड़े अपराधों पर भी कठोर दंड का प्रावधान है. पुराने कानून से राजद्रोह और व्यभिचार को हटाने की तारीफ हो रही है, तो कई लोग वैवाहिक संबंधों में बलात्कार (मेरिटल रेप) को अपराध के दायरे में लाने की मांग कर रहे हैं. नये कानूनों में आतंकवाद, संगठित अपराध, आर्थिक अपराध और भगोड़े अपराधियों के खिलाफ सख्त दंड की व्यवस्था है. नाबालिग बच्चियों से रेप और मॉब लिचिंग के लिए फांसी की सजा का प्रावधान है. निर्भया मामले के बाद अनेक सख्त कानून के बावजूद महिलाओं के खिलाफ अपराध में कमी नहीं आयी. इन कानूनों में पुलिस के अधिकार बढ़ाने के साथ उन्हें जवाबदेह बनाने के लिए भी प्रावधान होने चाहिए थे.

इन कानूनों की कई बिंदुओं पर आलोचना हो रही है. सहमति के साथ संबंध के मामलों में 10 साल तक की सजा से जुड़ी धारा 69 के दुरुपयोग पर चिंता जतायी जा रही है. इलाज के दौरान मरीज के मौत के मामलों में डॉक्टरों की जवाबदेही, अपराध और सजा के बारे में अभी कानूनी स्थिति स्पष्ट नहीं है. लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के पहले विपक्ष की अनुपस्थिति में ताबड़तोड़ पारित किये गये इन कानूनों का भविष्य अब राज्यों के सहयोग पर निर्भर है. इसी तरह पिछले सत्र में पारित महिला आरक्षण कानून की सफलता भविष्य में होने वाली जनगणना पर टिकी है. अपराध से जुड़े कानूनों के पालन में पुलिस की बड़ी भूमिका होती है. संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार पुलिस का मामला राज्यों के अधीन है. कानूनों को बदलाव के बाद संसद में पारित कराया गया, लेकिन उसके पहले केंद्र ने राज्यों से जरूरी परामर्श नहीं किया. नये कानूनों में तीन-चौथाई से ज्यादा प्रावधान पुराने कानूनों से लिये गये हैं. इसलिए कई लोग इन्हें नयी बोतल में पुरानी शराब बता रहे हैं. गिरफ्तारी, जांच, आरोप-पत्र, पब्लिक प्रोसिक्यूटर की नियुक्ति, ट्रायल, जमानत, फैसला और सजा सभी के लिए नये कानून में समय सीमा निर्धारित की गयी है. यौन उत्पीड़न के मामलों में मेडिकल रिपोर्ट को एक हफ्ते के भीतर फारवर्ड करने का नियम बनाया गया है. पहली सुनवाई से 60 दिन के भीतर आरोप तय करने का काम होना चाहिए. मुकदमे की समाप्ति के 45 दिन के भीतर फैसले का कानून बनाया गया है. लेकिन ऐसे कानूनों का पालन अदालत में मजिस्ट्रेट और जजों को करना है. पुराने कानूनों में भी चार्जशीट फाइल करने और मुकदमों के समयबद्ध फैसले के प्रावधान हैं. समय पर चार्जशीट जमा न होने पर जमानत का कानून है. पुराने कानूनों के अनुसार दीवानी मुकदमों में तीन तारीख से ज्यादा स्थगन नहीं हो सकता है. फिर भी मुकदमों का निपटारा तीन पीढ़ियों में हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जस्टिस कौल ने कहा है कि जजों के उपर मुकदमों का भारी बोझ है. इसलिए नये कानूनों पर अदालत में व्यवहारिक अमल कैसे होगा? तय समय सीमा को अदालतों में लागू करने के लिए नये कानूनों में स्पष्ट रोडमैप नहीं है.

पुराने मामलों को छोड़कर नये मामलों के निपटारे पर ज्यादा जोर देने के खिलाफ नये कानूनों में कोई प्रावधान नहीं है. मुकदमों के जल्द निपटारे का सब जगह शोर है. इसके बावजूद पिछले पांच सालों में लंबित मामलों की संख्या तीन करोड़ से बढ़कर पांच करोड़ हो गयी है. अभी तक दर्ज मुकदमों की सुनवाई पुराने कानूनों के अनुसार होगी. नये कानूनों को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गयी है, लेकिन इन्हें लागू करने की अधिसूचना नहीं जारी हुई है. उसके बाद दर्ज मामलों की लिखा-पढ़ी और सुनवाई नये कानूनों के अनुसार होगी. पहले कहा जा रहा था कि केंद्रशासित प्रदेशों में नये कानूनों को दिसंबर 2024 तक लागू कर दिया जायेगा. आपराधिक कानून पूरे देश में एक साथ लागू होने चाहिए, इसलिए अब सभी राज्यों में नये कानूनों को एक साथ लागू करने की बात हो रही है. भारत में 17,389 पुलिस थानों में से 16,733 थाने सीसीटीएनएस नेटवर्क से जुड़े हैं. इस नेटवर्क से उपलब्ध डाटा के आधार पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो अपराधों का सालाना रिपोर्ट जारी करता है. नये कानून के अनुसार एफआइआर के फॉरमेट के साथ सॉफ्टवेयर बदलाव करने की जरूरत है. नये कानून लागू करने की तारीख तय करने के बाद बड़े पैमाने पर किताबों का प्रकाशन करना होगा. इसके बाद वकील, पुलिस और जजों को नये कानून के अनुसार जानकारी और प्रशिक्षण देने की जरूरत होगी. संविधान के अनुसार कानून और व्यवस्था राज्यों के अधीन हैं. जिला अदालतों का सिस्टम हाई कोर्ट के अधीन है, जिनके संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए राज्य सरकारें जवाबदेह हैं. दिल्ली की जिला अदालतों में इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी पर हाई कोर्ट ने चिंता जाहिर की है. नये कानूनों को सफल बनाने के लिए देश के सभी जिला अदालतों के कंप्यूटरीकरण की जरूरत है. नये कानूनों को सफल बनाने के लिए देशव्यापी यज्ञ में राज्यों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है. विपक्ष शासित राज्यों ने इन्हें लागू करने में ना-नुकुर किया, तो फिर एक देश में दोहरे कानूनों से न्याय व्यवस्था डगमगा सकती है. तारीख पे तारीख के मर्ज को खत्म करने के लिए कानूनों में बदलाव के साथ जजों और न्यायपालिका का भारतीयकरण जरूरी है. समय सीमा के भीतर मुकदमों का निपटारा नहीं करने वाले जजों की नकारात्मक रेटिंग हो. गलत गिरफ्तारी पर पुलिस और जांच एजेंसियों की जवाबदेही हो. बेवजह मुकदमा करने वालों के खिलाफ जुर्माना लगे. नये कानूनों में सेक्शन के सीरियल नंबर बदलने से वकील, जज और पुलिस के कामकाज में दुविधा बढ़ी, तो मुकदमों के निस्तारण में विलंब से लंबित मामले और ज्यादा बढ़ सकते हैं. भारतीयता के साथ जल्द न्याय के अधिकार को कानून में शामिल करने पर ही आम जनता को तारीख पे तारीख के मर्ज से मुक्ति मिलेगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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