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BRICS Summit : ब्रिक्स सम्मेलन से निकलते अहम संदेश

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BRICS Summit : प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के जो बयान आये हैं, उसमें आगे के लिए रास्ता बनाने की बात कही गयी है. भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से बाद में जो बयान आया है, उसमें यह रेखांकित किया गया है कि दोनों देशों के बीच राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत का दौर फिर से शुरू होगा.

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BRICS Summit : रूस के ऐतिहासिक शहर कजान में आयोजित ब्रिक्स समूह के नेताओं का शिखर सम्मेलन अनेक कारणों से महत्वपूर्ण रहा है. इस आयोजन की सबसे उल्लेखनीय घटना रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की द्विपक्षीय वार्ता. पिछले कुछ साल से दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण रहे हैं. इस बातचीत में विभिन्न मुद्दों पर दोनों नेताओं के बीच क्या सहमति बनी, उसका विवरण तो बाद में पता चल सकेगा, लेकिन पांच वर्षों के अंतराल के बाद भारत और चीन के शीर्ष नेताओं की भेंट से निश्चित रूप से संबंधों में बेहतरी का सिलसिला शुरू होगा.

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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत फिर से शुरू होगी

प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के जो बयान आये हैं, उसमें आगे के लिए रास्ता बनाने की बात कही गयी है. भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से बाद में जो बयान आया है, उसमें यह रेखांकित किया गया है कि दोनों देशों के बीच राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत का दौर फिर से शुरू होगा. यह बातचीत 2019 के बाद से रुक गयी थी, हालांकि कुछ समय पहले रूस में ही भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनके समकक्ष चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच एक बातचीत हुई थी. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की मुलाकात का सिलसिला शुरू होने का मतलब यह है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सेनाओं को पीछे हटाने और गश्त की बहाली से जुड़े जो समझौते हुए हैं, उन्हें लागू करने की प्रक्रिया की निगरानी और सत्यापन का काम शीर्ष स्तर पर किया जायेगा.

नियमित शिखर वार्ताएं भी संभव

यदि ये व्यवस्थाएं कारगर रहीं और सीमा पर तनाव में कमी आयी, तो यह भी संभव है कि पहले की तरह प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी की नियमित शिखर वार्ताएं भी हों. तो मेरा मानना है कि कजान में दोनों नेताओं की मुलाकात एक अहम कदम है. दोनों नेता अपने-अपने देशों को यह कह सकते हैं कि वे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से खाली हाथ नहीं आये हैं. वे यह भी दावा कर सकते हैं कि उन्होंने लंबे समय से चल रहे तनाव को सामान्य करने का प्रयास किया है. यह दोनों देशों के हितों के लिए सकारात्मक है. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जब दो देशों के सैनिक आमने-सामने खड़े होते हैं, तो ऐसी तनावपूर्ण स्थिति में स्वतंत्र विदेश नीति रख पाना मुश्किल हो जाता है. अगर चीन के साथ तनातनी बढ़ती जाती, तो भारत पश्चिमी देशों के अधिक दबाव में आता. चीन के व्यापारिक हितों के लिए भी ऐसा तनाव बड़ी बाधा बन सकता था. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि दोनों नेताओं की भाषा भी सद्भावपूर्ण रही और वह भविष्य की ओर उन्मुख दिखी. शिखर सम्मेलन स्तर की बातचीत में आम तौर पर उद्देशों को ही चिह्नित किया जाता है और उसका स्वर घोषणात्मक होता है. उद्देश्यों के लिए विवरण और प्रक्रिया बाद की चीज होती है.

मुद्राओं को प्राथमिकता देने का आह्वान

ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने वैश्विक शांति और सहयोग बढ़ाने पर जोर देने के साथ-साथ आपसी व्यापार में अपनी-अपनी मुद्राओं को प्राथमिकता देने का भी आह्वान किया. सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी राष्ट्रीय मुद्राओं के अधिकाधिक उपयोग पर बल दिया. ब्रिक्स के संदर्भ में अमेरिकी डॉलर के स्थान पर दूसरी मुद्राओं को अपनाने की चर्चा बहुत समय से हो रही है. पश्चिमी देशों को लगता था कि वे रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिल्कुल अलग-थलग कर देंगे. उन्हें यह भी लगता था कि ग्लोबल साउथ के देश उनके दबाव में आ जायेंगे और रूस से दूरी बना लेंगे. लेकिन ब्रिक्स सम्मेलन का आयोजन कर और लगभग तीन दर्जन देशों के नेताओं को आमंत्रित कर रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने यह साबित कर दिया है कि वे कतई अलग-थलग नहीं पड़े हैं तथा ग्लोबल साउथ के उभरते हुए देश उनके साथ काम करने के लिए तैयार हैं. जहां तक नयी विश्व व्यवस्था बनाने का दावा है, तो वह एक कथन अधिक है और उसमें वास्तविकता कम है.

‘ब्रिक्स पे’ की चर्चा

एक चीज जो रूस करना चाहता था, वह था एक वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था बनाना. कुछ दिन पहले वित्त मंत्रियों की बैठक में ‘ब्रिक्स पे’ नामक व्यवस्था की चर्चा भी हुई थी. लेकिन सम्मेलन की घोषणा में उसका खास उल्लेख नहीं है और न ही किसी ब्रिक्स करेंसी की बात है. इस संबंध में बस यह सहमति बनी है कि भविष्य में इस पर काम किया जायेगा. अभी यही कहा गया है कि समूह के सदस्य देश अपनी मुद्राओं में अधिक व्यापार करने का प्रयास करेंगे. रूस और चीन के आपसी व्यापार का 90 से 95 प्रतिशत उनकी अपनी मुद्राओं में होता है. भारत और रूस का व्यापार 65 से 68 अरब डॉलर के बीच है, जिसका अधिकांश भारत के आयात का है. इन देशों के बीच स्थानीय मुद्रा में कारोबार तो हो रहा है, पर इसमें यह समस्या आ गयी है कि रूस का कहना है कि उसके पास जो बड़ी मात्रा में भारतीय मुद्रा जमा हो रही है, उसका वह क्या करे. वह भारत से दूसरी बड़ी मुद्राओं की अपेक्षा कर रहा है. भारत का अनुरोध है कि रूस उस राशि को भारत में ही निवेश कर दे. यह दोनों देशों के लिए लाभदायक होगा, पर अभी युद्ध के कारण रूस को नगदी की जरूरत है ताकि वह अन्य देशों से जरूरी खरीद कर सके.


डॉलर पर निर्भरता खत्म करना रूस के लिए ज्यादा जरूरी है. यूक्रेन युद्ध के कारण अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली स्विफ्ट सिस्टम से रूस को निकाल दिया गया है, तो रूस ब्रिक्स में एक वैकल्पिक भुगतान प्रणाली बनाना चाहता है. भारत, चीन, रूस समेत अनेक देशों के पास राष्ट्रीय स्तर पर तो भुगतान सिस्टम हैं, जैसे भारत में यूपीआइ, पर ब्रिक्स देशों के बीच ऐसा कोई साझा तंत्र नहीं है. घोषणा में ऐसी व्यवस्था बनाने की बात तो कही गयी है, पर उसके बारे में विवरण नहीं दिया गया है कि इसे कैसे स्थापित किया जायेगा. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि डॉलर में होने वाले व्यापार की तुलना में ब्रिक्स समूह के देशों के आपसी व्यापार की मात्रा बहुत ही कम है. स्थानीय मुद्राओं में व्यापार फायदेमंद तो है, पर इससे डॉलर के वर्चस्व पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा. यह जरूर है कि वैश्विक दक्षिण के देशों को ऐसा अंदेशा है कि पश्चिमी देशों ने जो रूस के साथ किया, वह कल उनके साथ भी हो सकता है. रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद लगे प्रतिबंधों के तहत पश्चिमी देशों ने वहां जमा रूस की नगदी और परिसंपत्तियों को जब्त कर लिया है. अनेक देशों को लगता है कि किसी तनावपूर्ण या संघर्ष की स्थिति में वे देश उनका धन भी जब्त कर सकते हैं. इसीलिए वे अधिक सोना खरीद रहे हैं और अपने डॉलर रिजर्व को घटा रहे हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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