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राजनीति और अपराध का खतरनाक गठजोड़

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शाहजहां शेख के मामले ने राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती छोड़ी है कि क्या कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं हो सकता, जो 22 कैरट ठोस नैतिकता की राजनीति करे.

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पश्चिम बंगाल के संदेशखाली के आरोपी शाहजहां शेख की गिरफ्तारी के बाद इसे सिर्फ आपराधिक मामले की तरह देखे-सुने जाने की कोशिश होगी. लेकिन शाहजहां शेख का मामला सिर्फ आपराधिक नहीं है, बल्कि यह राजनीति के अपराधीकरण की समस्या की ओर भी ध्यान दिलाता है. समूचे देश के छोटे राजनीतिक दलों की ओर नजर दौड़ाइए, अपराध और राजनीति का गठजोड़ जितना वहां सहज तरीके से दिखेगा, वैसा नजारा भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों में कम ही दिखता है. छोटे दलों वाली राजनीति अपराधियों के स्थानीय रसूख के दम पर समर्थन हासिल करती है, इसी समर्थन के दम पर वह संवैधानिक ताकत हासिल करती है एवं फिर वह अपने क्षेत्र विशेष के प्रतिनिधि और राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हो जाती है. चूंकि इस प्रक्रिया में अपराधी सबसे बड़ा औजार बन राजनीतिक दल के साथ खड़ा रहता है, इसलिए वह बदले में ताकत, पद आदि भी हासिल करने की कोशिश करता है. बिहार के शहाबुद्दीन रहे हों या सुनील तिवारी या उत्तर प्रदेश के मुख्तार अंसारी या अतीक अहमद, उन्हें छोटे और स्थानीय दल रास आते रहे. राजनीतिक छतरी में उनका कारोबार फलता-फूलता रहा.

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साठ-सत्तर के दशक तक अपराधी राजनीति को बूथ लूटने, वोटरों को धमकाने, उन्हें प्रकारांतर से समझाने के काम आते रहे. बदले में वे कुछ ठेके और आर्थिक फायदे ही हासिल करते रहे. बाद में जब अपराधियों को लगने लगा कि जब उनके दम पर पार्टी संवैधानिक पद हासिल कर सकती है, चुनाव जीत सकती है, तो वे खुद सीधे क्यों नहीं राजनीति में आ सकते. इसके बाद बिहार में सूरजदेव सिंह, काली पांडे, सूरजभान, शहाबुद्दीन जैसे लोग उभरे. उत्तर प्रदेश में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, हरिशंकर तिवारी, वीरेंद्र प्रताप शाही, धनंजय सिंह जैसी राजनीतिक ताकतें उभरीं. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, असम आदि जगहों पर ऐसे अपराधियों की लंबी सूची बन गयी. वामपंथी दलों का दावा रहा है कि वे नैतिकता की राजनीति कुछ ज्यादा ही गहराई से करते रहे हैं. भारतीय राजनीति के लोकवृत्त यानी पब्लिक स्फीयर में जो मूल्य स्थापित हुए हैं, उनमें से ज्यादातर की सूत्रधार वामपंथी राजनीति रही है. लेकिन इसी राजनीति का स्याह पक्ष पश्चिम बंगाल की राजनीति भी रही है, जहां की राजनीति में एक दौर में अपराधियों का बोलबाला था, जिन्हें वाममोर्चा की सत्ता की छांव मिलती रही. जिसने भी वामपंथी राजनीति के इस भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर सवाल उठाने की कोशिश की, उसे मुंह की खानी पड़ी. मारपीट तो बंगाल की राजनीति का स्थायी भाव रही. ममता बनर्जी ने इस पर लगाम लगाने का वादा जरूर किया, लेकिन जब उसे पूरा करने का वक्त आया, तो वे भी बदलने लगीं. यही वजह है कि वहां शाहजहां शेख जैसे नेता उभरने लगे.


राजनीति और अपराधियों के गठजोड़ पर पहली बार 1993 में तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा समिति ने विचार किया था. लेकिन उस रिपोर्ट पर किसी सरकार ने कार्रवाई नहीं की. सुप्रीम कोर्ट में उस रिपोर्ट को जांच एजेंसियों को देने की मांग को लेकर 2000 में याचिका डाली गयी. पर सुप्रीम कोर्ट इस मांग को पूरा नहीं कर पाया. इस रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक तक नहीं किया गया है. वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का, कि उसने चुनावों में उम्मीदवारों के लिए अपनी और अपने पति या पत्नी की संपत्ति की घोषणा करना और अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों का हलफनामा जमा करना जरूरी बना दिया. बेशक जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत किसी सांसद की सांसदी और विधायक की विधायकी तभी खत्म होती है, जब जन प्रतिनिधि को तीन साल या उससे ज्यादा की सजा मिलती है. इसे कानून की खामी ही कहेंगे कि अपराधी कहे जाने लोग भी चुनाव लड़ जाते हैं और कई बार उसकी राबिनहुडी छवि, तो कई बार लोग सम्मान में उन्हें अपना समर्थन दे डालते हैं. राजनीतिक समर्थन हासिल करने के बाद वह आपराधिक व्यक्ति जैसे गंगा में नहा उठता है.


हमारा समाज भी ऐसा है कि अतीत में जिसे सजा हो चुकी होती है, यदि वह जोड़तोड़ से कोई पद हासिल कर लेता है, उसे दुनिया अपनी नजरों पर उठा लेती है. राजनीति तो हमेशा समर्थन के लिए लालायित रहती है, इसीलिए वह अपराधियों को खुद से दूर नहीं करना चाहती. लेकिन जब उस आपराधिक व्यक्तित्व के चलते राजनीति की अपनी दुनिया प्रभावित होने लगती है, तो उससे पीछा छुड़ाने और उससे अपना रिश्ता तक दिखाने से राजनीति भाग खड़ी होती है. यह सब वह पापमुक्त होने के लिए करती है. शाहजहां शेख को तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता से बर्खास्त किया जाना राजनीति की उसी रवायत का एक उदाहरण है. शाहजहां शेख के मामले ने राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती छोड़ी है कि क्या कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं हो सकता, जो 22 कैरट ठोस नैतिकता की राजनीति करे, अपराधियों को किसी भी कीमत पर खुद से दूर रख सके और राजनीति को साफ-सुथरा रखने के लिए खुद और अपने कार्यकर्ताओं पर ज्यादा भरोसा रखे. फिलहाल तो ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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