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Birth Anniversary : हाशिये पर पड़े लोगों की आवाज हैं भिखारी ठाकुर, पढ़ें प्रो. परिचय दास का खास लेख

Bhikhari Thakur : भिखारी ठाकुर के नाटकों को एक राजनीतिक दस्तावेज के रूप में देखा जा सकता है, जहां वे हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज बनते हैं. उनका 'बिदेसिया' केवल प्रवासी मजदूर की कहानी नहीं है, बल्कि यह वैश्विक श्रम, प्रवास और मानवीय रिश्तों की नयी परिभाषा पर सवाल उठाता है.

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Bhikhari Thakur : भिखारी ठाकुर का साहित्य आज नये दृष्टिकोण से समझे जाने की मांग करता है. यह केवल लोकजीवन के प्रतिबिंब या तत्कालीन सामाजिक समस्याओं का चित्रण नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी रचनात्मक परियोजना है, जो समाज के बुनियादी ढांचे को चुनौती देती है और उसे नये सिरे से परिभाषित करने का प्रयास करती है. आज जब भूमंडलीकरण और तकनीकी प्रगति ने गांव-शहर, परंपरा-आधुनिकता और लोकशास्त्र के बीच की रेखाओं को धुंधला कर दिया है, तब भिखारी ठाकुर का साहित्य इन द्वैतों को समझने और उनमें निहित संकटों को उजागर करने के लिए जरूरी साधन बन जाता है.

भिखारी ठाकुर के नाटकों को एक राजनीतिक दस्तावेज के रूप में देखा जा सकता है, जहां वे हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज बनते हैं. उनका ‘बिदेसिया’ केवल प्रवासी मजदूर की कहानी नहीं है, बल्कि यह वैश्विक श्रम, प्रवास और मानवीय रिश्तों की नयी परिभाषा पर सवाल उठाता है. आज के परिप्रेक्ष्य में, यह नाटक सिर्फ भोजपुरी समाज का नहीं, बल्कि विश्वभर के प्रवासी श्रमिकों की मानसिक और सांस्कृतिक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करता है. इसमें श्रम, प्रवास और प्रेम की त्रासदी का जो चित्रण है, वह पूंजीवादी संरचनाओं की आलोचना के रूप में उभरता है. भिखारी ठाकुर के नाटकों में जो हास्य, व्यंग्य और करुणा का मिश्रण है, वह उनकी गहरी दार्शनिक समझ को प्रकट करता है. इसे अब तक एक नैतिक शिक्षा के साधन के रूप में देखा गया था, लेकिन उनकी व्यंग्यात्मक शैली समाज में सत्ता, पितृसत्ता और वर्चस्व के खिलाफ एक प्रतिरोध है.


भिखारी ठाकुर का साहित्य जाति, वर्ग और लिंग के प्रश्नों पर नये संवाद की शुरुआत करता है. उनकी रचनाएं दिखाती हैं कि कैसे परंपरा और सामाजिक संरचनाएं हाशिये पर खड़े समुदायों को दबाने का काम करती हैं. उनकी कृति ‘भाई विरोध’ सामूहिकता बनाम व्यक्तिगत पहचान के विमर्श को खोलने में सहायक हो सकती है. उनके पात्रों के बीच के संघर्ष घरेलू या व्यक्तिगत नहीं हैं, बल्कि वे एक व्यापक सामाजिक व्यवस्था के भीतर इंसान की अस्मिता के लिए चल रहे संघर्ष का हिस्सा हैं. उनकी भाषा में जो सहजता और गहराई है, वह इस बात का प्रमाण है कि लोकसंस्कृति अपने भीतर कितनी जटिलताएं समेटे हुए है. भिखारी ठाकुर के नाटकों में जो सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्न उठाये गये हैं, वे आज भी अनुत्तरित हैं.

उनके साहित्य को पढ़ने का अर्थ है परंपरा, सामुदायिकता और नैतिकता की उन जटिल गुत्थियों को खोलना, जिनसे आज भी हमारा समाज जूझ रहा है. उनके नाटक और गीत उन सवालों को जीवित रखते हैं, जो विकास, आधुनिकता और सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर अक्सर दबा दिये जाते हैं. ‘बिदेसिया’ का पलायन अब केवल गांव से शहर की दूरी तक सीमित नहीं है, यह उन मानसिक, सांस्कृतिक और डिजिटल विस्थापनों का प्रतीक बन गया है, जिनका अनुभव हर समाज कर रहा है. जब हम तकनीकी प्रगति के साथ अपने समाज को बदलते देखते हैं, तब भिखारी ठाकुर के पात्र हमें यह समझने में मदद करते हैं कि कैसे यह प्रगति हाशिये पर खड़े लोगों के लिए नयी तरह की गुलामी पैदा करती है. आज जब वैश्विक स्तर पर जातीय और सांस्कृतिक पहचान पर बहसें तेज हैं, तब उनकी रचनाओं में निहित जाति-विरोधी चेतना और हाशिये के समाज की लड़ाई समकालीन व्याख्या के योग्य हो जाती है.


सांस्कृतिक संदर्भ में, भिखारी ठाकुर ने ‘लौंडा नाच’ की परंपरा को जो नया जीवन दिया, वह आज लैंगिक और यौनिक पहचान के नये विमर्शों में अपनी जगह बना सकता है. ‘लौंडा नाच’ उस समय की पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचनाओं को चुनौती देने का एक परोक्ष, लेकिन सशक्त प्रयास था. भिखारी ठाकुर के गीत और संवाद सांस्कृतिक स्मृति और सामूहिक चेतना के पुनर्निर्माण का माध्यम बन सकते हैं. उनकी रचनाएं हमें याद दिलाती हैं कि कैसे लोकभाषा और लोककला केवल मनोरंजन नहीं, एक जीवंत विरासत हैं. उनकी भाषा की सहजता और भावनात्मक गहराई साबित करती है कि लोकजीवन में कला और साहित्य का स्थान कितना अनिवार्य है. भिखारी ठाकुर अतीत के नायक नहीं, भविष्य के निर्माता भी हैं. उनके साहित्य का अध्ययन और पुनर्व्याख्या हमारे लिए उस सामूहिक चेतना को जागृत करने का अवसर है, जिसे हमने तकनीकी युग की दौड़ में कहीं खो दिया है. उनके नाटक और गीत यह संदेश देते हैं कि कोई भी समाज तभी प्रगति कर सकता है, जब वह अपनी जड़ों और हाशिये के लोगों को समझने और अपनाने का साहस करे. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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