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स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित बड़ी आबादी के लिए हेल्थकेयर तकनीकें जगा रहीं उम्मीदें

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भारत में सभी नागरिकों को संतोषप्रद स्वास्थ्य सुविधाएं अब तक नहीं मुहैया करायी जा सकी है. इस दिशा में अनेक चुनौतियां बरकरार हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि डिजिटल टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से न केवल इन चुनौतियों से निपटा जा सकता है, बल्कि इस दिशा में मौजूदा गैप को […]

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भारत में सभी नागरिकों को संतोषप्रद स्वास्थ्य सुविधाएं अब तक नहीं मुहैया करायी जा सकी है. इस दिशा में अनेक चुनौतियां बरकरार हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि डिजिटल टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से न केवल इन चुनौतियों से निपटा जा सकता है, बल्कि इस दिशा में मौजूदा गैप को भी कम किया जा सकता है.
देशभर में अनेक हेल्थटेक प्लेटफॉर्म तैयार हो चुके हैं, जिनके जरिये धीरे-धीरे ही सही, लेकिन उपभोक्ताओं में जागरुकता फैल रही है और इस क्षेत्र का विस्तार हो रहा है. भारत में हेल्थटेक के विस्तार की राह में क्या हैं बाधाएं और किस तरह निपटा जा सकता है समेत इससे जुड़े अनेक अन्य पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज …
किसी इनसान को अपनी सेहत की दशा की जांच कराने के लिए डॉक्टर के पास जाना होता है. लेकिन, स्मार्टफोन के जरिये अब यह काम ज्यादा आसान हो गया है. ग्लूकोमीटर्स और डेबिट कार्ड के आकार वाले शरीर में पहने जा सकने योग्य डिवाइसों के माध्यम से कार्डियक जैसी गंभीर बीमारियों तक को ट्रैक किया जा सकता है. यह इतना आसान है कि सामान्य इनसान भी इसके जरिये अपनी सेहत की जांच कर सकता है.
इस सेक्टर की तसवीर संवारने के लिए अनेक संगठन और स्टार्टअप्स जुटे हुए हैं. ‘इंक 42’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हेल्थटेक सेक्टर में अक्तूबर, 2016 तक 90 स्टार्टअप्स ने 129.85 मिलियन डॉलर का निवेश हुआ है. यह तथ्य इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र में तेजी से ग्रोथ होगा, जिसका असर आम लोगों तक देखने को मिल सकता है. विशेषज्ञों का मानना है कि ई-कॉमर्स ने जिस तरह से कारोबार की दिशा और दशा को बदल दिया, ठीक उसी तरह से हेल्थटेक के इस्तेमाल से इस सेक्टर में भी बदलाव आ सकता है. हालांकि, यह काम इतना आसान नहीं है, लेकिन विविध संगठन और स्टार्टअप्स देशभर में जिस तरह से हेल्थटेक को बढ़ावा देने में जुटे हैं, उससे यह काम उतना मुश्किल भी नहीं दिख रहा है.
विश्वसनीयता कायम रखना सबसे जरूरी फैक्टर
फिनटेक की तरह हेल्थकेयर एक ऐसा सेक्टर है, जहां संभवत: इसे प्रभावी बनाने के लिए भरोसा सबसे बड़ा फैक्टर है. सेहत का मसला बेहद व्यक्तिगत और निजी होने के अलावा संवेदनशील होता है, और सभी हेल्थटेक स्टार्टअप्स को यह तय करना होगा कि किसी भी मरीज की निजता का हनन नहीं हो सके. मोबाइल आधारित हेल्थकेयर सूचना मुहैया करानेवाली कंपनी ‘लेब्रेट’ के फाउंडर और सीइओ सौरभ अरोड़ा का कहना है कि सभी प्रकार के ऑनलाइन हेल्थ प्लेटफॉर्म को यह सुनिश्चित करना होगा कि मरीजों के भरोसे को बरकरार रखा जाये. मरीजों को स्वाभाविक तौर पर यह आशंका रहती है कि उनके आंकड़े कहीं लीक तो नहीं हो जायेंगे. लिहाजा, देखा गया है कि पहली बार ऑनलाइन प्लेटफार्म का इस्तेमाल करनेवाले मरीजों को इस पर सीमित भरोसा होता है.
तकनीक से ज्यादा मरीजों को डॉक्टर पर है भरोसा
हेल्थकेयर प्लेटफॉर्म की कामयाबी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है कि उसे किसी डॉक्टर का संरक्षण जरूर मिलना चाहिए, जो अपने मरीजों को सटीक तरीके से बेहतर सलाह दे सकता है.
इसे आसान बनाने के लिए मौजूदा समय की यही दरकारहै. लेकिन, देखा गया है कि हेल्थटेक प्लेटफार्म कई बार इस तथ्य की अनदेखी करते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि इस क्षेत्र में आनेवाले उद्यमी यदि कुछ खास बातों का ख्याल रखें, तो निश्चित रूप से उन्हें कामयाबी मिल सकती है.
पहला, डॉक्टर की सहभागिता को सुनिश्चित करना. दूसरा, अन्य उद्योगों की तरह सर्विस या प्रोडक्ट की मार्केटिंग करना और तीसरा उपभोक्ताओं के साथ भरोसा बनाये रखने का अभाव. चूंकि उपभोक्ता आधारित विविध अध्ययनों में यह बात सामने आयी है कि किसी भी प्रकार की तकनीक के मुकाबले डॉक्टर की सलाह पर मरीज को सबसे ज्यादा भरोसा होता है और मरीज भी हेल्थ-टेक को उसी दशा में अपनाता है, जब डॉक्टर इसके लिए सलाह दे. लिहाजा समूचा हेल्थकेयर सिस्टम उसी के इर्द-गिर्द घूमता है.
हेल्थ टेक की राह में बड़ी चुनौतियां
ज्यादा लागत है बड़ी बाधा
स्वास्थ्य संबंधी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल भले ही तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक इसके पहुंचने की राह में लागत अब भी एक बड़ी बाधा है. पोर्टिया मेडिकल की एमडी और सीइओ मीना गणेश ‘इंक 42’ की एक रिपोर्ट में कहती हैं, इनोवेशन पर अब भी अमेरिका का प्रभुत्व कायम है और चूंकि ज्यादातर चिकित्सा उपकरण विदेशों में ही बनाये जाते हैं, लिहाजा भारत तक आते-आते इनकी लागत ज्यादा हो जाती है.
ऐसे में भारतीय बाजार के माहौल के मुताबिक कीमतों को एडजस्ट करना अब भी एक बड़ी चुनौती है. भारत जैसे देश में मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर की व्यापक जरूरत है. इसके अलावा, ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में हेल्थकेयर सेवाओं की माॅनीटरिंग की राह में नियमित रूप से बिजली आपूर्ति नहीं होना भी एक बड़ी चुनौती है.
सरकार की न्यूनतम हिस्सेदारी
नयी हेल्थकेयर तकनीकों के बारे में लोगों में कम जागरुकता होने का एक बड़ा कारण इस संबंध में सरकार की इस ओर उदासीनता भी देखने में आ रही है. कई बार तो देखा गया है कि डॉक्टर भी इससे अनभिज्ञ हैं.
मेडजिनोम के इंडिया सीइओ गिरीश मेहता का कहना है कि भारत में अनेक मेडिकल कॉलेज में अध्यापन के दौरान हेल्थटेक में इनोवेशन के लेटेस्ट तरीकों को शामिल नहीं किया जाता और न ही छात्रों को इस बारे में कुछ सिखाया जाता है. ज्यादातर मेडिकल कॉलेज में पाठ्यक्रम अपडेट नहीं हैं और कई में तो एक से डेढ़ दशक पुराने हैं. ऐसे मेडिकल कॉलेज से पढ़ कर निकले डॉक्टरों को कार्यक्षेत्र में आने पर इन तकनीकों के बारे में सीखना पड़ता है. इन डॉक्टरों के लिए यह ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाता है कि सेवा के दौरान वे विभिन्न तकनीकों के बारे में नये सिरे से जानकारी हासिल करें. लिहाजा इस क्षेत्र में सरकार को ज्यादा निवेश करना चाहिए.
नियामक की गड़बड़ी
इस क्षेत्र में नियामकों के विचारों और नीतियों में समानता का अभाव है. जहां कुछ विशेषज्ञों और संबंधित विधा के कारोबारियों का मानना है कि इस क्षेत्र में नियामक की जरूरत है, वहीं कुछ का यह मानना है कि नियामकों का नियंत्रण कम-से-कम होना चाहिए. गिरीश मेहता का कहना है कि हेल्थकेयर को पूरी तरह से रेगुलेट नहीं किया जाना चाहिए.
वे कहते हैं कि भारत में हेल्थकेयर का नियामक बेहद खराब तरीके से किया जाता है. हॉस्पीटल हो या डायग्नोस्टिक सेंटर, नियामकों के अभाव में बिना किसी खास जांच प्रक्रिया के यहां कोई कुछ भी शुरू कर सकता है. न तो इनके लिए बेसिक शिक्षा हासिल करने की जरूरत है और न ही किसी लाइसेंस की. इस संबंध में यदि विकसित देशों से भारत की तुलना करेंगे, तो बहुत सी चीजों में व्यापक फर्क है.
– महज एक फीसदी से भी कम हेल्थकेयर सेवा प्रदाता ही अधिकृत रूप से मान्यता प्राप्त हैं भारत में.
– देश की आबादी की उम्र बढ़ती जा रही है और कुल आबादी में इनकी प्रतिशतता बढ़ रही है. संभावना व्यक्त की जा रही है कि वर्ष 2025 तक देश में बूढ़े लोगों की संख्या 20 फीसदी तक पहुंच जायेगी और इनकी आबादी 30 करोड़ हो जायेगी. आशंका जतायी जा रही है कि इनमें से 20 करोड़ बूढ़े एनसीडीज यानी नॉन-कम्युनिकेबल डिजीज से ग्रसित होंगे.
– देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है, लेकिन इन इलाकों में अस्पतालों, डॉक्टरों और मरीज के लिए बिस्तरों की संख्या एक-तिहाई से भी कम है.
तकनीक से ही निकलेगा समाधान
रोजमर्रा की जिंदगी में आप इस तथ्य से भलीभांति परिचित हो रहे होंगे कि तकनीक ने बाजार के स्वरूप को बदल दिया है. कई चीजों की खरीदारी के लिए अब आपको बाजार जाना जरूरी नहीं है, बल्कि चीजें खुद चल कर आपके पास तक आती हैं. तकनीक ने आपको घर बैठे मनचाही चीजों को चुनने और उसकी खरीदी के आदेश की सुविधा मुहैया करा दी है.
हालांकि, भारत जैसे देश में, जहां 70 फीसदी से ज्यादा आबादी करीब दो डॉलर (लगभग 135 रुपये) से कम पर जीवन गुजर-बसर कर रही हो, उन्हें इलाज की सुविधा मुहैया करा पाना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है.
ग्रामीण और कसबाई इलाकों में आज भी लोगों को स्वास्थ्य देखभाल की सुविधाएं हासिल करने में बड़ी दिक्कत होती है. ऐसे में हेल्थकेयर की नयी तकनीकों के इस्तेमाल से इनकी राह आसान हो सकती है. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में हेल्थकेयर सेक्टर में नियामक संबंधी बदलाव लाने पर कम डॉक्टरों, कम बुनियादी सुविधाअों और संसाधनों के बावजूद तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल करने पर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है.

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