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छोटी नदियों को हड़पने से डूबते हैं शहर

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नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड़ आने की कहानी पूरे देश की है. लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है.

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पहली बारिश में ही गुरुग्राम दरिया बन गया. विकास और समृद्धि के प्रतिमान दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर दो बार जलभराव से जाम लग चुका है. पिछले पांच सालों से हर साल ऐसा हो रहा है. बरसात होते ही जल वहीं आ जाता है. यह सभी जानते हैं कि असल में जहां पानी भरता है, वह अरावली से चल कर नजफगढ़ में मिलने वाली साहबी नदी का हजारों साल पुराना मार्ग है. नदी सुखा कर सड़क बनायी गयी लेकिन, नदी की भी याददाश्त होती है, वह अपना रास्ता 200 साल नहीं भूलती.

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अब समाज कहता है कि उसके घर-मोहल्ले में पानी भर गया, जबकि नदी कहती है कि मेरे घर में इंसान कब्जा किये हुए हैं. देश के छोटे-बड़े शहर-कस्बों में कंक्रीट के जंगल बोने के बाद जल-भराव एक स्थाई समस्या है. इसका मूल कारण है कि वहां बहने वाली कोई छोटी सी नदी, बरसाती नाले और जोहड़ों को समाज ने अस्तित्वहीन समझ कर मिटा दिया. गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है, पर ये नदियां बड़ी इसलिए बनती हैं, क्योंकि इनमें बहुत-सी छोटी नदियां मिलती हैं.

छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी, यदि छोटी नदी प्रदूषित होगी तो बड़ी नदी भी प्रभावित होगी. बरसाती नाले अचानक आई बारिश की असीम जल निधि को अपने में समेट समाज को डूबने से बचाते हैं. छोटी नदियां और नाले अक्सर बहुत कम दूरी में बहती हैं. कई बार एक ही नदी के अलग-अलग नाम होते हैं. कभी वह नाला कहलाती है, कभी नदी.

नदियों और जल को लेकर हमारे लोक समाज की प्राचीन मान्यता बहुत अलग थी. बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो, उसे अविरल बहने दिया जाए, बड़ा पर्व-त्योहार हो तो उसके किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें. वहीं बस्ती छोटी नदी या तालाब या झील के आस-पास हो, ताकि स्नान, कपड़े धोने, मवेशी आदि की दैनिक जरूरतें पूरी हो सकें. वहीं घर-आंगन-मोहल्ले में कुआं था, उससे जितना जल चाहिए, श्रम करिए, और खींच कर निकाल लीजिए. अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा, यदि तालाब और छोटी नदी में पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में जल की कमी नहीं होगी.

एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हजार छोटी नदियां हैं, जो उपेक्षित हैं. उन्नीसवीं सदी तक बिहार (आज के झारखंड को मिला कर) में हिमालय से कोई 6000 नदियां उतर कर आती थीं, आज इनमें से महज 400 से 600 का ही अस्तित्व बचा है . मधुबनी, सुपौल में बहने वाली तिलयुगा नदी कभी कोसी से भी विशाल हुआ करती थी, आज उसकी धारा सिमट कर कोसी की सहायक नदी भर रह गई है.

सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गईं. नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड़ आने की कहानी पूरे देश की है. लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है. उन्हें नहीं समझ आ रहा कि धरती की कोख में जल-भंडार तभी लबालब रहता है, जब पास बहने वाली नदियां हंसती-खेलती हों.

अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं. जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड तक नहीं है. उनको नाला बता दिया जाता है. जिस साहबी नदी पर शहर बसाने से गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं. झारखंड-बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हजार से ज्यादा छोटी नदियां गुम हो गईं. हम यमुना में पैसा लगाते हैं, लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन,काली को और गंदा करते हैं. कुल मिला कर यह नल खुला छोड़ पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है. अभी जरूरत है कि सबसे पहले छोटी नदियों और बरसाती नालों का एक सर्वे हो और उनकी अविरलता सुनिश्चित हो.

फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को गंभीर अपराध घोषित किया जाए. स्थानीय इस्तेमाल के लिए पारंपरिक तरीके वर्षा जल की एक-एक बूंद एकत्र की जाए. सबसे अहम यह है कि नदी को सहेजने का जिम्मा स्थानीय समाज, और खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए. बारीकी से देखें तो छोटी नदियां बरसात में हर बूंद को खुद में समेट लेती थीं, दो महीने उनका विस्तार होता था, फिर वे धीरे-धीरे अपनी जल निधि को स्थानीय उपयोग और बड़ी नदियों से साझा करती थी. ऐसे में बाढ़ नहीं आती थी.

अब छोटी नदियों के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है. नदी के कछार ही नहीं, प्रवाह मार्ग में भी मकान बन रहे हैं. कई जगह धारा को तोड़ा जा रहा है. इन कारणों से साल के अधिकांश महीनों में छोटी नदियाँ पगडंडी और ऊबड़-खाबड़ मैदान में तब्दील होकर रह गई हैं. जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं.

छोटी नदियां बाढ़ से बचाव के साथ-साथ धरती के तापमान को नियंत्रित रखने, मिटटी की नमी बनाये रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं. नदी तट से अतिक्रमण हटाने, उसमें से बालू-रेत उत्खनन को नियंत्रित करने, नदी की समय-समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है. समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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