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जम्मू-कश्मीर में प्रभावी रणनीति की जरूरत

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जम्मू क्षेत्र में 15-20 वर्षों से बड़ी आतंकी वारदातें नहीं हो रही थीं, तो यह मान लिया गया कि यहां पर आतंकवाद की समस्या का समाधान कर लिया गया है.

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पिछले कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाओं में कुछ तेजी आयी है, पर अभी जो हो रहा है, वह कमोबेश तीस वर्षों से होता आया है. मौजूदा समय में आतंकवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तानी हस्तक्षेप भी स्थानीय तत्वों की तुलना में अधिक बढ़ गया है. अभी भी कुछ स्थानीय आतंकी सक्रिय हैं, पर हमलों में हालिया बढ़ोतरी बड़ी तादाद में पाकिस्तानी आतंकियों की घुसपैठ, खासकर जम्मू क्षेत्र में, के कारण हुई है. इस संख्या के बारे में अटकलें हैं.

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जितनी तीव्रता से हमले हुए हैं और जितने बड़े क्षेत्र में घटनाएं हुई हैं, उससे यह लगता है कि जम्मू क्षेत्र में आतंकी गुटों ने एक बड़ा नेटवर्क बना लिया है. कश्मीर घाटी में सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता होने की वजह से हमले करना बहुत मुश्किल है. वहां छोटी-मोटी वारदातें होती हैं, जैसे किसी निहत्थे आदमी को कहीं मार दिया या गोलीबारी कर दी. यह कहने का यह मतलब नहीं है कि घाटी में बड़े हमले नहीं हो सकते, पर ऐसा करना बहुत मुश्किल है.

तीन दिन पहले उत्तरी कश्मीर में कुपवाड़ा में एक हमला हुआ है. कुपवाड़ा उन क्षेत्रों में है, जो शुरू से ही आतंक-प्रभावित रहे हैं. इस हमले से पाकिस्तान, जो अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करता रहता है कि ऐसे हमलों से उसका लेना-देना नहीं है, की पोल खुल गयी है. इससे स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान जान-बूझकर भारत के साथ तनाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.

कश्मीर घाटी में आतंकवाद को काबू में करने में कामयाबी मिली है, तो उसने जम्मू की ओर रुख किया है. जम्मू क्षेत्र में आतंकियों को भागने, छुपने और नियंत्रण रेखा पार करने में आसानी होती है. जम्मू इलाके में जिस प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था होनी चाहिए, उस पर असर पड़ा है क्योंकि बहुत से सैनिकों को वहां से हटाकर चीन की सीमा पर तैनात किया गया है. सुरक्षा तंत्र में ऐसी कमियों का फायदा आतंकियों ने उठाया है. इस क्षेत्र में 15-20 वर्षों से बड़ी आतंकी वारदातें नहीं हो रही थीं, तो यह मान लिया गया कि यहां पर आतंकवाद की समस्या का समाधान कर लिया गया है. अगर आतंकियों की संख्या 40-50 है और उनके सात-आठ गुट हैं, तो उन्हें खत्म करना खास मुश्किल काम नहीं है.

लेकिन संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि यह समस्या जटिल भी है और बड़ी भी हो चुकी है. ऐसी स्थिति में जम्मू क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था भी मजबूत करनी होगी, इंटेलिजेंस नेटवर्क को भी बेहतर करना होगा और रणनीतिक समीक्षा करनी होगी. इन कामों में समय लगेगा. आतंकवाद की समस्या के समाधान में महीनों भी लग सकते हैं और शायद एक-दो साल भी लग सकते हैं. मुझे लगता है कि भारतीयों के साथ एक परेशानी यह है कि हम विजय की घोषणा करने में जल्दी में रहते हैं. इससे बचा जाना चाहिए.

अब सवाल यह है कि आखिर पाकिस्तानी ऐसा कर क्यों रहे हैं. एक वजह तो यह है कि पाकिस्तान में यह सोच पैदा हुई कि उनके पास भारत को चुनौती देने का कोई जरिया नहीं है, तो फिर आतंकवाद का इस्तेमाल किया जाए क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया, तो भारत यह समझने लगेगा कि पाकिस्तान के पास तो कोई क्षमता ही नहीं है, कश्मीर में उसका कोई औचित्य नहीं रहा और वह पाकिस्तान को पूरी तरह अनदेखा कर सकता है. पाकिस्तान ऐसी घटनाओं के जरिये यह संदेश देना चाहता है कि वह जब चाहे जम्मू-कश्मीर को अशांत कर सकता है. दूसरा पहलू पाकिस्तान की आंतरिक राजनीतिक कलह है. वहां सेना की छवि को, खासकर पंजाब प्रांत में, बहुत नुकसान हुआ है. सेना की सोच है कि वह पाकिस्तान की जनता को फिर से अपने पीछे तभी लामबंद कर सकती है, जब भारत के साथ तनाव बढ़े. सेना के मौजूदा प्रमुख आसिम मुनीर वही व्यक्ति हैं, जो तब आइएसआइ के मुखिया थे, जब पुलवामा का हमला हुआ था.

वे इस्लामिक कट्टरपंथी सोच रखते हैं. शायद उनका मानना है कि उनके पहले पाकिस्तानी सेना के प्रमुख रहे कमर बाजवा की नीति भारत के बरक्स कमजोर रही थी, जिसके चलते भारत को ऐसा मानने का आधार मिल गया था कि अब लड़ाई में पाकिस्तान कहीं बचा ही नहीं है. तो, उनकी समझ यह है कि भले उनके पास भारत को सीधे चुनौती देने की क्षमता न हो, पर गले की हड्डी तो बन ही सकते हैं. जेनरल मुनीर सेना और अपनी छवि चमका कर अपना कार्यकाल बढ़ाने की कोशिश में भी है, जो अगले साल खत्म होने वाली है. उन्हें यह भी लगता है कि भारत में जो नयी सरकार बनी है, वह शायद वैसे ठोस फैसले न ले पाये, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे कार्यकाल में हुआ था. एक पहलू यह भी है कि पाकिस्तान यह टेस्ट करना चाहता है कि वह भारत के साथ तनाव को किस हद तक ले जा सकता है.

जहां तक राजनीतिक प्रयासों का सवाल है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमने अनेक गलतियां की हैं. किसी स्थिति के दो आयाम होते हैं- आवश्यक और समुचित. अगस्त 2019 में संविधान में जो संशोधन हुए, वे कश्मीर में हालात बेहतर करने के लिए आवश्यक कदम थे. समुचित कदम का मतलब है कि राजनीति स्तर पर वहां क्या पहल हुई. कश्मीर में पुराने ढर्रे की राजनीति में एक ओर अलगाववाद को भी शह दिया जाता था और दूसरी ओर भारत के लिए भी आवाज उठायी जाती थी. इस दोहरे मानक वाली राजनीति को बदलने की जरूरत थी ताकि कश्मीर से एक ही आवाज आये, जो भारत के लिए हो. इस मोर्चे पर विफलता रही. वहां की मुख्यधारा की पार्टियों को दूर कर दिया गया. ऐसा माहौल बनाया जाना चाहिए था कि अब पुराने ढर्रे की राजनीति कारगर नहीं होगी, पर ऐसा नहीं हुआ.

हालिया चुनाव में इंजीनियर राशिद की जीत भी एक संकेत है कि सरकार वैकल्पिक राजनीति को बढ़ावा देने में असफल रही. नयी पार्टियों का भी कोई खास असर नहीं दिखता. पांच साल में ऐसा कुछ नहीं हो सका, जिसे उपलब्धि कहा जा सके. यह हमारे लिए एक चिंता का विषय होना चाहिए. जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल के ऊपर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं. वहां का प्रशासन भी ऐसा नहीं है कि लोग उसकी प्रशंसा कर रहे हों. सवाल यह नहीं है कि विकास कितना हुआ, सवाल यह है कि लोगों को लगना चाहिए कि विकास कार्य हो रहे हैं और उनके जीवन पर उनका असर हो रहा है. इस दिशा में गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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