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हसरत मोहानी, जिन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया

Hasrat Mohani : हसरत मोहानी हमारी गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतिनिधि और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर तो थे ही, उर्दू की प्रगतिशील गजल धारा के प्रवर्तक, शायरी में महिलाओं के ऊंचे मुकाम के हामी, अरबी व फारसी के उद्भट विद्वान और देश के बंटवारे के विकट विरोधी भी थे.

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Hasrat Mohani : स्वतंत्रता संघर्ष के अलबेले नायक, शायर और पत्रकार मौलाना हसरत मोहानी को आमतौर पर उनके द्वारा 1921 में दिये गये ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के कालजयी नारे के सर्जक के तौर पर जाना जाता है. हम जानते हैं कि यह नारा थोड़े ही अरसे बाद समूचे क्रांतिकारी आंदोलन की ऊर्जा बन गया था. यहां तक कि यह चंद्रशेखर आजाद की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन/आर्मी का आधिकारिक नारा भी था. आज की तारीख में सौ साल की यात्रा कर लेने के बाद भी इस नारे ने अपनी आभा तनिक नहीं खोयी है.


हसरत मोहानी हमारी गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतिनिधि और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर तो थे ही, उर्दू की प्रगतिशील गजल धारा के प्रवर्तक, शायरी में महिलाओं के ऊंचे मुकाम के हामी, अरबी व फारसी के उद्भट विद्वान और देश के बंटवारे के विकट विरोधी भी थे. उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष से संविधान निर्माण तक अपने दो टूक विचारों व संघर्षों से देश की राजनीति पर खासा असर डाला था. संविधान सभा में तीन साल की अपनी सेवाओं के बदले महज एक रुपया मेहनताना लेने वाले वह उसके इकलौते सदस्य थे. अलबत्ता, संविधान बन गया, तो उन्होंने यह कहते हुए उस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था कि यह मजदूरों व किसानों के हकों की पूरी रहनुमाई नहीं करता. उनकी इससे भी बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी वीआइपी बनने की चाह नहीं पाली, न ही सरकार से इस तरह की कोई सुविधा ली. लंबी-लंबी यात्राएं भी वह रेल के तीसरे दर्जे के डब्बे में ही किया करते थे.

हसरत मोहानी इंकलाब की ही नहीं, इश्क और मोहब्बत की शायरी भी करते थे. उनकी ऐसी कई गजलें बाद में फिल्मी पर्दे पर भी नजर आयीं, जिनमें एक तो उनकी पहचान के साथ जुड़ गयी है : ‘चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है, हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है.’ लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने वह गजल छह साल की जेल यातनाओं के बीच अपने महबूब की याद में लिखी थी.


अपने जीवन में जिन तीन ‘एम’ को वह सबसे महत्वपूर्ण मानते थे, उनमें मक्का और माॅस्को के साथ कृष्ण की मथुरा भी हुआ करती थी. कृष्ण के तो वह फिदा होने की हद तक भक्त थे. उन्होंने 1919 के खिलाफत आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान कस्बे में पैदा हुए फजलुल हसन ने शायरी के लिए ’हसरत’ उपनाम अपनाया और उसमें अपनी जन्म स्थली को जोड़ लिया. छात्र जीवन में डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का उन पर ऐसा असर हुआ कि वह आजादी के इंकलाबी सिपाही बन गये और कॉलेज से निष्कासन समेत कई क्रूर दंड भोगने के बावजूद इंकलाब का रास्ता बदलना गवारा नहीं किया. वर्ष 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस के अधिवेशन में वह मुकम्मल आजादी (पूर्ण स्वराज्य) का प्रस्ताव ले आये, तो वह मंजूर नहीं हो पाया. उल्टे महात्मा गांधी ने उसको ‘गैरजिम्मेदारी की बात’ बता डाला. उसके आठ साल बाद 26 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस को पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास करना और 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज्य दिवस घोषित करना पड़ा.


मोहानी महात्मा गांधी से अपनी असहमतियां छिपाते नहीं थे. असहयोग आंदोलन में सारी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के महात्मा के आह्वान के विपरीत मोहानी चाहते थे कि केवल ब्रिटेन की वस्तुओं का बहिष्कार किया जाएं, क्योंकि लड़ाई अंततः ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ही थी. मोहानी कांग्रेस के स्वदेशी आंदोलन की नींव की ईंट तो थे, लेकिन अहिंसा में उनका महात्मा गांधी जैसा विश्वास नहीं था. वह चाहते थे कि आंदोलनकारियों पर अहिंसक रहने की पाबंदी न लगायी जाए. उन्हें परिस्थिति व जरूरत के अनुसार साधन चुनने की स्वतंत्रता दी जाए. कई बार वह गांधी और कांग्रेस की नीतियों के विरोध में तनकर खड़े हो जाते थे.


महात्मा के चरखे को लेकर तो उन्होंने शेर ही रच डाला था : ‘गांधी की तरह बैठके क्यों कातेंगे चर्खा, लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम!’ प्रसंगवश, 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम और गरम दलों में टकराव के बाद वह लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के साथ हो गये थे. तिलक के साथ जाने का रास्ता उन्होंने इसलिए चुना था, क्योंकि तिलक भी उन्हीं की तरह मुकम्मल आजादी के समर्थक थे और ‘आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दे रहे थे. मोहानी रूस की साम्यवादी क्रांति से बहुत प्रभावित थे और 1925 में सत्यभक्त के साथ मिलकर उन्होंने कानपुर में देश की पहली कम्युनिस्ट कांफ्रेंस में आधारशिला जैसी भूमिका निभायी थी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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