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बंद होना चाहिए दलितों का उत्पीड़न

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राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराध 2018 में 42,793 थे, जो वर्ष 2020 में 50 हजार से अधिक हो गये. यह सब इतना सामान्य हो गया है कि इन घटनाओं के बढ़ने पर न कोई आश्चर्य करता है, न कहीं हाहाकार होता है.

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दलितों पर अत्याचारों के लिए ब्राह्मणों, ठाकुरों और हिंदू आस्था पर प्रहार करना बॉलीवुड से लेकर लाहौर की फिल्मों तक एक लोकप्रिय कथ्य रहा है. स्वतंत्रता के पहले से दलितों को बहाना बनाकर हिंदू समाज को तोड़ने के लिए मुस्लिम लीग द्वारा तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के दलित नेता जगन्नाथ मंडल का कैसे उपयोग कर फेंका गया, यह कभी मुख्य दलित संवाद का अंग नहीं बना,

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बल्कि हाजी मस्तान और युसूफ खान (दिलीप कुमार) के साथ दलित मुस्लिम महासंघ सक्रिय किया गया. ब्रिटिश इतिहासकारों ने इतिहास अपने साम्राज्य के हितों को ध्यान में रखकर बनाया और स्वातंत्र्योत्तर वामपंथी आंदोलन ने दलितों को हिंदू दक्षिणपंथ पर प्रहार का उपकरण बना दिया.

इस ऐतिहासिक षड्यंत्र से बेखबर हिंदू जातिवादी किस प्रकार अपने ही धार्मिक समाज को तोड़ने के प्रयासों में सहभागी और सहायक बन रहे हैं, यह विभिन्न प्रांतों में हिंदू अनुसूचित जातियों पर हो रहे प्रहारों से पता चलता है. यदि कर्मकांडी हिंदू आरती और घंटियों की गूंज में आत्म विभ्रम में फंसा रहा, जाति के झूठे और पाखंडपूर्ण अहंकार में अपने ही धर्म बंधुओं की वेदना के प्रति संवेदनहीन बना रहा, तो ईश्वर भी यदि अवतार ले लें, तो हिंदुओं का उत्थान के शिखर पर पहुंचना अधिक कठिन हो जायेगा.

अगस्त में जालौर में एक अध्यापक की पिटाई से दलित बच्चे की मृत्यु हो गयी. प्रारंभिक विवरणों में बताया गया था कि उसने कथित सवर्णों के लिए रखे घड़े से पानी पी लिया था. बच्चे के परिजन बिलखते रहे, लेकिन मीडिया राजस्थान सरकार को बचाने में लग गया. मानो वास्तव में दलित को कोई मारता नहीं, या तो वे स्वयं मर जाते हैं या कथित सवर्णों को बदनाम करने के लिए अपनी अकाल मृत्यु का षड्यंत्र रचते हैं! राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, केवल राजस्थान में 2020 में अनुसूचित जातियों के विरुद्ध सात हजार से अधिक घटनाएं हुईं.

यह विशुद्ध हिंदू धर्म का भीतरी मामला है. पर किसी हिंदू संगठन, महात्मा, संत या नेता ने इन घटनाओं के विरुद्ध आवाज उठायी हो, ऐसा दिखा नहीं. राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराध 2018 में 42,793 थे, जो वर्ष 2020 में 50 हजार से अधिक हो गये.

यह सब इतना सामान्य हो गया है कि इन घटनाओं के बढ़ने पर न कोई आश्चर्य करता है, न कहीं हाहाकार होता है. उत्तराखंड के एक मंदिर में 20 मई, 2016 को कुछ दलितों को ले जाने के ‘अपराध’ में कथित सवर्णों ने हम पर पत्थर मारे. मैं दलितों को लेकर मंदिर प्रवेश के लिए निकला था. सोचा था कि मिल-जुलकर समझा लेंगे, लेकिन वे हमें जान से मारने पर उतर आये. मैंने केवल इतना ही उनसे कहा था- जब तक मैं हिंदू हूं, तभी तक पत्थर मार सकते हो.

तुम्हारे मंदिर के सामने जब कोई मजार खड़ी करेगा, तो न तुम और न तुम्हारी सरकार उसको कुछ कह पायेगी. वास्तव में सवर्ण उनको नहीं कहना चाहिए, जिनको अपनी जाति के उच्चतर होने का घमंड है. हिंदू समाज के सवर्ण और पूज्य तो वे दलित हैं, जिन्होंने सदियों के जाति भेद के अत्याचार सहकर भी राम नाम को नहीं छोड़ा. यह उनको समझ नहीं आता, जो अपने मोहल्ले में दलित हिंदू को अपनी बारात में घोड़े पर चढ़ते देख नहीं सकते.

सावरकर, बाला साहब देवरस के बाद मोहन भागवत ने कहा है कि हर जगह हिंदुओं का एक श्मशान, एक कुआं और एक मंदिर होना चाहिए. यह सुनिश्चित करना हर हिंदू का कर्तव्य है. तमिलनाडु मेरा दूसरा घर और उत्तराखंड से अधिक वात्सल्य देने वाला क्षेत्र है. वहां आज भी ‘टू ग्लास सिस्टम’ चलता है.

इसके खिलाफ शिवरात्रि और दिवाली पर करोड़ों रुपये खर्च कर धनपतियों और नेताओं को बुलाने वाले बाबा लोग बोलते नहीं. कैसे शिव, कैसे औघड़ दानी, कैसे चांडाल के चरण स्पर्श करने वाले आदि शंकर के जीवन पर ये लोग ‘अमृत समान’ उद्बोधन करते होंगे, जब अपने ही रक्त बंधु, धर्म बंधु की असीम वेदना को साझा करने का मन नहीं रखते!

अपने प्रवचन और पुस्तकें अल्मोड़ा की उस बच्ची के पास लेकर जाओ, जिसका नाम है गीता. उसका परिवार राजपूत जाति से था. उसने जगदीश से शादी की, जो अनुसूचित जाति से था. गीता के पिता को यह स्वीकार नहीं था. गीता ने एक महीने पहले ही पूर्ण विवरण के साथ पुलिस को रिपोर्ट की थी, पर पुलिस ने कुछ नहीं किया. जगदीश को गीता के पिता ने मार दिया. क्या ऐसी घटनाओं पर हिंदू संतों को नहीं बोलना चाहिए?

डॉ अंबेडकर पर बहुत दबाव डाला गया था कि वे इस्लाम या ईसाईयत स्वीकार कर लें, पर उन्होंने बौद्ध मत अपनाकर देश तथा हिंदू धर्म को बचा लिया. उन्होंने ‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’ पुस्तक लिखकर अपनी प्रखर राष्ट्रीयता का परिचय दिया था. अंबेडकर के प्रति हम कभी उऋण नहीं हो सकते. अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन बताते हैं कि हम सुधरे नहीं और न ही हमने कभी अंबेडकर के भाषण, खासकर जो उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में दिया था, को पढ़ने की आवश्यकता समझी.

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