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पानी बचाना है, तो तालाब बचाएं

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पानी बचाना है, तो तालाब बचाएं

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पंकज चतुर्वेदी

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वरिष्ठ पत्रकार

pc7001010@gmail.com

साल 2016 में खेतों में पांच लाख तालाब बनाने की बात हो या उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के पहले सौ दिनों में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प हो या फिर राजस्थान में कई सालों पुराना झील विकास प्राधिकरण या फिर मध्य प्रदेश में सरोवर हमारी धरोहर या जल अभिषेक जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं हों, हर बार लगता है कि अब नीति निर्धारकों को समझ आ गया है कि बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय ज्यादा कारगर हैं.

तभी जब गर्मी शुरू होते ही पानी की मारामारी, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं, तो समझ आता है कि असल में तालाब को सहेजने की प्रबल इच्छाशक्ति में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या फिर तालाबों की जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं.

यह अब सबके सामने है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई ज्यादा कारगर है. इसके बावजूद तालाबों को सहेजने का जज्बा कहीं नजर नहीं आता.

भारत के हर भौगोलिक क्षेत्र में प्राचीन काल से लेकर आज तक शासन और समाज ने अपनी जरूरतों के मुताबिक जल संरचनाओं और जल प्रणालियों को विकसित किया है. रेगिस्तान हो या बुंदेलखंड, जहां भी पानी मिलना दूभर हुआ, तालाबों को सागर की उपमा दी गयी. ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचनेवाली प्रणालियों का उल्लेख है.

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवशेष मिले हैं. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी जल संरचनाओं के बारे में अनेक विवरण उपलब्ध हैं. मेगास्थनीज ने भी अपने यात्रा विवरणों में उत्तर भारत में पानी का वितरण करनेवाली जलसुरंगों का जिक्र किया है. बुंदेलखंड में लाख उपेक्षा के बावजूद नौवीं से बारहवीं सदी के चंदेलकालीन तालाब अब भी वर्षा के जल को सहेज रहे हैं.

यह कड़वा सच है कि अंग्रेजीदां इंजीनियरिंग की पढ़ाई ने युवा को सूचनाओं से तो लाद दिया, लेकिन देशज ज्ञान उनकी पाठ्य पुस्तकों में रहा नहीं. जब सरकारी इंजीनियरों को तालाब सहेजने का कहा जाता है, तो वे उस पर स्टील की रेलिंग लगाने, किनारे बगीचा और जलकुंभी निकालने की मशीन लगाने या गहरा खोदने से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते हैं.

पुरानी संरचनाएं बानगी हैं कि पहले भी उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी मौजूद थे. कई बार लगता है कि उन निर्माणकर्ताओं में अविश्वसनीय कौशल तथा देश की मिट्टी व जलवायु की बेहतरीन समझ की सोंधी गंध मौजूद थी.

तालाब महज एक गढ्ढा नहीं है, जिसमें बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें. तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए मिट्टी, जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है, वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाइट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया.

यदि बगैर सोचे-समझे पीली या दोमट मिट्टी में तालाब खोद दें, तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दलदल बनायेगा और फिर उससे न केवल जमीन नष्ट होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जायेंगे. यदि बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा, तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है.

जब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन के खतरे मुंह बाये खड़े हैं, अन्न में पौष्टिकता की कमी, रासायनिक खाद-दवा के अतिरेक से जहर होती फसल, बढ़ती आबादी के पेट भरने की चुनौती, फसलों में विविधता का अभाव और प्राकृतिक आपदाओं की त्वरित मार जैसी कई चुनौतियां खेती के सामने हों, तो तालाब ही एकमात्र सहारा बचता है. नये तालाब जरूर बनें, लेकिन पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यों बचा जा रहा है?

मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे. साल 2000-01 में पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गये. देश में जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है, जिनमें करीब 4.70 लाख जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं.

गत दशकों में तालाब या उसके जल ग्रहण क्षेत्र में हुए अतिक्रमण हटाने, तालाबों के जल आगमन क्षेत्र में बाधा खड़े करने पर कड़ी कार्रवाई करने, नये तालाबों के निर्माण के लिए आदि-ज्ञान हेतु समाज से स्थानीय योजनाएं तैयार कराना जरूरी है. यह तभी संभव है जब न्यायिक अधिकार संपन्न तालाब विकास प्राधिकरण का गठन ईमानदारी से हो. दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नये तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं.

भू-मफियाओं ने इन इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया, जिसमें उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी. काश, नदी-जोड़ जैसी किसी एक योजना के समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार पारंपरिक तालाबों के संरक्षण में खर्च कर दी जाए, तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, न कोई कंठ सूखा रहेगा और न ही जमीन की नमी मारी जायेगी.

Posted By : Sameer Oraon

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