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उमर अब्दुल्ला के सामने अनेक चुनौतियां

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Omar Abdullah : उमर भी अब अलग हैं. अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के बाद वे भारतीय संविधान की शपथ लेने वाले जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री हैं. शायद सत्ता से बाहर रहने ने उन्हें व्यावहारिक बनाया है. उन्होंने यह समझ लिया है कि उन्हें और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस को नयी राजनीतिक वास्तविकता के साथ जीना होगा.

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Omar Abdullah : आप अब्दुल्ला से कश्मीर को अलग कर सकते हैं, पर आप अब्दुल्ला को कश्मीर से नहीं निकाल सकते. पिछले हफ्ते जम्मू-कश्मीर के नये मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक्स पर पोस्ट किया- ‘मैं वापस आ गया हूं.’ मानो एक कश्मीरी श्वार्जनेगर टर्मिनेटर की भूमिका में है, जिसने अपने सियासी दुश्मनों को मिटा दिया है. ब्रिटेन में जन्मे 54 वर्षीय तीसरी पीढ़ी के अब्दुल्ला का पोस्ट एक आनुवांशिक निष्कर्ष था. अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने शेरवानी और पायजामा पहनने की परंपरा का पालन किया, जो स्थानिकता, आनुवंशिकता और निरंतरता का संकेत था. उनकी राजनीतिक विरासत यह रेखांकित करती है कि वे केंद्रशासित प्रदेश (यानी स्वयं) के लिए अधिक शक्ति मांगें और पाकिस्तान के साथ बातचीत का समर्थन करें तथा यह भी कि जम्मू-कश्मीर अन्य राज्यों से अलग है. उमर भी अब अलग हैं. अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के बाद वे भारतीय संविधान की शपथ लेने वाले जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री हैं. शायद सत्ता से बाहर रहने ने उन्हें व्यावहारिक बनाया है. उन्होंने यह समझ लिया है कि उन्हें और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस को नयी राजनीतिक वास्तविकता के साथ जीना होगा.

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उन्होंने एक नया कश्मीर संभाला है, जहां वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और कश्मीरियत को जल्दी बहाल किया जाना चाहिए. अब्दुल्ला परिवार ने हमेशा कश्मीर के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग की है. हालांकि वे घाटी के बेताज बादशाह हैं, जिन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से डोगरा राजवंश की जगह ली है, लेकिन जम्मू में भगवा विचारधारा का बोलबाला है. आगे की गति और राजनीतिक शांति के लिए दोनों को मिलना होगा. इसके लिए उमर को अतिरिक्त प्रयास करना चाहिए. कश्मीर में 1990 से अब तक एक लाख से अधिक नागरिक और सुरक्षाकर्मी मारे गये हैं. इस बार मतदाताओं ने उमर को विकास और सम्मान के लिए बड़ा जनादेश दिया है. अपनी आधुनिक छवि और मुखर रवैये के बावजूद अब्दुल्ला जूनियर का सिंहासन कांटों से भरा है. उन्हें यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कार्यक्रम आधारित शासन सुनिश्चित करना चाहिए, जो अब तक मरणासन्न था.

जम्मू-कश्मीर को किसी भी चीज से ज्यादा राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता की जरूरत है. यह शायद एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां 1951 से अब तक आठ मुख्यमंत्रियों के मुकाबले 11 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है. यहां केंद्र सरकार का शासन सबसे अधिक समय रहा है. उमर के दादा शेख अब्दुल्ला, जो कश्मीर के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री थे, ने नेहरू के आदेश पर गिरफ्तार होने से पहले लगभग पांच साल तक शासन किया था. इसके बाद, दो कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों बख्शी गुलाम मोहम्मद और गुलाम मोहम्मद सादिक ने छह से दस साल तक जम्मू-कश्मीर पर शासन किया.


तीनों अब्दुल्लाओं के नाम सबसे लंबे समय तक इस राज्य पर शासन करने का रिकॉर्ड है- कुल मिलाकर 34 साल. शेख अब्दुल्ला पहले कश्मीर के प्रधानमंत्री थे और उसके बाद चार अलग-अलग कार्यकालों में 17 साल से अधिक समय तक मंत्री रहे. शासन करने की कला उनकी रगों में है. परिवार सत्ता के व्याकरण और वैभव को जानता और समझता है. उमर ने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत कुछ फायदों के साथ की है, पर चुनौतियां भी कम नहीं हैं. न केवल उनकी पार्टी को अपने दम पर लगभग बहुमत प्राप्त है, बल्कि वह अलगाववादी दबाव को नजरअंदाज करने का जोखिम उठा सकती है. त्रिशंकु विधानसभा की कोशिश कर रहीं लगभग सभी छोटी पार्टियों को करारी हार का सामना करना पड़ा है. महबूबा मुफ्ती की पार्टी निर्णायक रूप से हार गयी और अब वह घाटी का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती है. अब्दुल्ला ने घाटी में लगभग तीन-चौथाई सीटों पर और जम्मू में लगभग आधा दर्जन सीटों पर कब्जा कर लिया. यहीं पर समस्या है. उमर की कट्टर प्रतिद्वंद्वी भाजपा ने जम्मू क्षेत्र में न केवल 29 सीटें जीतीं, बल्कि उसने सबसे अधिक वोट प्रतिशत (25.69) भी हासिल किया है, जो नेशनल कॉन्फ्रेंस (23.47) से अधिक है. कांग्रेस ने 12 प्रतिशत वोट के साथ मात्र छह सीटें जीती हैं.

उमर ने कुछ अच्छी बातों के साथ दूसरी पारी की शुरुआत की है. अपने दादा और पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए उन्होंने एक आदिवासी हिंदू को उपमुख्यमंत्री बनाकर जम्मू क्षेत्र को उचित प्रतिनिधित्व दिया है. शेख के मंत्रिमंडल में एक-तिहाई कश्मीरी पंडित और अन्य हिंदू शामिल थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस जम्मू क्षेत्र से भी सम्मानजनक संख्या में सीटें जीतती थी. इस बार जम्मू ने राज्य के भौगोलिक और प्रशासनिक ढांचे को बदलने की केंद्र सरकार की पहल के लिए मतदान किया. केंद्र राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए प्रतिबद्ध है, पर अनुच्छेद 370 की वापसी की संभावना नहीं है.

अब्दुल्ला परिवार को यह एहसास हो गया है. मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद उमर ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया- ‘अनुच्छेद 370 को भूल जाओ और अन्य राज्यों को हासिल शक्तियों के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा पाने के लिए लड़ो. हम जानते हैं कि आप इसे उस सरकार से वापस नहीं पा सकते, जिसने इसे छीन लिया है. इसलिए इसे अभी के लिए अलग रख दें.’ अब मोदी को राज्य की सभी शक्तियों को वापस कर उदारता दिखानी चाहिए, जो 2019 और उसके बाद के प्रशासनिक आदेशों द्वारा छीन ली गयी थीं. जाहिर है कि उनका प्रयास अपने संघर्षग्रस्त राज्य का बेहतर प्रबंधन करना होगा, जो मोदी सरकार के साथ टकराव का विकल्प चुनने पर संभव नहीं हो सकता. उनसे उम्मीद की जाती है कि वे केंद्र पर दबाव डालेंगे कि पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाए. उन्हें यह ध्यान में रखने की सलाह दी गयी है कि दिल्ली के अरविंद केजरीवाल के साथ क्या हुआ, जिन्होंने सीधे मोदी से मुकाबला करने की कोशिश की.


वैचारिक युद्धों को सुशासन का भाग्य तय नहीं करना चाहिए. उमर प्रधानमंत्री पद के कई उम्मीदवारों में से एक बनने की भ्रामक महत्वाकांक्षा से बाधित नहीं हैं. उनके लिए केंद्रीय शासन के दौरान जम्मू-कश्मीर में हुए विकास को बढ़ाना समझदारी होगी. केंद्र सरकार ने कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए उदारता से आवंटन किया है. वर्तमान में जम्मू-कश्मीर 28 अरब डॉलर के राज्य जीडीपी के साथ देश में 21वें स्थान पर है. उमर की प्राथमिकताएं जम्मू-कश्मीर में अधिक निवेश लाना, हस्तशिल्प और पर्यटन क्षेत्रों को पुनर्जीवित करना और सांप्रदायिक सौहार्द बनाना है. उन्होंने कश्मीरी पंडितों की वापसी का वादा किया है. उम्र उनके पक्ष में है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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