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Kargil Vijay Diwas: कारगिल का वो परमवीर जिसने कहा था, ‘रास्ते में मौत आई तो उसे भी हरा दूंगा’

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Kargil Vijay Diwas: 'मेरा बलिदान सार्थक होने से पहले अगर मौत दस्तक देगी तो संकल्प लेता हूं कि मैं मौत को भी मार डालूंगा'- ये पंक्तियां लिखीं मिली थीं 24 साल के एक भारतीय जांबाज की डायरी में जिसकी बहादुरी के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं.

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Kargil Vijay Diwas: कारगिल विजय दिवस. भारतीय सेना के पराक्रम के 23 साल. कारगिल का युद्ध भारतीय सेना के अदम्य साहस और पराक्रम के सबसे बड़े उदाहरणों में से एक है. ये युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई से जुलाई के बीच लड़ा गया था. पाकिस्तानी कबाइली घुसपैठियों ने जम्मू कश्मीर और लद्दाख की पहाड़ियों पर बनी हिन्दुस्तान की चौकियों पर कब्जा कर लिया था. इसमें कबाइली आतंकियों का साथ पाकिस्तानी सेना भी दे रही थी. 26 जुलाई 1999 को भारत ने कारगिल युद्ध में विजय हासिल की थी. इस युद्ध में भारत ने हजारों वीर सपूतों ने अपनी प्राणों की आहूती दी थी, कैप्टन मनोज पांडे उन्हीं में से एक थें.

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‘रास्ते में मौत आई तो उसे भी हरा दूंगा’

‘मेरा बलिदान सार्थक होने से पहले अगर मौत दस्तक देगी तो संकल्प लेता हूं कि मैं मौत को भी मार डालूंगा’- ये पंक्तियां लिखीं मिली थीं 24 साल के एक भारतीय जांबाज की डायरी में जिसकी बहादुरी के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं. कैप्टन मनोज पांडे (Captain Manoj Pandey) 3 जुलाई 1999 में शहीद हो गए थें. उनका जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर के रुधा गांव में हुआ था.यूपी सैनिक स्कूल के छात्र रहे कैप्टन मनोज पांडेय को छह जून 1997 को आइएमए के प्रशिक्षण के बाद सेना में अधिकारी के रूप में कमीशंड प्राप्त हुआ था.

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भारतीय सेना के नामचीन अधिकारियों में शुमार रहे फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि अगर तुमसे कोई ये कहे कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो तुम ये समझ लेना की या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है. कारगिल में देश के लिए अपनी सांसों को कुर्बान करने वाले मनोज पांडे उनकी इस बात पर खरे उतरे. मनोज गोरखा रेजिमेंट का ही हिस्सा था, जिन्होंने मौत को भी तबतक हराकर रखा जब तक की अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर लिया.

कैप्टन पहली ही तैनाती आतंक प्रभावित क्षेत्र जम्मू के नौशेरा में हुई थी, जबकि दूसरी तैनाती सियाचिन में 18 हजार फीट की ऊंचाई पर की गई. वहां से कैप्टन मनोज की पलटन को पुणो भेजा गया. उनकी पलटन वापस हो रही थी कि अचानक बताया गया कि कारगिल में दुश्मन ने घुसपैठ कर ली है. अपनी अलफा कंपनी के साथ कैप्टन मनोज खालूबार में ऊंची चोटी पर पाकिस्तानी कब्जे से बंकर को मुक्त कराते हुए आगे बढ़े. तीन बकरों को ध्वस्त कर वह चौथे बंकर की ओर बढ़े, लेकिन दुश्मन की गोली उनको लगी. अंतिम सांस लेने तक उन्होंने चौथा बंकर भी दुश्मन से मुक्त कराया. उनको वीरता का सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र (मरणोपरांत) प्रदान किया गया.

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