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राम मंदिर को लेकर ऊहापोह में है कांग्रेस

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राम मंदिर न्यास ने ऐतिहासिक दिन के लिए कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी को निमंत्रित किया है. लेकिन कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अब तक फैसला नहीं ले पाया है कि उसे इस समारोह में शामिल होना चाहिए या नहीं.

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कोई शक नहीं है कि बाइस जनवरी की तारीख देश के सांस्कृतिक क्षितिज पर नयी इबारत दर्ज करने जा रही है. राम मंदिर आंदोलन की परिणति दुनिया देख रही है. इसी आधार पर यह मानने से गुरेज नहीं है कि जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को वामपंथी इतिहासकार नकारते रहे हैं, अयोध्या में रामलला की मूर्ति की स्थापना के साथ वह मूर्त रूप लेने की ओर अग्रसर है. इस पर भी संशय नहीं है कि इसके बाद देश की राजनीति भी बदलने जा रही है. लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी को इससे जुड़ी राजनीति को लेकर संशय है. राम मंदिर न्यास ने ऐतिहासिक दिन के लिए कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी को आमंत्रित किया है. लेकिन कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अब तक फैसला नहीं ले पाया है कि उसे इस समारोह में शामिल होना चाहिए या नहीं.

राम मंदिर का ताला खोलने के अलावा कांग्रेस की जितनी भी कोशिशें रही हैं, वे मंदिर के विरोध में रही हैं. अलबत्ता इस विरोध के लिए वह राजनीति को धर्म से अलग करने का तर्क देती रही है, लेकिन जब संदर्भ अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, का होता है, तो सेकुलरवाद के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म आधारित राजनीति को तवज्जो देने से वह कभी नहीं हिचकी. केंद्रीय राजनीति में राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा के उभार के पहले तक कांग्रेस ही अल्पसंख्यक वोटरों की पहली पसंद रही. लेकिन राम मंदिर आंदोलन के उभार के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में मुस्लिम वोटरों ने स्थानीय दलों का दामन थाम लिया. राम मंदिर आंदोलन के उभार के वक्त कांग्रेस ऊहापोह में रही. उसे अल्पसंख्यक केंद्रित राजनीति की सीमा का भान था. इसीलिए वह मंदिर के खिलाफ वैसा कड़क स्टैंड नहीं ले पायी, जैसा मुलायम सिंह और लालू प्रसाद ने लिया. झीने आवरण में जारी उसके अल्पसंख्यकवाद की पोल मंदिर आंदोलन ने खोल दी, तो उसका पारंपरिक सवर्ण, विशेषकर ब्राह्मण, वोट बैंक भी साथ छोड़ गया. उन्हीं दिनों दलितों के नये रहनुमा भी उभरे, तो दलितों ने भी कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया.

कांग्रेस के पास ठोस वोट बैंक बनाने को लेकर ना तो कोई ठोस योजना नजर आयी, ना ही वह कभी मजबूत रुख ले पायी. यह ऊहापोह राहुल की कांग्रेस में ज्यादा दिखा. गुजरात के 2017 के विधानसभा चुनाव में मंदिर-मंदिर माथा टेकना हो या फिर कर्नाटक के 2018 के चुनाव में मंदिरों का दर्शन करना हो या फिर लोकसभा चुनाव के वक्त देश के कथित सेकुलर रूप को बचाने का दावा हो, राहुल वाली कांग्रेस हर बार ऊहापोह में नजर आयी. यही ऊहापोह रामलला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के वक्त भी दिख रहा है. कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि उसे राम का साथ देना चाहिए या नहीं. इसकी बड़ी वजह है कि कर्नाटक चुनाव से कांग्रेस के पाले में अल्पसंख्यक वोट बैंक थोक भाव से लौट रहा है. इसका असर तेलंगाना में भी दिखा. कांग्रेस को भ्रम है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और असम का मुस्लिम वोटर उसके पास लौटेगा. हालांकि आनुपातिक रूप से सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट वाले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की स्थिति खास मजबूत नजर नहीं आ रही. कांग्रेस को ऊहापोह में रखने में राहुल और प्रियंका के वामपंथी सलाहकार मंडल की राय भी शामिल है. हिंदुत्ववादी राजनीति के संदर्भ से वामपंथी सोच को सदा से परहेज रहा है, हालांकि अल्पसंख्यक राजनीति को लेकर उसकी धर्म केंद्रित राजनीति के विरोध का विचार कहीं तिरोहित हो जाता है. राहुल और प्रियंका की वामपंथी सलाहकार मंडली प्राण प्रतिष्ठा समारोह से कांग्रेस को शायद दूर रहने की सलाह दे रही है. राम मंदिर को लेकर अतीत में कांग्रेस और उसके कद्दावर नेताओं ने ऐसी गलतियां की हैं, जिनकी वजह से बहुसंख्यक वोटरों के बड़े हिस्से में नाराजगी रही. उल-जलूल बयानों ने कांग्रेस को अक्सर नुकसान पहुंचाया है.

मंदिर मुद्दे को केंद्रीय राजनीति की धुरी बनते देख लगता है कि कांग्रेस में भी दुविधा बढ़ रही है. कांग्रेस का एक वर्ग सोच रहा है कि अयोध्या के समारोह में शामिल होना चाहिए. कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को राम मंदिर ट्रस्ट ने निमंत्रण नहीं भेजा है. इसे लेकर लगता है कि उन्हें तकलीफ है. राजनीति में राम नाम की अहमियत को छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी समझने लगे थे. अब कांग्रेस के कुछ बाहरी सलाहकार यह सलाह देने लगे हैं कि अगर कांग्रेस को मुख्यधारा की राजनीति में बने रहना है, तो प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होना चाहिए. यह सच है कि राम मंदिर को लेकर उत्तर प्रदेश के एक कांग्रेसी मंत्री ने अस्सी के दशक में आवाज उठायी थी. अगर तभी से कांग्रेस संतुलित रुख अख्तियार किये रहती, तो किंचित अल्पसंख्यक वोट बैंक भले ही खिसकता, बहुसंख्यक वोटरों के एक बड़े वर्ग की वह चहेती बनी रह सकती थी. लेकिन वह ऐसा नहीं कर पायी और उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में अप्रासंगिक होती चली गयी. ऐसे में अव्वल तो होना चाहिए कि राम को लेकर कांग्रेस ऊहापोह से निकले, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस ऐसा कर पायेगी?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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