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जम्मू-कश्मीर : किस करवट बैठेगा चुनावी ऊंट

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Jammu Kashmir Election : जम्मू-कश्मीर की मौजूदा विधानसभा में अब 114 सीटें हैं, जिनमें से 24 सीटें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लिए सुरक्षित हैं. चुनाव बाकी 90 सीटों के लिए हो रहा है. इस चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन है, जबकि पीडीपी अकेले लड़ने की तैयारी में है.

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Jammu Kashmir Election : जम्मू-कश्मीर भले ही अभी केंद्र-शासित प्रदेश हो, पर वहां के विधानसभा चुनाव पर देश ही नहीं, दुनिया की निगाह भी है. इसकी वजह है, संविधान का बहुचर्चित अनुच्छेद 370, जो अब अतीत बन चुका है. पर स्थानीय दल अब भी इसकी याद बनाये रखना चाहते हैं. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने तो इस अनुच्छेद को बहाल करने का वादा किया है. कांग्रेस ने ऐसा कोई वादा तो नहीं किया है, पर उसकी पार्टी लाइन इस अनुच्छेद को बनाये रखने की रही है. नेशनल कांफ्रेंस भी इस अनुच्छेद की बहाली की बात करती रही है. जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाओं की वजह से चुनाव कराना चुनौतीपूर्ण है, लेकिन सुरक्षा बलों के सहयोग से चुनाव आयोग ने निष्पक्ष और भयरहित चुनाव कराने की ठान ली है. तारीखों का ऐलान करते वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ने वादा किया था कि धरती के स्वर्ग में चुनाव खुशनुमा माहौल में ही होंगे. जिस कश्मीर घाटी में आतंकवाद के उभार के बाद से बमुश्किल नौ प्रतिशत तक मतदान होता रहा है, हालिया लोकसभा चुनाव में उत्तरी कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास बारामूला, मध्य कश्मीर में श्रीनगर और दक्षिणी कश्मीर में पीर पंजाल पर्वतों के पास अनंतनाग-राजौरी में बड़ी तादाद में वोट डाले गये. चूंकि विधानसभा चुनाव कहीं ज्यादा स्थानीय मुद्दों पर भी होंगे, इसलिए मतदाताओं की संख्या में और बढ़ोतरी हो सकती है.

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जम्मू-कश्मीर की मौजूदा विधानसभा में अब 114 सीटें हैं, जिनमें से 24 सीटें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लिए सुरक्षित हैं. चुनाव बाकी 90 सीटों के लिए हो रहा है. इस चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन है, जबकि पीडीपी अकेले लड़ने की तैयारी में है. भाजपा भी अकेले मैदान में उतर रही है. उसका प्रभाव ज्यादातर जम्मू इलाके में है, जहां 43 सीटें हैं. वैसे पार्टी कश्मीर घाटी की 47 सीटों में से अधिकतर पर उतरने की तैयारी में है. चूंकि 370 हटाये जाने के बाद यह पहला चुनाव है, इसलिए यह चुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल है. शायद यही वजह है कि पार्टी ने अतीत में राज्य में सहयोगी दलों के साथ कमल खिला चुके राम माधव को प्रभारी बनाया है. अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद पार्टी की लोकप्रियता विशेषकर जम्मू क्षेत्र में अपने चरम पर थी. इसी इलाके के लोगों ने प्रजा मंडल के बैनर तले कश्मीर के पूर्ण विलय को लेकर आंदोलन चलाया था. पर टिकट बंटवारे को लेकर हाल के दिनों में पार्टी में विवाद सामने आये हैं. राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके निर्मल सिंह को इस बार टिकट नहीं मिला है. इसलिए पार्टी के सामने चुनौती बड़ी है. भाजपा के लिए एक अच्छी बात यह कही जा सकती है कि उसके पास कश्मीर घाटी की मुस्लिम बहुल जनसंख्या से भी लोग टिकट के लिए आये हैं. राज्य की कुल आबादी में 68 फीसदी मुसलमान हैं, जबकि हिंदू आबादी सिर्फ 28 प्रतिशत ही हैं. करीब दो फीसदी सिख भी हैं. माना जा रहा है कि हिंदुओं और सिखों का समर्थन भाजपा को मिलेगा. वैसे वह मुस्लिम समुदाय का भी समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है.


बीते संसदीय चुनाव में यहां निर्दलीय इंजीनियर राशिद भी चुनाव जीत चुके हैं. माना जा रहा है कि अपने प्रभाव वाले इलाके में वे अपने उम्मीदवारों को जिताने की कोशिश करेंगे. अगर भाजपा को ठोस कामयाबी नहीं मिलती है, तो विरोधियों को मौका मिल जायेगा और उनकी आवाज बुलंद होगी. सीमापार की भारत विरोधी ताकतों को भी बोलने का अवसर मिल जायेगा. पीडीपी तो घोषित कर ही चुकी है कि वह अगर सत्ता में आयी, तो अनुच्छेद 370 को फिर बहाल करेगी. पर यह सिर्फ पीडीपी के वश की बात नहीं है. संसद के दोनों सदनों के बहुमत से जिसे निष्प्रभावी बनाया जा चुका हो, उसे बहाल करने का अधिकार किसी विधानसभा को नहीं है. लोकसभा चुनाव में सीटें बढ़ा चुकी कांग्रेस केंद्र सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे. वह उमर अब्दुल्ला को मनाकर चुनावी मैदान में उतारने में कामयाब रही है. मुख्यमंत्री रह चुके नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने चुनाव न लड़ने का प्रण लिया था. लेकिन अब वे अपनी पारंपरिक गांदरबल सीट से चुनावी मैदान में उतर रहे हैं. उनके इस कदम से एक संकेत तो मिलता है कि नेशनल कांफ्रेंस भी मान चुकी है कि राज्य की अगस्त 2019 से पहले वाली संवैधानिक स्थिति नहीं रहने वाली. वैसे कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन को जीत मिली, तो यह तय है कि वे अगस्त 2019 के फैसले को सवालों के घेरे में जरूर खड़ा करेंगे. इसके लिए जनमत को बहाना बनाया जायेगा.


यह छिपी हुई बात नहीं रही है कि जम्मू इलाके की जनता जहां भारत में पूर्ण विलय की हिमायती रही है, वहीं कश्मीरी जनता का रूख किंचित अलग रहा है. यह पहला मौका है, जब हुर्रियत कांफ्रेंस का तनिक भी असर नहीं दिख रहा है. जम्मू-कश्मीर के कद्दावर नेता रहे गुलाम नबी आजाद और उनकी पार्टी का कोई वजूद नहीं दिख रहा. जब उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बनायी थी, तो उसकी धमक महसूस की जा रही थी. यह बात भी हवा में तैर रही है कि अगर हालात ठीक रहे, राज्य को अन्य राज्यों की तरह अधिकार दिये जा सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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