16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

डॉ आंबेडकर और पूना पैक्ट के वर्तमान मायने

Advertisement

डॉ अंबेडकर का मानना था कि भारतीय समाज के भीतर समतावादी न्याय को बनाये रखने के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को बरकरार रखा जाना चाहिए

Audio Book

ऑडियो सुनें

पंकज चौरसिया

- Advertisement -

शोधार्थी, जामिया मिलिया इस्लामिया

भारतीय संविधान के शिल्पकार, आधुनिक भारतीय चिंतक, समाज सुधारक एवं भारत रत्न से सम्मानित बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की 132वीं जयंती पर उन्हें याद करते हुए नयी पीढ़ी के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि संविधान में जो अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण नीति लायी गयी थी, उसके पीछे संघर्ष की एक लंबी यात्रा रही है.

वर्ष 1932 में महात्मा गांधी और डॉ अ आंबेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट समझौते को वर्तमान परिदृश्य में देखना आवश्यक है, ताकि नयी पीढ़ी दोनों के बीच जाति के सवाल पर वैचारिक टकराव के अंतर्विरोधों को समझ सकें. कई ऐसे महापुरुष हैं, जिनके विचारों पर राजनीतिक पार्टियां एक मत नहीं हैं, जिससे वैचारिक टकराव की स्थिति बनी रहती है, किंतु डॉ आंबेडकर ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके सामाजिक न्याय के विचार को लेकर सभी राजनीतिक दल सहमत हैं.

डॉ आंबेडकर का मानना था कि भारतीय समाज के भीतर समतावादी न्याय को बनाये रखने के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को बरकरार रखा जाना चाहिए, लेकिन जाति व्यवस्था सामाजिक न्याय स्थापित करने में सबसे बड़ी बाधा है. जाति व्यवस्था के कारण ही 1932 में पूना पैक्ट की नींव पड़ी. वर्ष 1917 में पहली बार दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग उठी और 1930 में गोलमेज सम्मेलन के दौरान इस मांग ने और जोर पकड़ा.

वर्ष 1932 में ब्रिटिश सरकार ने इसे मान लिया. इस निर्णय को महात्मा गांधी ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि यह नीति हिंदुओं में फूट डालने के लिए लायी गयी है. डॉ आंबेडकर का मानना था कि विधायी निकायों में दलित समूह का प्रतिनिधित्व करने के लिए अलग निर्वाचक मंडल आवश्यक है. महात्मा गांधी इसे एक सामाजिक मुद्दे के रूप में देख रहे थे, जबकि डॉ अंबेडकर इसे राजनीतिक मुद्दे के रूप में देख रहे थे.

इतिहासकार प्रबोधन पॉल के अनुसार, आंबेडकर की जाति की व्याख्या दलित प्रश्न के विषय पर आधारित थी, न कि सामाजिक विषय के रूप में, जैसा कि गांधी जाति को सामाजिक दृष्टिकोण से देख रहे थे. आंबेडकर ने जोर देकर कहा, ‘भारत के आधुनिक इतिहास में पहली बार जाति एक राजनीतिक मुद्दा है, जिसे केवल सामाजिक परिवर्तनों से हल नहीं किया जा सकता है.’

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि जब तक उत्पीड़ित वर्ग इसमें बराबर के भागीदार नहीं होंगे, तब तक राजनीतिक लोकतंत्र अर्थहीन है. पूना पैक्ट ने भारतीय मुक्ति संग्राम के दो सबसे प्रमुख नेताओं को एक साथ ला दिया, जो दलित अधिकारों पर असहमत थे. विरोधियों का दावा है कि इस आरक्षण प्रणाली ने दलितों को पर्याप्त संसाधन और सफलता पाने का पूर्ण अवसर नहीं दिया है.

आंबेडकर के अनुसार, उत्पीड़ित वर्गों को अपने प्रतिनिधियों को चुनने की शक्ति, लोकतंत्र की पूर्ण क्षमता को साकार करने की कुंजी थी. महात्मा गांधी का मानना था कि किसी भी शोषणकारी व्यवस्था का सुधार तभी किया जा सकता है, जब शोषक का विचार बदल जाए.

आज अनुसूचित जाति की उनकी जनसंख्या के आधार पर संसद और विधानसभाओं में आनुपातिक संख्या है. अनुसूचित जाति विशेष रूप से किसी एक क्षेत्र में केंद्रित नहीं है, जिसका अर्थ है कि वे इन सीटों में से अधिकतर में अल्पसंख्यक हैं. यह इंगित करता है कि अधिकतर मतदाता अनुसूचित जातियों के नहीं हैं और चुनाव में उनका प्रभाव निर्णायक होता है, लेकिन उस लोकसभा से निर्वाचित हुए सांसद का ध्यान दलितों की समस्याओं पर न होकर अन्य मुद्दों पर रहता है ताकि वह आगामी चुनाव पुनः जीत सके.

ऐसी व्यवस्था दलितों को वास्तविक नेतृत्व से वंचित करती है और इसका परिणाम संपूर्ण दलित समुदाय को भुगतना पड़ता है. दलितों पर हो रहे हमलों पर भी दलित नेता चुप रहते हैं. कई दलित राजनेताओं और विचारकों का मानना है कि मौजूदा व्यवस्था पूना पैक्ट के मूल प्रस्ताव से बहुत अलग है. उनका मानना है कि डॉ अंबेडकर पूना समझौते के दोष और इसके परिणाम को जानते थे. इसलिए 1949 में संविधान का मसौदा तैयार करते समय अंबेडकर ने दलित मतदाता और बस्ती का प्रस्ताव रखा, लेकिन उसे स्वीकार्य नहीं किया जा सका.

सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप में उत्पीड़ित जातियां, विशेष रूप से दलित, आदिवासी एवं अति पिछड़ी जातियां अभी भी समान प्रतिनिधित्व प्राप्त करने की आशा में हैं. हमें सभी वर्गों के न्याय के लिए प्रतिनिधित्व की आनुपातिक प्रणाली के बारे में विचार करने की आवश्यकता है ताकि सभी प्रकार की वंचित जातियों, जैसे- शिल्पकार, बुनकर, हुनरमंद और बागवानी आदि करने वाली जातियों, को उचित प्रतिनिधित्व हासिल हो सके और डॉ अंबेडकर के सपनों का भारत बनाया जा सके.

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें