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ईमानदारों के कंधे पर टिका लोकतंत्र

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रेडियो वॉयस ऑफ जर्मनी में चार दशक पहले वरिष्ठ सहयोगी रहीं नाज बहन शाह का फोन देर रात आया. जर्मनी में बसीं नाज बहन ने चिंता के साथ पूछा- ‘आलोक, वहां सब ठीक है?’ मैंने समझा कि भूकंप के हल्के झटकों की खबर से बुजुर्ग बहन चिंतित हैं.

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आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार

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alokmehta7@hotmail.com

रेडियो वॉयस ऑफ जर्मनी में चार दशक पहले वरिष्ठ सहयोगी रहीं नाज बहन शाह का फोन देर रात आया. जर्मनी में बसीं नाज बहन ने चिंता के साथ पूछा- ‘आलोक, वहां सब ठीक है?’ मैंने समझा कि भूकंप के हल्के झटकों की खबर से बुजुर्ग बहन चिंतित हैं. मैंने कहा- ‘जी सब ठीक है, हल्के झटके तो अब दिल्ली में आते रहते हैं.’ उन्होंने कहा- ‘अरे वह तो मुझे मालूम है, लेकिन राहुल गांधी का बड़ा बयान अभी टीवी पर देखा-सुना, तो सोचा तुमसे सही स्थिति पूछूं, तुम तो सबके बारे में तीखा लिखते हो. कांग्रेस पार्टी का सबसे बड़ा नेता राष्ट्रपति से मिलने के बाद कह रहा है कि ‘भारत में लोकतंत्र ही नहीं बचा है’, इसलिए असलियत समझना चाहती हूं.

उन्हें मैंने विस्तार से बताया. सड़कों पर हजारों लोग क्या किसी तानाशाही व्यवस्था में प्रधानमंत्री और सरकार को दिन-रात गलियां देते हुए आंदोलन कर सकते हैं? अखबारों, टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर कांग्रेस से अधिक अन्य दलों के छोटे-बड़े नेताओं की बिना सबूतों के अनर्गल बयानबाजी क्या बिना स्वच्छंद लोकतंत्र के संभव है? नाज बहन का दूसरा सवाल था- ‘अरे गांधी, टैगोर के देश में क्या कोई ईमानदार नेता नहीं रह गया है?’

यह सवाल देश-दुनिया में भारत और लोकतंत्र के प्रति प्रेम, सम्मान रखनेवाले अधिकतर लोगों के मन में उठ रहे हैं. इससे न केवल नयी पीढ़ी भविष्य की चिंता को लेकर परेशान हो रही है, छवि बिगड़ने से भारत में पूंजी लगाने के लिए उत्सुक विदेशी कंपनियां और प्रवासी भारतीय भी दुविधा में फंस रहे हैं. लोकतंत्र में भेद, असंतोष, राजनीतिक विरोध, आरोप-प्रत्यारोप, कानूनी कार्रवाई के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास स्वाभाविक है. लेकिन क्या कोई सीमा रेखा नहीं होनी चाहिए?

राहुल गांधी और उनके अज्ञानी सहयोगी कम से कम पांच दशकों के अपनी पार्टी और विरोधी नेताओं के तीखे भाषणों का अध्ययन कर सकते हैं. इंदिरा गांधी को सत्ता से हटने के बाद कुछ दिन जेल भी जाना पड़ा, कितने छापे पड़े, लेकिन उन्होंने या उनके सहयोगियों ने लोकतंत्र खत्म होने का आरोप नहीं लगाया. जब वे सत्ता में वापस आयीं, तो आंदोलनों से विरोध हुआ, पर यह किसी ने नहीं कहा कि लोकतंत्र ही खत्म हो गया.

पूर्वाग्रह और राजनीतिक बदले के आरोप लगते हैं, लेकिन जेल में बंद लालू यादव भी अदालत से न्याय की बात कहकर नीतीश कुमार या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गुस्सा निकालते हैं, लेकिन लोकतंत्र नहीं रहने का तर्क नहीं देते. जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेता जेल में रहे, पर वे संपूर्ण व्यवस्था पर अनर्गल और अशोभनीय वक्तव्य नहीं देते थे. किसानों और मजदूरों के लिए बड़े-बड़े प्रदर्शन दिल्ली में हुए हैं, लेकिन ऐसा अराजक आंदोलन दुनिया में देखने को नहीं मिल सकता है.

भीड़ तो सामान्य लोगों को भ्रमित कर आशाराम बापू जैसा भी जुटा सकता है, लेकिन यहां तो किसानों के नाम पर ठेकेदार नेता तमाम इंतजामों का आनंद ले रहे हैं. ब्रिटेन व कनाडा में सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों ने बाकायदा बैनर लगाकर घोषणा कर रखी है कि सुख-सुविधाओं का इंतजाम उनका है. दूसरी तरफ देश के अनेक हिस्सों में हुए स्थानीय चुनावों में भारी मतदान और विभिन्न दलों की सफलता लोकतंत्र की जड़ें गहरी होने का विश्वास को बनाये हुए हैं.

संपूर्ण व्यवस्था को भ्रष्ट करार देना अनुचित है. निश्चित रूप से निचले स्तर पर भ्रष्टाचार है. राजनीति में धन-बल महत्वपूर्ण हो गया, लेकिन सब बेईमान नहीं हैं. युवाओं के साथ संवाद में मैं ऐसे मुद्दों पर नामों के साथ ध्यान दिलाता हूं कि भारतीय राजनीति और समाज ईमानदार नेताओं, उनके सहयोगियों, अच्छे अधिकारियों तथा कानून व न्याय के रक्षक न्यायाधीशों के कंधों पर ही सुरक्षित रहा है.

पिछले दस दिनों में चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा को श्रद्धांजलि दी गयी. उन पर निजी रूप से भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लग सका. वाजपेयी और चरण सिंह प्रधान मंत्री तक रहे. वोरा पर पार्टी पदाधिकारी के रूप में हस्ताक्षर करने पर एकाध मामला कानूनी प्रकरण में आया, लेकिन मुख्यमंत्री, राज्यपाल व केंद्रीय मंत्री रहते हुए किसी निजी लाभ का प्रमाण सहित आरोप नहीं लगा.

उन्हें डॉ शंकरदयाल शर्मा और प्रकाश चंद्र सेठी जैसे ईमानदार नेताओं ने आगे बढ़ाया था. शर्मा भी मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल व राष्ट्रपति रहे, लेकिन एक निजी दाग नहीं लगा. सेठी मुख्यमंत्री के अलावा केंद्र में कई मंत्रालयों में मंत्री रहे. वे पार्टी के कोषाध्यक्ष भी रहे. एक बार तो मैंने उनके सचिव के केबिन में बिड़ला जी तक को इंतजार करते देखा. जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें बड़ी आर्थिक दिक्कतें हुई थीं. भागवत झा आजाद, मुरली मनोहर जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदर सिंह भंडारी जैसे नेताओं ने अनेकानेक ईमानदार लोगों को तैयार किया.

इसी परंपरा में नरेंद्र मोदी तीन बार मुख्यमंत्री रहने के बाद छह वर्षों से प्रधानमंत्री हैं, लेकिन उन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा. उनके मंत्रिमंडल में निर्मला सीतारमण, एस जयशंकर, प्रकाश जावड़ेकर, किरण रिजूजी, प्रताप चंद्र सारंगी जैसे कई मंत्री हैं, जिन पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सका. विभिन्न दलों के कई महत्वपूर्ण सांसदों के नाम ईमानदार सूची में गिनाये जा सकते हैं. लोकतंत्र ऐसे लोगों के बल पर ही जीवित है और रहेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Posrted by: Pitish Sahay

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