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प्राकृतिक खेती को चरणबद्ध तरीके से ही बढ़ावा मिले

Natural farming फलों और सब्जियों में रासायनिक अवशिष्ट की मात्रा तय सीमा से कहीं अधिक है और इसकी ठीक से जांच हो, तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ सकते हैं. फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआइ) का यह जिम्मा है कि उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले खाद्य उत्पाद बाजार में न पहुंचे.

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Natural farming : केंद्र सरकार पिछले कई साल से प्राकृतिक खेती, जीरो बजट खेती और ऑर्गनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाती रही है, लेकिन पहली बार अब इसे मिशन मोड में बढ़ावा देने के लिए कदम उठाया गया है. हाल ही में कैबिनेट ने नेशनल मिशन ऑन नेचुरल फार्मिंग (एनएमएनएफ) को मंजूरी दी और इसके लिए 2,481 करोड़ रुपये की एक सेंट्रल स्कीम लागू कर दी है, जिसमें केंद्र सरकार की हिस्सेदारी 1,584 करोड़ रुपये और राज्यों की हिस्सेदारी 897 करोड़ रुपये है. यह सही है कि मिशन मोड में योजना लागू करने से नतीजों को हासिल करना व्यवहारिक होता है. असल में प्राकृतिक खेती के पीछे सरकार का मकसद रसायन मुक्त खेती को बढ़ावा देना है, जो उपभोक्ताओं के लिए रासायनिक अवशिष्ट मुक्त कृषि उत्पाद उपलब्ध करा सके और साथ ही मिट्टी की सेहत को बेहतर बना सके. फसल की लागत कम कर किसानों की आय बढ़ाने का उद्देश्य भी इसके साथ जुड़ा है.


इसके लिए 15 लाख हेक्टेयर जमीन में प्राकृतिक खेती को पहुंचाना है और एक करोड़ किसानों को इसके साथ जोड़ना है. देश में करीब 14 करोड़ किसान हैं, ऐसे में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के साथ लाना एक बड़ा कदम साबित हो सकता है. देखने में यह एक महत्वाकांक्षी योजना है. साथ ही, इसका मकसद मानव स्वास्थ्य से लेकर मिट्टी के स्वास्थ्य और पर्यावरण व जलवायु अनुकूलता के लिए भी बेहतर है, क्योंकि कृषि में नयी चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. मिट्टी का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और भले ही सरकार फसलों में बीमारियों को रोकने के लिए इस्तेमाल होने वाले एग्रो केमिकल के लिए सख्त मानकों के तहत सुनिश्चित करे कि कृषि उत्पादों में रासायनिक अवशिष्ट तय सीमा के अंदर हों, पर हकीकत इससे बहुत अलग है.

फलों और सब्जियों में रासायनिक अवशिष्ट की मात्रा तय सीमा से कहीं अधिक है और इसकी ठीक से जांच हो, तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ सकते हैं. फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआइ) का यह जिम्मा है कि उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले खाद्य उत्पाद बाजार में न पहुंचे. पिछले दिनों कई बड़े निर्यातकों के प्रतिनिधियों ने इस लेखक के साथ बातचीत में स्वीकार किया कि यूरोप और अमेरिका को निर्यात होने वाले अंगूर यूरोपीय संघ और अमेरिकी मानकों को पूरा करते हैं, पर यही उत्पाद जब घरेलू उपभोक्ताओं के लिए बाजार में आता है, तो उसकी गुणवत्ता काफी अलग होती है. इसलिए कृषि में उपयोग होने वाले रसायनों का मुद्दा काफी गंभीर है. यही नहीं, उर्वरकों का असंतुलित उपयोग मिट्टी की सेहत बिगाड़ रहा है. वहीं उर्वर क्षमता प्रभावित होने के चलते रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बढ़ रहा है.


ऐसे में प्राकृतिक खेती का विकल्प काफी आकर्षक लगता है. सरकार ने जिस मिशन को मंजूरी दी है, उसकी घोषणा चालू साल के बजट में की गयी थी. उसके पहले नेचुरल फार्मिंग जीरो बजट खेती की बात की गयी. ऑर्गेनिक खेती की बात भी हुई. गंगा के दोनों किनारों पर एक सीमा के तहत रसायन मुक्त खेती की घोषणा हुई. लेकिन उसमें बहुत अधिक कामयाबी नहीं मिली. रिजेनरेटिव एग्रीकल्चर को बढ़ावा देने की बात हो रही है और इसके लिए वैज्ञानिक भी समर्थन दे रहे हैं, क्योंकि उसके जरिये फसल के अवशेष खेत में ही रह जायेंगे और बार-बार जुताई पर होने वाले खर्च से भी बच जायेंगे, लेकिन यह विकल्प अभी प्रयोग से आगे नहीं जा पाया है. नेचुरल फार्मिंग मिशन के तहत कहा गया है कि कृषि विज्ञान केंद्र, राज्यों के कृषि विश्वविद्यालय और दूसरे कृषि संस्थान इसका हिस्सा होंगे. डिमांस्ट्रेसन फार्म बनाये जायेंगे. पंद्रह हजार क्लस्टर और उनके लिए 10 हजार बायो इनपुट सेंटर रिसोर्स सेंटर, बीजामृत और जीवामृत बनाने वालों को बढ़ावा दिया जायेगा.

नेचुरल फार्मिंग के लिए सर्टिफिकेशन प्रक्रिया को आसान और व्यापक बनाया जायेगा. यानी एक इको-सिस्टम खड़ा किया जायेगा. लेकिन सरकार के लिए बेहतर होगा कि सबसे पहले वैज्ञानिक आधार पर प्राकृतिक खेती की समीक्षा और उसका आकलन किया जाए. इसके लिए फसलों का चयन करने की जरूरत है, क्योंकि हर फसल को एक साथ इसके दायरे में लाना बहुत व्यवहारिक नहीं है. प्राकृतिक खेती का उत्पादकता और किसान की आय पर क्या असर होगा, इसके आंकड़े सामने लाने की जरूरत है. इस प्रणाली में किसान को आर्थिक फायदा हो रहा है या नहीं, इसे लेकर भी स्पष्टता की जरूरत है. हमें ध्यान रखना चाहिए कि कृषि किसान के लिए एक इकोनॉमिक एक्टीविटी, यानी उसका व्यवसाय है और वह कोई नया कदम तभी उठायेगा, जब उसे लगेगा कि इसमें उसका आर्थिक लाभ ज्यादा है. हमें यह भी देखना है कि देश की खाद्य आत्मनिर्भरता बेहतर कृषि उत्पादन पर निर्भर है. कई फसलों, खासतौर से दलहन और तिलहन में हम अब भी बड़े स्तर पर आयात पर निर्भर है. गेहूं उत्पादन के सरकार के रिकॉर्ड अनुमानों के बावजूद दाम बढ़ रहे हैं और निर्यात पर प्रतिबंध है. अगर अधिक दाम बढ़ते हैं, तो आयात की नौबत आ सकती है. ऐसे में कोई बड़ा प्रयोग करने के पहले हमें जमीनी हकीकत को ध्यान में रखने की जरूरत है.


वहीं इस पूरी कवायद का सबसे अहम पक्ष है बेहतर बाजार की उपलब्धता. देश में किसानों ने ऑर्गेनिक खेती का विकल्प बड़े पैमाने पर अपनाया है. लेकिन कई बार उन्हें सामान्य उत्पादों की कीमत पर ही ऑर्गेनिक उत्पाद बेचने पड़ रहे हैं. हालांकि सरकार ने एक बड़ी पहल के तहत राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल ऑर्गेनिक को-ऑपरेटिव लिमिटेड के नाम से एक मल्टी स्टेट को-ऑपरेटिव स्थापित की है और नेचुरल फार्मिंग मिशन की कामयाबी में यह सहायक हो सकती है. वहीं सर्टिफिकेशन एक बड़ी समस्या है और एपीडा द्वारा इसके लिए जो मौजूदा ढांचा बनाया गया है, उसे लेकर सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि सर्टिफाइड उत्पादों की गुणवत्ता को लेकर भी सवाल उठते हैं. ऐसे में प्राकृतिक खेती के मोर्चे पर हमें अभी छोटी पहल कर इसके नतीजों को सामने लाना चाहिए और अगर यह उत्साहवर्धक हो, तभी उसे चरणबद्ध तरीके से बढ़ावा दिया जा सकता है. हमें यह भी समझना होगा कि केवल मिशन बना देने से लक्ष्य हासिल नहीं होते. अगर ऐसा होता, तो दशकों पहले बने ऑयलसीड मिशन और पल्सेज मिशन के जरिये हम इन दोनों उत्पादों के मामले में आत्मनिर्भर बन गये होते. हकीकत यह है कि अब भी हम अपनी घरेलू खपत का 60 फीसदी खाद्य तेल आयात करते हैं और दालों की उपलब्धता के लिए आयात पर बड़े पैमाने पर निर्भर हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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