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सहयोगियों की अनदेखी करती कांग्रेस

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कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में जीत के बाद लगता है कि अब उसी के लिए बयार बह रही है. लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक, हिमाचल, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे जीत पहले भी मिली, लेकिन लोकसभा चुनावों में भाजपा की लहर के सामने वह नहीं टिक सकी.

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मौजूदा विधानसभा चुनावों के दौरान जिस तरह विपक्षी गठबंधन के बीच खींचतान उभरी है, उससे विपक्षी राजनीति पर सवाल उठने लगे हैं. बेशक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है. लेकिन तीनों ही राज्यों के कुछ इलाके ऐसे हैं, जहां कभी समाजवादी वैचारिकी की तूती बोलती थी. विशेषकर गुजरात सीमा पर स्थित मध्य प्रदेश और राजस्थान में ऐसी स्थिति रही है. फिर बुंदेलखंड ऐसा इलाका है, जहां समाजवादी पार्टी का अपना असर रहा है. पिछले नगर निकाय चुनावों में जिस तरह उत्तर प्रदेश से सटे सिंगरौली में आम आदमी पार्टी ने अपना मेयर चुनवा लिया, उससे साफ लग रहा है कि छोटी दिखने वाली इन पार्टियों की कुछ इलाकों में अपनी खास भूमिका होती है. लेकिन कांग्रेस ने इन चुनावों में अपने इन साथी दलों और उनके नेताओं के साथ जिस तरह का व्यवहार किया है, उससे नहीं लगता कि गठबंधन में सबकुछ ठीक चल रहा है.

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विपक्षी गठबंधन में निश्चित रूप से कांग्रेस सबसे पुराना और सबसे बड़ा दल है. इस नाते भले ही वह गठबंधन की अगुआई करे, लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि अब दुनिया आगे निकल चुकी है. बेशक वह बड़ा दल है, लेकिन जमीन पर उसकी पकड़ कैसी है, यह छिपी बात नहीं रही. फिर वह अतीत के ही आधार पर खुद को आंक रही है. वह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि सुनहरे इतिहास के पन्ने अब धुंधले हो गए हैं. सांसदों की संख्या के हिसाब से विपक्ष में तृणमूल कांग्रेस सबसे बड़ा दल है. लेकिन गठबंधन में ममता बनर्जी की दिलचस्पी कम दिख रही है और लगता है कि वे बांग्ला माटी में उसके इस्तेमाल की गुंजाइश परख रही हैं. ऐसे ही जनता दल यूनाइटेड भी बड़ा दल है, भले ही उसके सांसदों की संख्या की वजह बीजेपी का साथ रही.

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में विपक्षी गठबंधन में समाजवादी पार्टी महत्वपूर्ण दल है और वहां वही बीजेपी के सीधे मुकाबले में है. इस लिहाज से सपा की अहमियत की चाहत स्वाभाविक है. इसी वजह से अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश में अपने लिए कुछ सीटों की उम्मीद रखी. लेकिन कांग्रेस ने बात सुनना तो दूर, उन्हें अपमानित ही किया. कमलनाथ का कहना कि ‘छोड़िए अखिलेश-वखिलेश को’ – उनके प्रति कांग्रेस के भाव को जाहिर करता है. रही-सही कसर उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय की बदजुबानी ने पूरी कर दी. ऐसे में अखिलेश ने आपा खो दिया. इसका असर उत्तर भारत के तीनों राज्यों में दिख रहा है, जहां सपा भी मैदान में है.

कुछ मोदी विरोधी समीक्षकों की राय में मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस अध्यक्ष का पद दमदार तरीके से संभाल रहे हैं. यह ये जाहिर करने की कोशिश है कि राहुल गांधी बेहद लोकतांत्रिक हैं. लेकिन हकीकत कुछ और है. असल में कांग्रेस पर नियंत्रण राहुल गांधी का ही है. अगर इन चुनावों में नीतीश को किनारे रखा जा रहा है या फिर अखिलेश पर कांग्रेसी हमला हो, या फिर आम आदमी पार्टी की उपेक्षा हो, इन सबके पीछे राहुल की ही सोच मानी जा रही है. राहुल गांधी जाति जनगणना के बड़े पैरोकार बनकर उभरे हैं. कांग्रेस के नेता राज्यों में वादा कर रहे हैं कि जैसे ही उनकी सरकार बनी, वह जाति जनगणना कराएगी. राजस्थान में तो ऐन चुनावों के बीच अशोक गहलोत ने ऐलान भी कर दिया, लेकिन चुनाव आयोग ने इसपर रोक लगा दी.

जाति जनगणना की मांग या इसे लागू करने का असल मकसद पिछड़े वर्गों को फायदा पहुंचाने से ज्यादा राजनीतिक फायदा उठाना है. राहुल गांधी भी इसी वजह से बार-बार इस मसले को उठा रहे हैं. अगर जाति जनगणना का मुद्दा विकास की दौड़ में पीछे रह गयी जातियों को फायदा पहुंचाना होता और अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति को शह देना होता तो कांग्रेस कम से कम अखिलेश और नीतीश से ऐसा व्यवहार नहीं करती. अखिलेश जहां खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं, वहीं नीतीश को इस राजनीति का श्रेय जाता है. अगर नीतीश ने जाति गणना कराई नहीं होती तो कांग्रेस को इतना बोलने का आधार शायद ही मिलता. बेहतर तो होता कि कांग्रेस अखिलेश और नीतीश के साथ पिछड़े वर्ग के नेता की तरह व्यवहार करती. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.

कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में जीत के बाद लगता है कि अब उसी के लिए बयार बह रही है. लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक, हिमाचल, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे जीत पहले भी मिली, लेकिन लोकसभा चुनावों में भाजपा की लहर के सामने वह नहीं टिक सकी. राजस्थान और कर्नाटक की तकरीबन समूची सीटें भाजपा ने जीत लीं. हिमाचल में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सिर्फ दो ही सांसद चुने गये. साफ है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर तब जनता ने भरोसा नहीं किया. और लगता नहीं कि जनाकांक्षाओं की यह स्थिति बहुत बदल गयी है. ऐसे में कांग्रेस को संभलना चाहिए. लेकिन वह जिस तरह सहयोगी दलों की अनदेखी कर रही है, और कई बार वह अनदेखी अपमान तक पहुंच जाती है, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस चेत रही है.

हाल ही में मोतिहारी स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में नीतीश ने जिस तरह भाजपा नेताओं के प्रति दोस्ती का इजहार किया, उसे कांग्रेस के व्यवहार से उपजी मायूसी का नतीजा बताया गया. कांग्रेस के प्रति आम आदमी पार्टी भी सशंकित नजर आ रही है. ऐसे में सवाल यह है कि कांग्रेस अगले आम चुनाव में किस आधार पर सहयोगी दलों का दिल से साथ हासिल कर पाएगी. उसके लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं लगता. कांग्रेस शायद सोच रही है कि गठबंधन की गांठ लोकसभा चुनावों तक ढीली पड़ जाएगी,लेकिन यह आसान नहीं लगता. नीतीश कुमार का अतीत गवाह है कि वे अपना अपमान नहीं भूल पाते. अखिलेश तो खुलकर बोल ही देते हैं. सपा ने जिस तरह उत्तर प्रदेश की सड़कों पर अखिलेश को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तुत किया है, उसके संकेत साफ हैं. संकेत यह कि आने वाले दिनों में अखिलेश कांग्रेस और राहुल की राह में कांटे जरूर बोएंगे. राहुल हर मुमकिन मोर्चे पर अडानी-अडानी करते ही रहे हैं. लेकिन यह भी सच है कि उनके इस कोरस गान में कभी ना तो नीतीश शामिल हुए, ना ही अखिलेश और ना ही ममता. अगले आम चुनाव में राहुल और कांग्रेस का पिछड़ावादी होने का दावा हो या अडानी विरोध का एजेंडा, मौजूदा हालात में लगता नहीं कि ये गठबंधन को बेलौस बनाए रख पाएंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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