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धर्मवीर भारती की 5 कविताएं जो छू लेंगी आपका दिल

1972 में पद्मश्री से सम्मानित धर्मवीर भारती बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. पत्रिका 'धर्मयुग' के प्रधान संपादक के रूप में उनकी पहचान थी.

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Dharamvir Bharati : धर्मवीर भारती का जन्म इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ था. इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी की. वे एक प्रसिद्ध कवि, निबंधकार, उपन्यासकार और नाटककार थे. वे कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट कैमस और जील पॉल साट्रे के पश्चिमी बौद्धिक विचारों से बहुत प्रभावित थे. उनका लेखन रचनात्मक और बहुमुखी प्रतिभा का प्रतीक था .उनकी कुछ प्रमुख कृतियों में अंधा युग, गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा और कनुप्रिया शामिल हैं. उन्हें 1988 में संगीत नाटक अकादमी (भारत की राष्ट्रीय संगीत, नृत्य और नाटक अकादमी) द्वारा नाट्य लेखन (हिंदी) में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

उनकी कुछ प्रमुख कविताएं हैं

1.थके हुए कलाकार से

सृजन की थकन भूल जा देवता !

अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,

अभी तो पलक में नहीं खिल सकी

नवल कल्पना की मधुर चाँदनी

अभी अधखिली ज्योत्सना की कली

नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी

अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,

अधूरी धरा पर नहीं है कहीं

अभी स्वर्ग की नींव का भी पता !

सृजन की थकन भूल जा देवता !

रुका तू गया रुक जगत का सृजन

तिमिरमय नयन में डगर भूल कर

कहीं खो गई रोशनी की किरन

घने बादलों में कहीं सो गया

नयी सृष्टि का सप्तरंगी सपन

रुका तू गया रुक जगत का सृजन

अधूरे सृजन से निराशा भला

किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता

सृजन की थकन भूल जा देवता !

2. साबुत आईने

इस डगर पर मोह सारे तोड़

ले चुका कितने अपरिचित मोड़

पर मुझे लगता रहा हर बार

कर रहा हूँ आइनों को पार

दर्पणों में चल रहा हूँ मैं

चौखटों को छल रहा हु मैं

सामने लेकिन मिली हर बार

फिर वही दर्पण मढ़ी दिवार

फिर वही झूठे झरोखे द्वार

वही मंगल चिन्ह वन्दनवार

किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से

अनगिनित प्रतिविंव हँसते व्यंग से

फिर वही हारे कदम की मोड़

फिर वही झूठे अपरिचित मोड़

लौटकर फिर लौटकर आना वहीं

किन्तु इनसे छुट भी पाना नहीं

टूट सकता, टूट सकता काश

दर्द की यह गाँठ कोई खोलता

दर्पणों के पार कुछ तो बोलता

यह निरर्थकता सही जाती नहीं

लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं

राह में कोई न क्या रच पाऊंगा

अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा

विंब आइनों में कुछ भटका हुआ

चौखटों के क्रास पर लटका हुआ

3. ढीठ चांदनी

आज-कल तमाम रात

चांदनी जगाती है

मुँह पर दे-दे छींटे

अधखुले झरोखे से

अन्दर आ जाती है

दबे पाँव धोखे से

माथा छू

निंदिया उचटाती है

बाहर ले जाती है

घंटो बतियाती है

ठंडी-ठंडी छत पर

लिपट-लिपट जाती है

विह्वल मदमाती है

बावरिया बिना बात?

आजकल तमाम रात

चाँदनी जगाती है

4. उत्तर नहीं हूँ

उत्तर नहीं हूँ

मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही !

नये-नये शब्दों में तुमने

जो पूछा है बार-बार

पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं

प्रश्न हूँ तुम्हारा ही !

तुमने गढ़ा है मुझे

किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया

या

फूल की तरह

मुझको बहा नहीं दिया

प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है

नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है

सहज बनाया है

गहरा बनाया है

प्रश्न की तरह मुझको

अर्पित कर डाला है

सबके प्रति

दान हूँ तुम्हारा मैं

जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं

दे डाला!

उत्तर नहीं हूँ

मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही !

5. प्रार्थना की कड़ी

प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी

बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन,

फिर किसी अनजान आशीर्वाद में डूबन

मिलती मुझे राहत बड़ी !

प्रात सद्यः स्नात कन्धों पर बिखेरे केश

आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश

चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप

यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप

जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,

यदि मुझे मिलती रहे

काले तमस की छाँह में

ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी !

प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी !

चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये

वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये

कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-

घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-

जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,

पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!

ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-

प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी !

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