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जन्मशती विशेष : गीतों का राजकुमार कहलाते थे गोपाल दास नीरज

Gopal Das Neeraj : पुरावली (इटावा) में जन्म लेने के बाद पढ़ाई और रोजी-रोटी के चक्कर में एक से दूसरी जगह आने-जाने, उन्हें छोड़ने का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ, वह अलीगढ़ आने के बाद ही थमा. अलीगढ़ आने से पहले जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने पान-बीड़ी, तंबाकू बेचा, अखबार बांटे, यमुना के जल में से पैसे खोजे-निकाले, रिक्शा तक चलाया, ट्यूशन पढ़ाया, टाइपिंग की.

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Gopal Das Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’ की अनगिनत स्मृतियां हैं. निवाड़ के पलंग पर अधलेटे से पढ़ते नीरज जी! बिखरे से बाल, बढ़ी-सी दाढ़ी! साधारण-सा स्वेटर, चारखाने की तहमद. एक-एक बीड़ी के लिए खर्च होती कई-कई तीलियां. नाभि के पास तक आकर झूलता-सा गले में लटका उनका मोबाइल फोन! कामों, सिफारिशों के लिए आते फोन और व्यक्तियों को ध्यान से सुनते, उन्हें भरोसा दिलाते नीरज जी!


पुरावली (इटावा) में जन्म लेने के बाद पढ़ाई और रोजी-रोटी के चक्कर में एक से दूसरी जगह आने-जाने, उन्हें छोड़ने का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ, वह अलीगढ़ आने के बाद ही थमा. अलीगढ़ आने से पहले जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने पान-बीड़ी, तंबाकू बेचा, अखबार बांटे, यमुना के जल में से पैसे खोजे-निकाले, रिक्शा तक चलाया, ट्यूशन पढ़ाया, टाइपिंग की. बाद में लिटरेरी असिस्टेंट-जिला सूचना अधिकारी और बाद में महाविद्यालयों में प्राध्यापक भी हुए-हटाये गये या कहें हटना पड़ा. तमाम जगह अटकते-भटकते अंतत: अलीगढ़ में ठिकाना मिला-बना. अलीगढ़ आने से पहले वह कवि हो चुके थे, माने जाने भी लगे थे. लेकिन काव्य जगत में बुलंदिया छूते जाने की शक्ति और सामर्थ्य उन्हें अलीगढ़ ने ही दी.

माना कि 1941 से कविता लिखना, 1944 से मंचों से पढ़ना-छपना शुरू हो चुका था. लेकिन किरायेदार से बेहतरीन कॉलोनी में बनवाये एक आलीशान भवन के मालिक बन सकने का गौरव और कवि रूप में मिली सारी इज्जत, शोहरत और दौलत उन्हें अलीगढ़ में आने के बाद मिली. वर्ष 1942 में दिल्ली के कवि सम्मेलन में भावुक इटावी के नाम से पढ़ी गयी कविता ने उन्हें अखिल भारतीय बना दिया था. इटावा के दोस्तों को यह नाम नहीं जमा, तो नीरज तय हुआ. नीरज नाम न्यूमरोलॉजी और कुंडली के हिसाब से भी सही रहा और इतना रास आया कि उन्हें गीतों का राजकुमार, गीत सम्राट, गीतऋषि आदि-आदि कहा जाने लगा. वर्ष 1955 में ‘कारवां गुजर गया’ गीत के बाद पहली बार रेडियो से प्रसारित होते ही वह रातोंरात प्रसिद्ध हो गये.


फिल्मी गीत लिखने का श्रेय वह अलीगढ़ को नहीं देते थे. कहते थे कि लगभग 125-130 गीतों में से अधिकांश उन्होंने मुंबई जाकर लिखे. बार-बार कहने पर वह इतना जरूर मान लेते थे कि हां, वे गीत अलीगढ़ में रहते हुए लिखे गये थे. नीरज का फिल्मी जीवन कुछ पांच वर्षों का रहा और उस दौरान उन्होंने, ‘लिखे जो खत तुझे’, ‘शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब’, ‘ऐ भाई जरा देखके चलो’, ‘रेशमी उजाला है, मखमली अंधेरा है’, ‘फूलों के रंग से, दिल की कलम से’, ‘दिल आज शायर है, गम आज नगमा है’, जैसे यादगार गीत लिखे. मुझे याद है, नीरज जी से मैंने उनके गीतकार के सफर के बारे में पूछा था. वह कह रहे थे, ‘लगभग 1950 से लेकर 1975 तक अछांदसिक कविता के रचनाकारों ने षड्यंत्र के तहत गीत को पूरी तरह से नकार दिया था.

समस्त गीतकारों को कवि सम्मेलनी कहकर एक प्रकार से उन्होंने हमारे लेखन को साहित्य माने जाने से ही वंचित कर दिया था. उस समय प्रचार के जितने साधन थे, उन्होंने सब पर अपना अधिकार जमा लिया था और गीत की चर्चा हर प्रचार माध्यम से समाप्त हो गयी थी. गीतकार सिर्फ कवि सम्मेलन के मंच तक ही सीमित रह गये थे, जबकि वे अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि भी थे. गीतकारों को नकारने का कारण वे यह बतलाते थे कि गीत और गायी जाने वाली कविता उस समय की थी, जब छापेखाने नहीं जन्मे थे और न ही विज्ञान का जन्म हुआ था.

आधुनिक विज्ञान ने समस्त आधुनिक मानवीय मूल्यों को बदल दिया और आज लिजलिजी भावुकता वाले गीत अप्रासंगिक हैं. एक बार मैंने प्रभाकर माचवे जी से कहा कि आप हमारी प्रशंसा नहीं कर सकते, तो हमें गाली ही दे दो भाई. तो वह मुस्कराकर बोले कि गाली देकर तो आपका ज्यादा प्रचार होगा. इसका फल यह हुआ कि सारे गीतकारों ने न अपना कोई संगठन बनाया, न गीत के संबंध में कोई पत्रिका निकाली. हां, मैंने एक पत्रिका लय नाम से गीत को स्थापित करने के लिए जरूर निकाली थी, जिसके केवल नौ अंक निकले थे. त्रैमासिक पत्रिका थी और मेरे मुंबई चले जाने के कारण वह बंद हो गयी.’


नीरज खुद को पथभ्रष्ट योगी कहते थे. वह कहते थे कि तन के रोगी और मन के भोगी होने के बावजूद उनकी आत्मा योगी है. तरह-तरह के भोगों के चक्कर में मन उन्हें यहां-वहां भटकाता-घुमाता रहा. लेकिन बिना कहीं फंसे-उलझे वह अथक-अनवरत बुलंदियां छूते-चूमते गये.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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