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प्रशासनिक विफलता का नतीजा है हाथरस हादसा

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ऐसी घटना पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. यह राजनीतिक बयानबाजी का मुद्दा नहीं है. यह राजनीतिक संवेदनशीलता, व्यवस्था और दूरदर्शिता का मुद्दा है.

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आचार्य प्रमोद कृष्णम
श्री कल्कि पीठाधीश्वर

श्री कल्कि धाम, संभल

x.com/AcharyaPramodk

हाथरस की घटना बेहद दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है. जिन लोगों की इस दुखद घटना में जान गयी है, उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि और जो घायल हुए हैं, वे जल्दी स्वस्थ हों, इसकी कामना करता हूं. इस घटना को लेकर तरह-तरह के सवाल उठाये जा रहे हैं, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसी घटना पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. यह राजनीतिक बयानबाजी का मुद्दा नहीं है. यह राजनीतिक संवेदनशीलता, व्यवस्था और दूरदर्शिता का मुद्दा है. यह स्थानीय पुलिस-प्रशासन की लापरवाही का विषय है. ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो, इस पर मिलकर सोचने की जरूरत है क्योंकि व्यवस्था के अभाव में इस तरह की घटना कहीं भी हो सकती है.

इसलिए मेरा आग्रह है कि घटना के कारणों का पता लगाया जाए और भविष्य में ऐसा न हो, इस पर विचार हो. उदाहरण के लिए, इस तरह की भीड़ जहां भी इकट्ठी होती है, वहां पुलिस-प्रशासन का रवैया बहुत लचीला होता है. चाहे सरकार किसी की भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. पुलिस प्रशासन के रवैये में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आता है. इसका वे खुद साक्षी रहे हैं. हर साल कल्कि धाम में कल्कि महोत्सव मनाया जाता है. लाखों की संख्या में लोग आते हैं. कई बार मंच से उतरना मुश्किल हो जाता है. एक साथ सैकड़ों के समूह में अलग-अलग जत्थे मंच की तरफ बढ़ जाते हैं. कई बार तो सुरक्षा को लेकर खतरा लगने लगता है. उस भीड़ में से कोई भी व्यक्ति कुछ भी कर सकता है. आप सैकड़ों की भीड़ में असहाय हो जाते हैं.

पुलिस-प्रशासन तभी तक चुस्त-दुरुस्त दिखता है, जब कोई वीआइपी आते हैं. उनके जाने के साथ ही पुलिस रिलैक्स हो जाती है. मैंने इस विषय में कई बार पुलिस अधिकारियों को भी बताया है कि ऐसे आयोजन में उनकी ओर से किस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए. लेकिन वैसा होता नहीं है. पुलिस-प्रशासन की अपनी कार्यप्रणाली है, जिसे वह ठीक नहीं करना चाहती है. हाथरस की घटना के लिए आयोजक भी उतने ही जिम्मेदार हैं. वह भी दोषी हैं. यदि उन्होंने इन खतरों को आंकते हुए पुलिस प्रशासन से बातचीत की होती, तो शायद यह घटना नहीं घटती. पुलिस प्रशासन को इतनी संख्या में भीड़ के आने का अंदेशा होता, तो अपनी ओर से शायद वह भी कुछ कर पाता.

क्योंकि ऐसी घटना जहां होती है, उसकी तैयारी अगर पहले से न हो, तो व्यवस्था और अधिक चरमरा जाती है क्योंकि वहां एंबुलेंस, डॉक्टर, नर्स, अस्पताल, दवाओं आदि की व्यवस्था नहीं होती. जहां तक भक्तों की श्रद्धा की बात है, तो जो श्रद्धालु होते हैं, उनकी जहां श्रद्धा होती है, वे वहां जाते ही हैं. उनसे मिलना चाहते हैं, उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं, उनका पैर छूना चाहते हैं, तो ऐसे में भगदड़ मचना स्वाभाविक है. यदि मिलने के लिए या आशीर्वाद लेने के लिए एक साथ सैकड़ों की संख्या में लोग पहुंच जाएं, तो भगदड़ की स्थिति होना स्वाभाविक है. इसलिए मेरी समझ से इस घटना में सबसे बड़ा दोषी स्थानीय पुलिस-प्रशासन है.

घटना के पीछे आस्था, श्रद्धा, अंधविश्वास जैसी बहुत सारी बातें बतायी जा रही हैं, लेकिन ये सब इसका दूसरा पहलू है. इन बातों पर अलग से बात की जा सकती है. अभी सबसे पहले हमें यह तय करना है कि इस घटना का जिम्मेदार कौन है? इसकी जिम्मेदारी किसी की भावना और श्रद्धा पर नहीं डाली जा सकती है. मेले लगने बंद नहीं हो सकते हैं. श्रद्धा के नाम पर लगे, तो गलत और कहीं और किसी राजनीतिक रैली के नाम पर लगे तो सही- इस तरह के दोहरे मापदंड नहीं अपनाना चाहिए. हमें यह देखना चाहिए कि जो भीड़ है, वह कितनी है और किस प्रकार की है.

जो राजनीतिक रैली होती है, उसमें भीड़ क्या नेताओं से नहीं मिलना चाहती है? उसके साथ सेल्फी नहीं लेना चाहती है, कई बार भीड़ के कारण मंच तक टूट जाते हैं. इसलिए इस तरह के मेलों को अंधविश्वास आदि से जोड़कर देखना मेरी समझ से उचित नहीं है. मेरा बार-बार यही कहना है कि कोई भी राजनीतिक रैली हो, मेला या आयोजन हो, उसमें भीड़ जुटती ही है, जरूरत इस बात की है कि उस भीड़ को नियंत्रित कैसे किया जाए, और यह काम स्थानीय पुलिस ही बेहतर तरीके से कर सकती है.

जहां तक अंधविश्वास की बात है, तो मेरा मानना है कि भारत भावनाओं का देश है, आस्था का देश है, श्रद्धा और विश्वास का देश है. हम अपनी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के बजाय हम अपनी परंपराओं, आस्था और विश्वास को कटघरे में खड़ा करें, तो मुझे लगता है कि यह नाइंसाफी है. एक बात और बताना चाहता हूं कि अंधविश्वास नाम की कोई चीज नहीं होती है. जहां विश्वास होता है, वह अंधा ही होता है. आप विश्वास किसे कहेंगे? विश्वास भी तो अंधा ही होता है. आप किसी को घर पर खाना के लिए बुलायेंगे, तो वह व्यक्ति आपके घर के सब्जी को ‘टेस्ट’ करके तो नहीं खायेगा कि कहीं उसमें किसी तरह का जहर तो नहीं मिला है. यदि कोई मिला भी दे, तो उसमें उस व्यक्ति का क्या कसूर है? तो, जो श्रद्धालु है, उस पर आरोप न लगाया जाए. और, इस पर राजनीति न की जाए. मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है, इतनी दुखद घटना पर लोग राजनीति कर रहे हैं. तमाम विपक्षी दलों से भी कहना चाहता हूं कि वे लाशों पर राजनीति न करें. यह समय राजनीति का नहीं है. मृतकों के परिवार के लिए यह बहुत ही दुखदायी क्षण है.

उत्तर प्रदेश की सरकार से मेरी अपेक्षा है कि वह इसकी निष्पक्ष जांच करेगी और जिन लोगों की लापरवाही रही है, उसे दंडित करेगी. सरकार पूरे प्रदेश में प्रत्येक जनपद को यह निर्देश दें कि जहां भी रैली, सभा या मेला आयोजित हो रहा है, उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस-प्रशासन के ऊपर हो. इसी तरह के निर्देश केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से भी सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजना चाहिए कि इस तरह की लापरवाही देश में कहीं भी न हो. निश्चित रूप से यह प्रशासनिक विफलता, लापरवाही और अपरिपक्वता का परिणाम है. इस पर ध्यान देने की जरूरत है, वरना कोई न कोई ऐसी घटना घटती रहेगी और निर्दोष लोगों की जान चली जायेगी. जहां भी लोग बड़ी संख्या में जमा होते हैं, वहां किस प्रकार से प्रभावी इंतजाम हों, इस संबंध में एक व्यापक दिशा-निर्देश तैयार किया जाना चाहिए. इस तरह के आयोजन की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रशासनिक व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त होनी चाहिए, न कि श्रद्धालुओं के आस्था पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा करना चाहिए.

(अंजनी कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

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