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नयी बीमारियों से बढ़ रही है विश्व स्तर पर चिंता, समाधान में जुटे वैज्ञानिक

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बदलते परिवेश में अनेक ऐसी बीमारियां पनप रही हैं, जिनसे निपटने में मौजूदा चिकित्सा तकनीकें अक्षम साबित हुई हैं़ मेडिकल साइंस के लिए चुनौती बन रही इन बीमारियों से निपटने के लिए यदि समय रहते कारगर कदम नहीं उठाये गये, तो भविष्य में ये महामारी का रूप ले सकती हैं़ लाइलाज बीमारियों का कारण बन […]

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बदलते परिवेश में अनेक ऐसी बीमारियां पनप रही हैं, जिनसे निपटने में मौजूदा चिकित्सा तकनीकें अक्षम साबित हुई हैं़ मेडिकल साइंस के लिए चुनौती बन रही इन बीमारियों से निपटने के लिए यदि समय रहते कारगर कदम नहीं उठाये गये, तो भविष्य में ये महामारी का रूप ले सकती हैं़ लाइलाज बीमारियों का कारण बन रहे कई प्रकार के बैक्टीरिया पर दवाओं का असर नहीं हो रहा है़ इसी चिंता के संदर्भ में संबंधित विशेषज्ञ और विभिन्न देशों की सरकारों के प्रतिनिधि स्विट्जरलैंड में एकत्रित हुए और इन मसलों पर चर्चा की. आज के मेडिकल हेल्थ में जानते हैं इनसे जुड़े महत्वपूर्ण शोधों और उनसे हासिल अब तक के सकारात्मक नतीजों के बारे में …
दवाओं के खिलाफ बैक्टीरिया में पनप रही प्रतिरोधी क्षमता की समस्या से निपटने के लिए स्विट्जरलैंड के दावोस में ‘वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम’ के सहयोग से ‘कोएलिशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंस’ (सीइपीआइ) नामक कार्यक्रम पर काम चल रहा है. विविध स्वयंसेवी संगठनों और सरकारों ने इस मकसद से अब तक 46 करोड़ डॉलर की रकम जुटायी है. हेल्थ रिसर्च चैरिटी वेलकम ट्रस्ट के डायरेक्टर जेरेमी फेरर का कहना है, ‘हम जानते हैं कि ये महामारियां उल्लेखनीय रूप से हम सभी की जिंदगी, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए बड़ी चुनौती हैं.’ वे बताते हैं, ‘वैक्सिन हमें इनसे बचा सकते हैं, लेकिन इनके विकास के लिए ज्यादा प्रयास नहीं किया जा रहा है.’ ‘साइंस एलर्ट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सीइपीआइ के जरिये इन महामारियों से बचाव के लिए नये वैक्सिन के विकास पर जोर दिया जायेगा.
फिलहाल लक्ष्य यह है कि इन तीनों बीमारियों के लिए कम-से-कम वैक्सिनेशन के दो परीक्षणों को अंजाम दिया जा सके. आम तौर पर शोधकर्ता वैक्सिन का पांच या छह परीक्षण करते हैं. लेकिन, इस मकसद से बड़ी रकम मुहैया करानेवाले और तकनीक के इस्तेमाल से धनी बने बिल गेट्स ने जितनी रकम मुहैया करायी है, उससे दो या तीन परीक्षण को ही अंजाम दिया जा सकेगा.
मौजूदा तैयार की गयी रणनीति के तहत सीइपीआइ ने जिन तीन महामारियों से बचाव के लिए वैक्सिन विकसित करने पर जोर दिया है, वे इस प्रकार हैं :
मिड्ल इस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (एमइआरएस)
एमइआरएस या मर्स वायरस का प्रकोप दक्षिण कोरिया में सबसे ज्यादा है. वर्ष 2012 में इसका सबसे पहला मामला सामने आया था. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, इसका वायरस जूनोटिक किस्म का होता है यानी यह जानवरों से इनसानों में फैलता है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों में इस पर बहस जारी है कि मर्स वायरस पहले ऊंटों से आया या फिर चमगादड़ों से. इसके अलावा, यह भी साफ पता नहीं चल पाया है कि आखिर ये वायरस जानवरों से इनसानों में कैसे पहुंचे. मर्स के वायरस को सबसे पहले वर्ष 2012 में सऊदी अरब में देखा गया. सऊदी अरब के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इस कारण वहां करीब 400 लोगों की मौत हुई और एक हजार लोग संक्रमण का शिकार हुए थे. आम तौर पर अरब प्रायद्वीप में पाये जानेवाले इस वायरस के कई मामले यूरोप, एशिया और उत्तरी अमेरिका में भी सामने आये हैं. हालांकि, सऊदी अरब के बाहर किसी जगह पर सबसे अधिक मामले दक्षिण कोरिया में मई, 2015 से ही दर्ज हुए. सबसे पहले जानवरों से इनसानों में आया यह वायरस अब इनसानों से इनसानों में तेजी से फैल रहा है. मर्स संक्रमण के कुल वैश्विक मामलों में करीब 36 फीसदी में मरीज की मौत होने के मामले सामने आये हैं. हालांकि, दक्षिण कोरिया में केवल 10 फीसदी मरीजों की ही जान गयी. मर्स वायरस का संक्रमण होने पर खांसी, बुखार और निमोनिया जैसे लक्षण दिखते हैं. चिंता की बात यह है कि वायरस के संक्रमण के बावजूद कई मामलों में उसका कोई भी साफ लक्षण नहीं दिखा.
लासा फीवर
लासा फीवर एक गंभीर वायरल रक्तस्रावी बुखार है, जो लासा वायरस के कारण फैलता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, खास प्रजाति के चूहों से संक्रमित अनाजों से बने खाद्य पदार्थों के सेवन से इनसानों में इसका वायरस फैलता है. सबसे पहले यह पश्चिम अफ्रीका में सामने आया. नवंबर, 2015 से अब तक पश्चिम अफ्रीका में इस बीमारी से सैकड़ों लोग मारे गये हैं. डब्ल्यूएचओ में हेमोरेजिक फीवर के विशेषज्ञ डॉक्टर फोरमेंटली का कहना है, ‘लासा फीवर के सटीक और सुरक्षित जांच के लिए संसाधनों को विकसित करने के लिए हमें डायग्नोस्टिक सिस्टम में निवेश करना होगा, जैसाकि मलेरिया और एचआइवी से निपटने के लिए किया गया है. खास प्रकार के संक्रमित चूहों के जरिये इनसानों तक पहुंचने वाली यह बीमारी रक्त, मूत्र और शरीर के अन्य अंगों से होनेवाले स्रावों के माध्यम से वायरस फैलाती है. हवा के जरिये इसके फैलने के अब तक प्रमाण नहीं मिले हैं. दोबारा इस्तेमाल में लाये जानेवाली सूई या संक्रमित मेडिकल उपकरणों व सेक्सुअल ट्रांसमिशन से भी इस वायरस के फैलने की आशंका जतायी गयी है.
निपा वायरस
निपा वायरस जानवरों और इनसानों में नया उभरता हुआ एक गंभीर संक्रमण है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, इस वायरस का प्राकृतिक रूप से मेजबान टेरोपस जीनस नामक एक खास प्रकार का चमगादड़ है. निपा वायरस के उभार की पहचान पहली बार वर्ष 1998 में मलयेशिया के कंपुंग संगई निपा में की गयी थी. उस समय इसके इंटरमीडिएट वाहक सुअर थे. वर्ष 2004 में बांग्लादेश में इनसानों में इसका संक्रमण पाया गया. इसका कारण खास किस्म के चमगादड़ों से संक्रमित खजूरों का इनसानों द्वारा खाद्य पदार्थों के रूप में सेवन करना पाया गया था. उस दौरान भारत के एक अस्पताल में भी इसका एक मामला सामने आया था.
एंटीबायोटिक दवाओं को असरदार बनायेगा खास अणु
दुनियाभर में पाये जानेवाले ज्यादातर हानिकारक बैक्टीरिया पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर लगातार कम होता जा रहा है. ऐसे में चिंता स्वाभाविक है कि इनसानों में होनेवाली ज्यादातर बैक्टीरिया-जनित बीमारियों के लिए मेडिकल साइंस क्या उपाय करे? हालांकि, इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति होती दिख रही है.
इस दिशा में कुछ हद तक कामयाबी हासिल हुई है और हाल में एक ऐसी रिपोर्ट आयी है, जिसके मुताबिक वैज्ञानिकों ने एक ऐसे अणु का विकास किया है, जो अनेक प्रकार के बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक के खिलाफ पैदा होनेवाली प्रतिरोधी क्षमता को खत्म करेगा. इसे इस लिहाज से एक महती उपलब्धि इसलिए माना जा रहा है, क्योंकि इससे सुपरबग्स से भी निपटा जा सकेगा. भविष्य में सुपरबग्स का उभार इनसानों के लिए कितना भयावह होगा, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2014 में एक रिपोर्ट में यह आशंका जतायी गयी थी कि वर्ष 2050 तक सुपरबग्स के कारण 30 करोड. लोगों की मौत हो सकती है.
संयुक्त राष्ट्र ने भी इसे एक मौलिक चुनौती करार दिया है. इन बैक्टीरियल संक्रमण के साथ एक समस्या यह है कि निमोनिया, इ कोलाइ और गोनोरिया जैसी बीमारियों से निपटने में हम सक्षम हो चुके थे, लेकिन अब इस बीमारी के बैक्टीरिया एंटीबायोटिक्स के खिलाफ तेजी से प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रहे हैं. यदि इन्हें खत्म करने के लिए हम बेहद तेजी से नयी दवाएं विकसित नहीं कर पाये, तो हमारे लिए इनसे अपना बचाव कर पाना मुश्किल हो जायेगा. ऑरेगोन स्टेट यूनिवर्सिटी के संबंधित विशेषज्ञ और इस शोधकार्य के प्रमुख शोधकर्ता ब्रुस जेलर का कहना है कि हम अपनी ज्यादातर प्रमुख एंटीबायोटिक्स की क्षमताओं को खो रहे हैं. इस बारे में उन्होंने चिंता जतायी है कि इन बैक्टीरिया ने अब इन दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर ली है. इनसे निपटने के लिए हमें जल्द-से-जल्द नयी दवाओं को विकसित करना होगा.
न्यू डेल्ही मेटालो-बीटा-लैक्टामस (एनडीएम-1)
वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि एक खास प्रकार के एंजाइम के जरिये बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक के खिलाफ जिस तरीके से प्रतिरोधी क्षमता पैदा होती है, जो एक खास जीन के माध्यम से कार्य करता है. इस एंजाइम को न्यू डेल्ही मेटालो-बीटा-लैक्टामस (एनडीएम-1) के नाम से जाना जाता है. इससे इसलिए चिंता पैदा हुई है, क्योंकि इससे बैक्टीरिया को कार्बोपीनेम्स जैसे पेनिसिलिन्स एंटीबायोटिक्स से जूझने में ज्यादा मुश्किलें नहीं आती हैं. ब्रुस जेलर कहते हैं कि एनडीएम-1 कार्बापीनेम्स का खात्मा कर देते हैं. इससे निपटने के लिए डॉक्टरों ने कोलिस्टिन नामक एंटीबायोटिक को विकसित किया, लेकिन दशकों से इन दवाओं का इस्तेमाल नहीं किया गया है, क्योंकि ये किडनी के लिए घातक पाये गये हैं.
पीपीएमओ से होगा बैक्टीरिया का खात्मा
जेलर और उनकी टीम ने एक ऐसे अणु का निर्माण किया है, जो एनडीएम-1 पर हमला करेगा और बैक्टीरिया के भीतर पैदा होनेवाली एंटीबायोटिक प्रतिरोधी क्षमता को खत्म करेगा. इससे यह उम्मीद जगी है कि बैक्टीरिया से निपटने के लिए एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल जारी रहेगा. खास प्रकार का यह अणु पीपीएमओ यानी पेप्टाइड-कांजुगेटेड फासफोरोडाइमाइडेट मोरफोलिनो ओलिगोमर है. पूर्व में सुपरबग्स से निपटने के लिए शोधकर्ता पीपीएमओ का इस्तेमाल कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने केवल खास किस्म के बैक्टीरिया पर ही कार्य किया था.

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