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महिलाओं की तरह पुरुषों के लिए भी एक आयोग बने

Section 498A : पत्नी ने अतुल सुभाष पर दहेज की धारा 498 ए के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कराया था. उनके परिवार वालों के खिलाफ भी शिकायत दर्ज करायी गयी थी. सुभाष का कहना था कि जिस बच्चे के लिए वह 40 हजार रुपये महीने दे रहे हैं, उसकी शक्ल तक उन्हें याद नहीं है. पत्नी बच्चे से कभी मिलने नहीं देती.

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Section 498A : हाल ही में बेंगलुरु में रहने वाले 34 वर्षीय इंजीनियर अतुल सुभाष ने आत्महत्या कर ली. आत्महत्या से पहले उन्होंने 90 मिनट का वीडियो बनाया, आत्महत्या का लंबा नोट लिखा. इसमें अतुल ने बताया कि वह अपने बच्चे के लिए 40 हजार रुपये महीना देते हैं, मगर पत्नी हर महीने दो लाख मांग रही थी. पत्नी खुद भी एक बहुराष्ट्रीय निगम में काम करती है. समझौता करने के लिए अतुल से कथित तौर पर तीन करोड़ रुपये मांगे जा रहे थे. उन्हें बेंगलुरु से जौनपुर में मामले की सुनवाई के लिए अनेक बार आना पड़ा. सोचिए कि निजी संस्थान में काम करने वाले किसी आदमी के लिए इतनी छुट्टियां लेना कितना मुश्किल है. ज्यादा छुट्टी लेने वालों की नौकरियां तक चली जाती हैं. फिर अपने यहां कोई भी मामला सालों साल चलता है.

पत्नी ने अतुल सुभाष पर दहेज की धारा 498 ए के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कराया था. उनके परिवार वालों के खिलाफ भी शिकायत दर्ज करायी गयी थी. सुभाष का कहना था कि जिस बच्चे के लिए वह 40 हजार रुपये महीने दे रहे हैं, उसकी शक्ल तक उन्हें याद नहीं है. पत्नी बच्चे से कभी मिलने नहीं देती. सुभाष का विवाह 2019 में हुआ था. कुछ ही दिनों में पत्नी से अनबन रहने लगी. सच जो भी हो, मगर अब सुभाष इस दुनिया में नहीं हैं. उनकी मृत्यु के बाद सोशल मीडिया में अभियान चल रहा है- मैन टू और जस्टिस फॉर अतुल सुभाष. इसके बरक्स बहुत-सी स्त्रियां कह रही हैं कि उनकी पत्नी निकिता का पक्ष भी सुना जाना चाहिए. हालांकि कोई यों ही अपनी जान नहीं दे देता.

अपने देश में पुरुषों की आत्महत्या के मामले महिलाओं के मुकाबले छह प्रतिशत ज्यादा हैं. इनमें से अधिकांश मामलों में परिवार की समस्याओं के कारण आत्महत्या की जाती है. यहां बताते चलें कि दहेज निरोधी अधिनियम को एक बार सर्वोच्च न्यायालय तक ने कानूनी आतंकवाद कहा था. इसके दुरुपयोग के मामले भी अपार हैं. इस कानून और अन्य महिला संबंधी कानूनों में लैंगिक भेदभाव का अगर आभास भी होता है, तो यह बहुत बड़ी बात है. ऐसा लगता है कि पुरुषों की कहीं कोई सुनवाई ही नहीं है. एक बार किसी महिला ने आरोप भर लगा दिया, तो पुरुष को अपराधी मान लिया जाता है. मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी अरोपी को अपराधी साबित करने पर तुल जाता है.

पुरुषों के तो नाम और फोटो भी बार-बार दिखाये जाते हैं, जबकि स्त्री का नाम लेना तक अपराध है. यदि पुरुष अदालती कार्रवाई के बाद बरी भी हो जाए, तो उसकी खोयी प्रतिष्ठा कभी वापस नहीं आती. समाज भी उसे शक की नजर से देखता है. कई बार नौकरी से तो हाथ धोना ही पड़ता है. समझौता हो भी, तो भारी-भरकम रकम चुकानी पड़ती है. इसके अलावा पत्नी यदि पति के घर वालों के साथ नहीं रहना चाहती, विवाहेतर संबंध हैं, अथवा जमीन-जायदाद का मामला है, तो भी महिला कानूनों का दुरुपयोग आम बात हो चली है.

जिन कानूनों को महिलाओं की रक्षा के लिए बनाया गया है, अगर उनका ही दुरुपयोग होने लगे, तो यह दुखद है. इससे कानूनों की धार कमजोर होती है. लोग उन पर अविश्वास करने लगते हैं. लेकिन महिलाओं को हाय बेचारी कहकर यह मान लिया जाता है कि औरतें कभी झूठे आरोप नहीं लगातीं, जबकि जांच एजेंसियों का कहना है कि बहुत से मामले झूठे होते हैं. इसीलिए पुरुषों के लिए काम करने वाले संगठन मानते हैं कि महिलाओं की तरह पुरुषों के लिए भी एक आयोग बनना चाहिए. महिलाओं के लिए कोई भी कानून बनाने से पहले पुरुषों के संगठनों से भी बातचीत की जानी चाहिए.


देश में जेंडर न्यूट्रल यानी लिंग निरपेक्ष कानून बनाए जाने चाहिए. पुरुषों के अधिकारों के लिए काम करने वाली दीपिका नारायण भारद्वाज ने फिल्म बनायी है-‘मार्टियर्स आफ मैरिज’. उन्हीं की दूसरी फिल्म का नाम है-‘इंडियाज संस’. ये दोनों फिल्में पुरुषों की समस्याओं पर केंद्रित हैं. पुरुषों के लिए काम करने वाली बरखा त्रेहन का मानना है कि देश में पुरुषों के लिए कोई कानून नहीं है. जबकि एक अध्ययन के अनुसार 51 प्रतिशत पुरुष परेशान हैं. उनके परिवार तक को आरोपी बना दिया जाता है. कई मामलों में तो दूर-दराज के रिश्तेदारों के नाम तक लिखवा दिये जाते हैं. ‘मी टू’ के वक्त भी ऐसे आरोपों की बाढ़ आ गयी थी.

अंग्रेजी के एक मशहूर लेखक पर जब एक महिला ने आरोप लगाये, तो उन्होंने वे मेल सार्वजनिक कर दिये थे, जो उस महिला ने उन्हें भेजे थे. कायदे से देश के कानूनों को लैंगिक भेदभाव से मुक्त कर जेंडर न्यूट्रल बना देना चाहिए, ताकि जिसे भी सताया जा रहा है-स्त्री या पुरुष, उसे न्याय मिल सके, क्योंकि हर बार पूरी तरह न स्त्री सही होती है, न पुरुष. वैसे भी अपने देश में गरीब स्त्री-पुरुषों की पहुंच तो न्याय दिलाने वाली संस्थाओं तक होती ही नहीं है, क्योंकि न्याय पाने में बहुत वक्त लगता है और खर्च भी बहुत होता है. जांच एजेंसियों को न्यायालय और सरकार ने भी हिदायत दी है कि वे पूरी छान-बीन करने बाद ही कोई मामला दर्ज करें. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

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