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नये साल में आर्थिक संभावनाएं, पढ़‍ें अजीत रानाडे का लेख

Economic prospects : यह वर्ष अनिश्चितताओं से भरा है. ऐसे में, कोई सटीक भविष्यवाणी करना न सिर्फ मूर्खतापूर्ण होगा, बल्कि उसका विफल होना भी तय है.

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Economic prospects : आशावादी होने के कारण हम हमेशा ही कैलेंडर वर्ष से शुरुआत करते हैं. नये वर्ष में चाहे कितनी भी चुनौतियां क्यों न हों, आशावादी हमेशा ही निराशावादियों पर भारी पड़ते हैं. अर्थशास्त्री चाहे कितनी भी मुश्किल तस्वीर क्यों न पेश करें, आशावादी उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ते. इसी पृष्ठभूमि में 2025 का कठिन चुनौतियों भरा परिदृश्य है, जिसका समाधान निकालना आशावादियों के लिए भी कठिन ही होने वाला है.

यह वर्ष अनिश्चितताओं से भरा है. ऐसे में, कोई सटीक भविष्यवाणी करना न सिर्फ मूर्खतापूर्ण होगा, बल्कि उसका विफल होना भी तय है. वैश्विक अनिश्चितता का कारण आर्थिक और भू-राजनीतिक है. भू-राजनीतिक कारण भी कई हैं. जैसे, यूक्रेन के अंतहीन युद्ध का नतीजा, इस्राइल-हमास विवाद का गहराना और पूरे पश्चिम एशिया पर इसका पड़ता असर, और मुख्यत: जर्मनी समेत कई देशों में धुर दक्षिणपंथी पार्टियों का उभार. दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक जर्मनी में पिछले महीने सरकार विश्वास मत हार चुकी है. नतीजतन इस वर्ष की शुरुआत में ही वहां मध्यावधि चुनाव होना है. जर्मन अर्थव्यवस्था में लगातार दूसरे वर्ष सिकुड़न आयेगी, जबकि अभी ही वह बढ़ते वित्तीय घाटे से जूझ रही है, उसके पास कौशल वाले श्रमिकों की कमी है, तथा शिक्षा क्षेत्र को फंड की दरकार है. वहां धुर दक्षिणपंथी पार्टियां अब प्रवासी-विरोधी भावना भी भड़कायेंगी. ऐसे में, जर्मनी का झुकाव रूस की ओर होगा या नाटो की तरफ? उसकी अर्थव्यवस्था क्या पटरी पर आयेगी?


भू-राजनीति के अलावा आर्थिक अनिश्चय भी एक बड़ा कारण है, जिसमें 20 जनवरी को राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप के शपथ लेने से और तेजी आयेगी. उन्होंने भारी आयात शुल्क लगाने, सरकारी फंडिंग कम करने, कठोर प्रवासी-विरोधी नीति लागू करने तथा तमाम वैश्विक जलवायु समझौतों से दूरी बनाने की बात कही है. उनकी सरकार ज्यादा संरक्षणवादी साबित होने वाली है. उम्मीद यही है कि वैश्विक कूटनीति में उनकी लिप्तता शुद्ध रूप से अमेरिकी हितों के आधार पर होगी. उनकी सरकार को मंदी जनित कारकों के जरिये मुद्रास्फीति पर नियंत्रण लाने की कोशिश करनी होगी. इस बीच अमेरिकी सरकार का कर्ज 35 ट्रिलियन डॉलर (350 लाख करोड़ रुपये) की नयी ऊंचाई पर जा पहुंचा है. ऊंचे वित्तीय घाटे और लगातार कर्ज लेते रहने की प्रवृत्ति के कारण अमेरिकी सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया है. इस भारी-भरकम कर्ज पर सालाना ब्याज ही एक ट्रिलियन डॉलर (10 लाख करोड़ रुपये) है. निरंतर कर्ज लेने के कारण ही अमेरिकी डॉलर मजबूत बना हुआ है, जिससे रुपया समेत दूसरी मुद्राएं कमजोर पड़ी हैं. कमजोर मुद्रा मुद्रास्फीति के भीषण होने की वजह है.


इन तमाम आर्थिक परेशानियों के बावजूद 2024 में अमेरिकी शेयर बाजार नयी ऊंचाई पर पहुंचा और 150 से ज्यादा नये अरबपति बने. अमेरिका में 12 सबसे अमीर लोगों की कुल संपत्ति दो ट्रिलियन (20 लाख करोड़ रुपये) डॉलर है. यानी विश्व स्तर पर हमारा सामना ऊंची मुद्रास्फीति, उच्च बेरोजगारी, संपत्ति बाजार (शेयर और रियल एस्टेट) में अंधाधुंध वृद्धि तथा आय व संपत्ति में भारी असमानता से है. चीन भी मंदी और कर्ज के बोझ से जूझ रहा है. तुलनात्मक रूप से पूर्व एशिया और जापान बेहतर स्थिति में हैं. बढ़ती असमानता वैश्विक चिंता का कारण है और इसमें कमी लाना संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में एक है.

लोकप्रियतावादी नेताओं का उभार और कल्याणकारी खर्चों में वृद्धि बढ़ती असमानता का जवाब है. कल्याणकारी खर्चों में हो रही वृद्धि के बीच वित्तीय बोझ को प्रबंधित करना एक नयी चुनौती है. भारत में भी केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कल्याणकारी खर्चों में भारी वृद्धि की जा रही है. रिजर्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में सब्सिडी में वृद्धि और मुफ्त लाभ योजनाओं को अंधाधुंध बढ़ाते जाने पर चिंता जतायी गयी है. वर्ष 2024 में भारत समेत लगभग 60 देशों में चुनाव हुए, और ज्यादातर देशों में बढ़ती असमानता और मुद्रास्फीति मतदाताओं के लिए प्रमुख मुद्दा थी. अमेरिका समेत अनेक देशों में सत्तारूढ़ पार्टियों को चुनावों में बाहर कर दिया गया, तो उसकी वजह महंगाई और आर्थिक परेशानियों के कारण वोटरों में बढ़ता गुस्सा था. भारत में भी, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में खासकर महिलाओं को ध्यान में रखकर उठाए गये कल्याणकारी कदम निर्णायक साबित हुए. इस वर्ष दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, और गरीबों, महिलाओं व समाज के दूसरे लोगों के हित में आर्थिक लाभ देने की बात चल रही है.


भारत के घरेलू मोर्चे पर भी कई चीजें देखने लायक होंगी. दो राज्यों के चुनावों का जिक्र किया गया. विलंबित राष्ट्रीय जनगणना भी शायद इस साल शुरू हो सकती है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के नवीकरण की भी बात है. संसदीय सीटों के परिसीमन पर वार्ता भी शुरू होने वाली है. इस साल के अंत में 16वां वित्त आयोग भी अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप देगा. क्या वह तीसरे यानी स्थानीय स्तर की सरकार की पर्याप्त फंडिंग पर कुछ करेगा? कई राज्यों में पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुनाव लंबे समय से रुके पड़े हैं. ट्रंप प्रशासन में मजबूत डॉलर के सामने रुपये में और गिरावट आयेगी, जिससे भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा. ऐसे में, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि को बरकरार रख पाने की चिंता बड़ी है.

बड़ी मात्रा में पूंजी का बाहर जाना, और बड़ी संख्या में धनी भारतीयों का विकसित देशों में जाकर बस जाना भी चिंता का कारण है. विदेशों में पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्रों का खर्च इस वर्ष 70 अरब डॉलर रहने वाला है. यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वित्तीय बर्बादी है, जो भारतीय शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता के प्रति असंतोष का भी सूचक है. तकनीक के मोर्चे पर इस साल हम विद्युत चालित वाहनों का विस्तार देखेंगे. शायद इस वर्ष हम छोटे और मॉड्यूलर परमाणु रिएक्टर्स के पायलट प्रोजेक्टस की शुरुआत होते हुए भी देखें. इस साल जिस बड़ी आर्थिक गतिविधि पर हमारी नजर रहेगी, वह यह है कि निजी निवेश और ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि होती है या नहीं. शहरी उपभोग में आयी कमी को देखते हुए केंद्रीय बजट में शायद स्टिमुलस पैकेज की व्यवस्था हो. कुल मिलाकर, यह वर्ष निवेश और आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में व्याप्त अनिश्चितता, बढ़ती असमानता, भू-राजनीति और विवादों के असर तथा ढीली मौद्रिक नीति के फलस्वरूप बढ़ते संपत्ति बाजार का होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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