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बिना अपना परिचय दिये हर बार फोन पर एक ही शब्द सुनने को मिलता ऋचा का पापा बोल रहा हूं…

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लड़कियों के लिए हमारा समाज अलग-अलग तरह से सोचता है. समाज के पिछड़ने का मुख्य कारण यही रहा है कि हम अपनी बेटियों को आगे बढ़ने से रोकते रहे हैं. लेकिन समय की धारा बदल रही है. आज पिता अपनी बेटी को पढ़ाने और उसे आगे बढ़ाने के लिए हर कदम पर साथ दे रहे […]

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लड़कियों के लिए हमारा समाज अलग-अलग तरह से सोचता है. समाज के पिछड़ने का मुख्य कारण यही रहा है कि हम अपनी बेटियों को आगे बढ़ने से रोकते रहे हैं. लेकिन समय की धारा बदल रही है. आज पिता अपनी बेटी को पढ़ाने और उसे आगे बढ़ाने के लिए हर कदम पर साथ दे रहे हैं.
बेटी की प्रगति में ही उसकी खुशी दिखती है. बेटी के प्रति उसके अंदर जो प्यार, स्नेह, लगाव, समर्पण है, वह आज बेटियों को नयी राह दिखा रहा है. बेटी के प्रति पिता के छलकते प्यार, बेटी के स्वस्थ होने की प्रसन्नता और आशावादी संकल्प सुनने और समझने का एक अवसर मिला गोवा की राज्यपाल, मृदुला सिन्हा जी को. उन्होंने अपने इसी अनुभव को प्रभात खबर के साथ साझा किया है.
मृदुला सिन्हा
राज्यपाल, गोवा
प्रसंग 2014 का ही है. केंद्र में मोदी जी की सरकार बन गयी थी. मैं राज्यपाल नहीं बनी थी. सप्तक्रांति एक्सप्रेस से मुजफ्फरपुर से नयी दिल्ली आ रही थी. मोतिहारी जंक्शन पर मेरी भतीजी मंजू मेरे लिए खाना लेकर आने वाली थी. स्टेशन आ गया. सेकेंड एसी बॉगी के गेट पर यात्रियों की बड़ी भीड़ थी. मुझे डर था कि कहीं गाड़ी न खुल जाए. मेरा कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ता, मंजू मुझ तक खाना नहीं पहुंचा पाने के कारण दु:खी हो जाती. मैंने खिड़की से देखा, मंजू गेट खाली होने का इंतजार कर रही थी. अपनी सीट से उठकर मैंने स्वयं गेट पर जाने की कोशिश की. वहां बड़ी भीड़ थी. तेज स्वर में सामूहिक बातचीत भी.
एक-एक स्वर में गाड़ी छूट जाने का भय. भीड़ के शोरगुल में एक लड़की के लगातार कराहने का स्वर भी मिला हुआ था. वक्त की नजाकत समझते हुए मैं गेट के पास ही खड़ी हो गयी. चार-पांच लोगों ने मिलकर स्ट्रेचर पर कराहती एक लड़की को अंदर सीट पर लिटाया. इस बीच मैंने प्लेटफार्म पर खड़ी मंजू के हाथ से खाने का डिब्बा ले लिया. गाड़ी खुल गयी. कई लोग जो स्ट्रेचर पर उस बच्ची को चढ़ाने आये थे, जल्दी-जल्दी ससरती गाड़ी से नीचे उतरे. मेरी सीट के पीछे वाली सीट पर उस लड़की को लिटाया गया था. वह बिना विराम कराह रही थी. मेरे साथ अन्य सहयात्रियों के भी मन विचलित हो रहे थे. मैंने पूछा -‘‘क्या हुआ है इसे?’’
मेरे सामने की सीट पर बैठे सज्जन ने कहा-‘‘मेरी ही बेटी है. मैं उसका पापा हूं.’’ और उन्होंने अपने द्वारा नयी स्कूटी खरीदने और बेटी द्वारा चलाने की अनुमति मांगने पर हामी भरने की बात कही. उस स्कूटी से ही वह दुर्घटनाग्रस्त हो गयी. सिर में गहन चोट आने के कारण शरीर की सारी गतिविधियां प्रभावित हो गयीं. पटना में इलाज चला. कुछ सुधार भी हुआ. वे उसे आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में दिखाने ले जा रहे थे. पूरी कहानी दर्दनाक ही थी. लेकिन मैं तो एक पिता की हिम्मत और बेटी के प्रति प्यार की गहराई मापक यंत्र लिए बैठी थी. दु:ख की चादर पर भी सुख के छींटे पसर गये.
मैंने पूछा-‘‘एम्स के डॉक्टर से समय ले लिया है?’’
‘‘नहीं. हमारे पास कहां नंबर है. न अस्पताल का न किसी डॉक्टर का ?’’ ऋचा के पिता बोले.मैंने कहा-‘‘फिर इस बीमार बच्ची को लेकर कहां और कब तक भटकते रहेंगे? दिल्ली में अपने ठहरने का स्थान ढूंढ़ लिया है?’’ मैंने चिंतित होकर पूछा.
थोड़ी देर शांति पसर आयी. मात्र उस लड़की के कराहने के स्वर सुनाई दे रहे थे, जिसे सभी यात्रीगण सुन रहे थे.
उनके पास मेरे इस चिंताजनक प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था. मैंने डॉ हर्षवर्द्धन (तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री) का मोबाइल नंबर डायल किया. उन्होंने अविलंब उठाया. मैंने उस बालिका की स्थिति बताकर उनके पिता का उनसे मिलने का समय मांगा. उन्होंने कहा-‘‘मैं तो कल नहीं मिल पाऊंगा.’’
मेरी चिंता मुखर हुई-‘‘बालिका इस स्थिति में है कि इसे आज ही दिखाना आवश्यक लगता है.’’उन्होंने एक मोबाइल नंबर दिया. कहा-‘‘उन्हें इस व्यक्ति से बात करने के लिए कहिए. ये सारी व्यवस्था करवा देंगे.’’चलती ट्रेन से ही मैंने स्वयं उस व्यक्ति (डॉ हर्षवर्द्धन के पीए) से बात की. ऋचा के पापा को बात करवा दी. दिल्ली में गाड़ी से उतर कर हमलोग अलग हो गये. ऋचा के पापा प्रतिदिन मुझे अस्पताल में चिकित्सक से दिखाते रहने का समाचार देते रहे. ऋचा की स्थिति में सुधार से वे प्रसन्न दिख रहे थे.
बीच-बीच में जब कभी जरूरत हुई मैंने संबंधित डॉक्टर से बातचीत की. उसकी स्थिति में सुधार आने में समय लग रहा था, पर ऋचा के पापा निराश नहीं थे. उनकी बातों से पूरा विश्वास छलकता था कि उनकी बेटी एक दिन चलेगी, बोलेगी, अपनी पढ़ाई पूरी करेगी. ऋचा पढ़ने में बहुत तेज है. वह बीए ऑनर्स की पढ़ाई पूरी कर रही थी. सभी कक्षाओं में प्रथम आती रही. माता-पिता की तीसरी (अंतिम) बेटी ऋचा अपने शील स्वभाव के कारण भी उनकी प्यारी ही है.
उस दुर्घटना के बाद माता-पिता बहुत दु:खी हो गये थे, लेकिन हिम्मत नहीं हारे. डॉक्टर की दवा चल रही थी, हिम्मत तो उनकी ही थी और ऋचा की जिजीविषा. ऋचा के पापा ने कहा कि उन्होंने मेरे बारे में ऋचा को बताया था और मेरी सहायता के बारे में भी. उन्होंने मोबाइल पर ही मुझे उसकी आवाज सुनायी. वह मुझे प्रणाम कहना चाह रही थी. आवाज स्पष्ट नहीं थी. मैंने उसे आशिष देकर कहा-‘‘हिम्मत नहीं हारना. तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओगी.’’ उसके हंसने के स्वर सुनाई दिए थे.
मैं गोवा की राज्यपाल बनकर गोवा आ गयी. ऋचा के पापा का फोन आता रहा. हर बार वे मुझे ऋचा की स्थिति में परिवर्तन का समाचार देते. सुनकर मन प्रसन्न होता. उन्होंने उसके परीक्षा में बैठने और उत्तीर्ण होने का भी समाचार दिया. मैंने ऋचा को बधाई और आशीर्वाद दिया. उसने कहा-‘‘मैं आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहती हूं. बीएड करूंगी.’’
‘‘बहुत अच्छा. नामांकन में मेरी ओर से कोई सहायता चाहिए तो कहना.’’ मैंने कहा.ऋचा के पापा ने बताया कि उनका नामांकन बीएड में हो गया. ऋचा बहुत प्रसन्न थी. मुझे प्रणाम कह रही थी.ऋचा के पापा ने एक दिन बताया-‘‘ऋचा ने आपको देखा नहीं है, पर प्रतिदिन स्मरण करती है. मेरे घर में आपकी चर्चा खूब होती है. चर्चा की शुरूआत ऋचा ही करती है.’’
राज्यपाल हो जाने के बाद भी मैं ऋचा के पापा का फोन उठाना नहीं छोड़ती. बातचीत प्रारंभ करने के पूर्व उनका पहला वाक्य होता-‘‘मैं ऋचा का पापा बोल रहा हूं.’’ मैं उनके मुख से बेटी की स्थिति में हो रहे सुधार का समाचार जो अनुराग में सना होता था अवश्य सुनती.
पिछले तीन वर्षों में कभी मैंने अपनी अतिव्यस्तता का हवाला देकर मोबाइल की लाइन काटी नहीं. उन्हें दो वाक्य तो बोलना होता है. ऋचा मुझे कैसे स्मरण करती है. मेरे बारे में क्या-क्या पूछती है और उसके शरीर में क्या-क्या सुधार हो रहा है.
मेरा भी स्वार्थ था. बेटी के प्रति पिता के छलकते प्यार, बेटी के स्वास्थ्य होने की प्रसन्नता और आशावादी संकल्प सुनने और समझने का अवसर मिलता है. ऋचा के पापा अपनी बेटी के स्वस्थ होने का सारा श्रेय मुझे देते नहीं थकते और मैं यह सोचकर कि मैंने किया ही क्या? बस दो-चार बार फोन. इन दिनों अधिकतर व्यक्ति मोबाइल पर बातें करता ही दिख जाता है. पता नहीं मोबाइल पर किस-किस प्रकार की बातें होती हैं. लेकिन ऋचा कौन है, उसके पिता कौन हैं, यह सब जाने बिना और ट्रेन में बैठे-बैठे बिना उनकी मांग के ही मैंने जब डॉ हर्षवर्द्धन से बात कर एम्स में उसके इलाज की व्यवस्था करवा दी थी, तब कहां सोचा था कि उस परिवार की मैं सदस्य हो जाऊंगी. वहां मेरी चर्चा होती रहेगी.
एक बार मैंने ऋचा के पापा का फोन आने पर कहा-‘‘आप ऋचा के साथ दुर्घटना होने के बाद बीती सारी घटनाएं प्रधानमंत्री जी को उसकी तसवीर के साथ भेजिए.’’
मुझे उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री जी की ओर से ऋचा के पापा को अपनी बेटी को स्वस्थ बनाने में कठिनतम प्रयास के लिए सराहना पत्र अवश्य आएगा.
एक दिन मेरे मोबाइल पर घंटी बजी. ‘हेलो’ कहने पर फिर वही स्वर सुनाई दिया-‘‘मैं ऋचा का पापा बोल रहा हूं. प्रधानमंत्री जी के यहां से चिट्ठी आयी है. उस कार्यालय ने सारा पता लगा लिया कि कैसे-कैसे इलाज हुआ है.’’ वे खुश थे. परिश्रम वे कर रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय से उसकी स्वीकृति मिलनी भी उनके उत्साहवर्द्धन और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान के भाव को आत्मसात कर मेहनत करने की सराहना ही है.
तीन वर्षों बाद एक दिन मैंने पूछ लिया-‘‘आपका नाम क्या है?’’ उन्होंने हंसते हुए बताया-‘‘हिमांशु भूषण प्रसाद सिंह. मैं रेलवे में गार्ड हूं. मुजफ्फरपुर स्टेशन पर ही पोस्टिंग है.’’ यह परिचय था ऋचा के पापा का.
मैं सोचने लगी मेरे लिए तो वे ऋचा के पापा भर हैं. ऋचा को मैंने देखा नहीं. इनसे भी केवल ट्रेन में मिली. पर एक रिश्ता तो जुड़ा है. यह कौन रिश्ता है मैं नहीं बता सकती. लेकिन ‘‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’’ के साक्षात उदाहरण ऋचा के पापा के साथ जुड़ा रिश्ता मुझे भी प्रसन्नता देता है, एक पिता किस प्रकार बेटी की सेवा करता हुआ अपना नाम भी भूलकर सिर्फ ऋचा का पापा रह गया है. बेटी की योग्यता और क्षमता पर गौरवान्वित. उसे इतना भी ख्याल नहीं कि दुर्घटना के बाद उसे अपनी दिनचर्या करने के लायक बनाने में उसका कितना परिश्रम लगा है. अपने परिश्रम का आकलन नहीं, बेटी के शरीर में सुधार का आकलन कर आनंदित है.
ऐसा है रिश्ता बेटी और बाप का. न जाने कितने माता-पिता अपनी बेटियों की अपंगता और बीमारियों से जूझ रहे हैं. ऐसी बेटियां भी उन्हें बोझ नहीं लगतीं. ऋचा के पापा सौभाग्यशाली हैं कि उनकी बेटी की रुग्णता में काफी सुधार हुआ है. देश में ऐसे पिताओं के परिश्रम की मैं वंदना करती हूं.
समाज में बालिका शिशु की भ्रूण हत्याओं और बेटियों पर अत्याचार ने ऐसा माहौल बना दिया है कि बेटियां बोझ होती हैं. यह सत्य नहीं है. सत्य तो यह है कि करोड़ों बेटियों को प्रगति पथ पर चढ़ा कर करोड़ों माता-पिता और शिक्षक-शिक्षिकाएं समाज और सरकार भी उनके तन-तन-धन से उनके सहायक बन रही हैं.महिला दिवस के अवसर पर ऐसी संस्थाओं की सराहना भी आवश्यक है. मात्र बेटियों के प्रति अत्याचारों की गणना नहीं.

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