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खजांची हाट दुर्गाबाड़ी जहां आज़ादी से पूर्व शुरू हुई थी पूजा

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खजांची हाट दुर्गाबाड़ी

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पूर्णिया. खजांची हाट दुर्गाबाड़ी मंदिर का इतिहास देश की आजादी से जुड़ा है. यहां होने वाली पूजा अंग्रेजिया राज की गवाह भी है. यह अलग बात है कि इस मंदिर पर भी पूजन की बंग्ला संस्कृति प्रभावी है पर यहां असम के मूर्तिकार प्रतिमा बनाते हैं. असम एक बाद मूर्तिकार परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया लेकिन पीढी दर पीढी यहां के मूर्ति निर्माण का कार्य आज भी उन्हीं के वंशजों के द्वारा किया जा रहा है. खजांची हाट दुर्गा मंदिर की नींव सन् 1964 में जरूर डाली गई पर यहां पूजा 1946 में ही शुरू हो गई थी. उन दिनों अंग्रेजी राज कायम था और इक्के-दुक्के जगह ही दुर्गा पूजा हुआ करती थी. उन दिनों प्रफुल्ल सेन, देवेन्द्र नाथ गुहा, अमरनाथ गुहा, काली कुमार नियोगी, नृपेन्द्र मोहन घोष, सुशील कुमार घोष, जगदीश दास गुप्ता, दुर्गा प्रसाद घोष जैसे अस्थावान लोग थे जिन लोगों ने यहां पूजा शुरू की. पहली बार 46 में फिरोज सेन की जमीन पर टीन के शेड में पूजा शुरू की गई थी.

सजता है आस्था का दरबार

पूरे पूर्णिया में यह अकेला पूजन स्थल है, जहां आस्था का दरबार सजता है. शुरूआती दौर में यहां बनारस के पंडित पूजा के लिए बुलाये जाते थे, किन्तु बाद में स्थानीय पंडित द्वारा पूजा करायी जाने लगी. पूजन आयोजन के लगातार दस दिनों तक यहां हर घर के लोग जुटते हैं. पूजन के बाद ही घर की रसोई तैयार होती है.

यहां लगता है मां का भोग

भोग लगने की परंपरा यहां अनूठी है. इस मंदिर के प्रति इतनी आस्था है कि भोग का प्रसाद ग्रहण करने के लिए लंबी कतार लगती है. भोग सामग्री तैयार करने के लिए बाहर के कारीगर बुलाए जाते हैं. बिलकुल मुक्त हस्त से यहां मां के भोग का वितरण किया जाता है. भोग तैयार करने वाले कारीगर शिवशंकर चौधरी भी एक ही परिवार के दुसरी पीढी के वंशज हैं. पहले इनके पिताजी दरभंगा निवासी गौरी कान्त चौधरी यहां भोग तैयार करते थे.

असम के मूर्तिकार

इस मंदिर की खासियत रही है कि पहले यहां असम के मूर्तिकार प्रतिमा बनाने के लिए आते रहे हैं, जबकि बंगाल के कलाकारों की ही यहां धूम रहती है. पहले मूर्तिकार असम के तारापदों दा के दादा बनाते थे और आज भी उसी परिवार के कारीगर मूर्ति बना रहे हैं. मूर्तिकार रतन पाल तीसरी पीढी के लोग हैं.

मलदहिया ढाक

दुर्गापूजा में ढाक वादन का एक अलग महत्व है. ऐसी मान्यता है कि ढाक की आवाज से देवी प्रसन्न होती हैं. इस नजरिये से प्राय: सभी पूजन स्थलों पर ढाक बजवाए जाते हैं, लेकिन खजांची दुर्गा मंदिर में ढाक बजाने वाले मालदा से बुलाए जाते हैं, जिनकी तकनीक इनसे अलग होती है. समिति सदस्य शुभंकर चटर्जी, कालीचरण, विनय कुमार, रवि वर्मा आदि बताते हैं कि इस परंपरा का आज तलक निर्वाह हो रहा है. 5 सदस्यीय ढाक टीम की भी यह तीसरी पीढ़ी है. यह परम्परा चलती रहे इसके लिए पूरी पूजा समिति सक्रिय रहती है.

बोले कमेटी के लोग

अपनी जमीन पर मंदिर का निर्माण किया जा चुका है. क्रमशः चारो और से चहारदीवारी एवं गेट का निर्माण किया गया. बुजुर्गों के द्वारा किये गये कार्य का निरंतर धीरे धीरे विकास का कार्य चल रहा है. पूजा में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जाती है. भोला नाथ घोष, अध्यक्ष पूजा समिति

फोटो. 26 पूर्णिया 4

यहां फल की बलि प्रदान करने की परम्परा है. अष्टमी तथा नवमी को भोग वितरण का कार्यक्रम चलता है लेकिन इस साल अष्टमी और नवमी एक ही दिन पड़ने से दशमी यानि 12 अक्टूबर को भोग वितरण होगा और 13 अक्टूबर को प्रतिमा का विसर्जन किया जाएगा.

आशीष कुमार गुहा, सचिव पूजा समिति

फोटो. 26 पूर्णिया 5

यहां प्रतिमा निर्माण में पौराणिकता का विशेष ख्याल रखा जाता है. एक ही फ्रेम में सभी मूर्तियों को एक साथ रखने की परम्परा का भलीभांति निर्वहन किया जाता है. पूरी निष्ठा के साथ बंगला पद्धति से पूजा की जाती है. पूजा के लिए तीन पुरोहित उपस्थित रहते हैं.

शंभू आनंद, संयुक्त सचिव पूजा समिति

फोटो. 26 पूर्णिया 6

रोशनी एवं सुरक्षा का बेहतर प्रबंध किया जाता है. पूरे दस दिनों तक यहां भक्ति और उत्सव का माहौल रहता है. दशमी को मां की विदाई वाले दिन महिलायें मां को सिंदूर अर्पण कर सिंदूर खेला रस्म की अदायगी करते हुए सभी के लिए मंगलकामना करती हैं.

दीपंकर चटर्जी, संयुक्त सचिव पूजा समिति

फोटो. 26 पूर्णिया 7फोटो. 26 पूर्णिया 8- खजांची हाट दुर्गाबाड़ी मंदिर

डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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