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B positive : जीवन में इंसानी रिश्तों का तानाबाना एक दूसरे से जुड़ा रहता है. गाहे बगाहे एक दूसरे की जरूरत महसूस होती है और बहुत बार लोग एक दूसरे की जरूरत के वक्त खड़े भी रहते हैं या काम आते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी वक्त आते हैं जब आपसी संबंधों में खटास/मनभेद पैदा हो जाता है या संबंधों की गर्माहट में कमी आ जाती है.

नीचे कुछ केस स्टडीज पर गौर करें-

केस स्टडी 1 – मोहन आनंद बिजनेस के मामलों को लेकर बहुत परेशान था. वो अपने मित्र जिसके कुछ अच्छे संपर्क हैं, उनको मदद के लिए आग्रह करता है . उसके मित्र ने इस मसले में अपने अख्तियार के हिसाब से ईमानदारी से कोशिश की. तमाम प्रयासों के बावजूद चीजें सुलझ नहीं पाईं. मोहन व्यावसायिक दबाव के कारण बहुत ही आर्थिक और मानसिक दबाव महसूस कर रहा था. इसी वजह से उसे लगने लगा कि उसके मित्र ने अपने सामर्थ्य के हिसाब से उसकी मदद नहीं की.

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केस स्टडी 2 – मनीष शेखर दिल्ली में रहता है और उसका एक रिश्तेदार जो दूसरे शहर (छोटे) में रहता है, गंभीर रूप से बीमार पड़ गया. रिश्तेदारों के आग्रह और मरीज की गंभीरता को देखते हुए मनीष ने बीमार को अपने पास बुला लिया. अच्छे डॉक्टर के पास अप्वाइंटमेंट दिलाकर बेहतर तरीके से इलाज भी शुरू करा दिया. मनीष एक प्राइवेट संस्थान में काम करता है और स्वाभाविक रूप से काम के प्रेशर के कारण समय को लेकर परेशानी महसूस कर रहा था. फिर भी मनीष ने समय निकालकर अपने दफ्तर के काम और मरीज के इलाज की समुचित व्यवस्था दोनों को बैलेंस करने की भरसक कोशिश की, लेकिन कुछ दिनों के बाद मरीज के रिश्तेदार शिकायत करने लगे कि मनीष को जितना समय देना चाहिए, नहीं दे रहा है. उलाहना भी देने लगे, कि हमलोग शौकिया नहीं मजबूरी में मनीष के दरवाजे पर आये हैं. इस तरह आपसी संबंधों में खटास शुरू हो गयी.

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इससे मिलते जुलते तमाम वाकयात सामाजिक और पारिवारिक जीवन में रोज देखने और सुनने को मिलते हैं. कोई शिकायत करता है कि सामने वाला फोन करने पर एक बार में फोन नहीं उठाता है या नौकरी /बच्चे के स्कूल में दाखिला के लिए सिफारिश के लिए बोला था, लेकिन ध्यान नहीं दिया. लगता है बड़ा आदमी बन गया है.

मेरा मानना है कि अपवाद को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर लोग अपने अख्तियार के हिसाब से अपने इष्ट मित्रों या रिश्तेदारों के काम आने में गुरेज नहीं करते हैं, लेकिन एक चीज हम सबों को समझना चाहिए कि सामने वाले की मंशा सही होने पर भी जरूरी नहीं है कि उसके लिए हर काम कर पाना संभव हो जाए. दूसरी बात किसी को भी अपने काम का बोझ तभी डालें, जब निहायत ही मजबूरी है या कोई और उपाय नजर नहीं आए. बहुत सारे लोगों की प्रवृति होती है कि छोटे से छोटे अपने काम के लिए दूसरों पर आश्रित रहते हैं. ये मूलतः परजीवी किस्म के लोग होते हैं. ये भी समझना पड़ेगा कि अगर बार-बार हम किसी के ऊपर बोझ डालेंगे, तो चाहे अनचाहे सामने वाला आपको इग्नोर करना शुरू कर देगा.

इसलिए संबंधों में मधुरता कायम रखना चाहते हैं तो ध्यान रखें कि सामने वाले की भी एक सीमा है, वो तबतक आपके लिए सहर्ष खड़ा रहेगा, जबतक उसके अंदर बोझ की जगह सहयोग करने का बोध रहेगा. बहुत ज्यादा उम्मीद पालने से पहले अपने से जरूर पूछें कि मैं सामने वाले की जगह होता तो क्या मैं उतना कर पाता जितनी मेरी अपेक्षा है.

Posted By : Guru Swarup Mishra

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