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अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद बहुत कम

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बीते कुछ सालों से जारी वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता के इस वर्ष भी बरकरार रहने के आसार हैं. विभिन्न पश्चिमी देशों में मुक्त व्यापार और आर्थिक विषमता पर ध्यान देने की जगह देशी अर्थव्यवस्था को संरक्षित करने की नीतियों के कारण भी बेहतरी की उम्मीद कम है. इसी के साथ दक्षिणपंथी राजनीति का तीव्र उभार […]

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बीते कुछ सालों से जारी वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता के इस वर्ष भी बरकरार रहने के आसार हैं. विभिन्न पश्चिमी देशों में मुक्त व्यापार और आर्थिक विषमता पर ध्यान देने की जगह देशी अर्थव्यवस्था को संरक्षित करने की नीतियों के कारण भी बेहतरी की उम्मीद कम है.
इसी के साथ दक्षिणपंथी राजनीति का तीव्र उभार भी नकारात्मक भूमिका निभा रहा है. ट्रंप प्रशासन की नीतियां, ब्रेक्जिट लागू होने की प्रक्रिया की शुरुआत और बदलते अंतरराष्ट्रीय राजनीति की छत्र-छाया में वैश्विक व्यापार और वित्त की मौजूदा हालत में सुधार के संकेत नहीं हैं. इस मुद्दे पर एक आकलन आज की विशेष प्रस्तुति में…
अभिजीत मुखोपाध्याय
अर्थशास्त्री
वर्ष 2015 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 3.1 फीसदी की सामान्य वृद्धि के बाद 2016 की शुरुआत एक आशावाद के साथ हुई थी. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने आकलन किया था कि वर्ष 2016 में 3.4 और 2017 में 3.6 फीसदी की दर से बढ़ोतरी होगी. लेकिन, पिछले साल के मध्य तक आर्थिक वृद्धि दर महज 2.9 फीसदी ही रही. इसके बाद मुद्रा कोष ने अपने पूर्ववर्ती आकलन में संशोधन कर विकास दर को 3.1 फीसदी तक कर दिया था. हालांकि, वास्तविक आंकड़े इससे कम रहने की आशंका है.
अपेक्षा से नीचे रहे आर्थिक परिणामों के लिए अन्य कारणों के साथ ब्रेक्जिट के निराशावादी प्रभाव को भी दोष दिया जा रहा है. ब्रिटेन ने यूरोप के मुक्त व्यापार क्षेत्र से बाहर आने के पक्ष में मतदान किया था. मतदान से पहले ब्रेक्जिट के समर्थकों ने एक आक्रामक अभियान चला कर लोगों को समझाया था कि ऐसा होने पर आंतरिक रोजगार सृजन तथा स्वास्थ्य सेवाओं जैसे सामाजिक कल्याण के उपायों के लिए समुचित मात्रा में वित्तीय पूंजी मुक्त होगी. यह अलग बात है कि जीत के बाद ब्रेक्जिट के नेता इन दावों की पुष्टि नहीं कर सके. ब्रेक्जिट के बाद ऐसी ही भावनाएं अन्य यूरोपीय देशों में बलवती हुईं और इसी के साथ राजनीतिक दक्षिणपंथ का उभार भी हुआ.
ट्रंप के आने से आर्थिक गतिविधियों में आयी नरमी
वर्ष 2016 के आखिर में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में ट्रंप की जीत ने पूरी दुनिया की आर्थिक गतिविधियों को मंद कर दिया. हालांकि, उनकी आर्थिक और अन्य नीतियों का खुलासा होना बाकी है, पर आम तौर पर यह माना जा रहा है कि अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी होगी. ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) जैसे मुक्त व्यापार व्यवस्थाओं को ट्रंप बाधित करेंगे, अमेरिकी सरकार संरक्षणवाद को प्रोत्साहित करेगी, खासकर मैक्सिको और चीन के संदर्भ में, जिससे नाफ्टा जैसे ठोस मौजूदा व्यापारिक व्यवस्थाएं चरमरा सकती हैं. अमेरिकी कंपनियों को या तो मनाया जायेगा या फिर उनके ऊपर दबाव बनाया जायेगा कि वे विदेशों में फैक्टरियां न लगायें और रोजगार सृजित न करें, आदि.
मध्य-पूर्व व अफ्रीकी देशों के आंतरिक राजनीतिक उतार-चढ़ाव ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अलग-अलग विचारधारावाले देशों को इस उथल-पुथल में शामिल कर लिया है. जहां हिंसक संघर्ष कुछ देशों, विशेष रूप से हथियारों का कारोबार करनेवाले को फायदा पहुंचाता है, वहीं ऐसे क्षेत्रीय अस्थिरताओं से पूरी दुनिया की व्यापारिक और आर्थिक गतिविधियां नकारात्मक रूप से प्रभावित होती हैं.
वस्तुओं और सेवाओं के वैश्विक व्यापार का असर
जिस महत्वपूर्ण तथ्य को सामान्यतः नजरअंदाज कर दिया जाता है, वह यह है कि वस्तुओं और सेवाओं के विश्व व्यापार में वर्ष 2012 से अब तक मात्र तीन फीसदी से कुछ अधिक की सालाना वृद्धि हुई है, और यह पिछले तीन दशकों के विस्तार के औसत के आधे से भी कम है. यदि हम व्यापार में वृद्धि और वैश्विक आर्थिक गतिविधियों के बीच के ऐतिहासिक संबंध को देखें, तो हाल के वर्षों में व्यापारिक वृद्धि में मंदी उल्लेखनीय रही है. वर्ष 1985 और 2007 के बीच वास्तविक विश्व व्यापार वैश्विक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) से औसतन दोगुना बढ़ा था, जबकि पिछले चार सालों में यह शायद ही बराबरी कर सका है. बीते पांच दशकों में इतना लंबा मंदी का दौर कभी नहीं रहा है.
यह सब 2008 के वित्तीय संकट के बाद शुरू हुआ है, और आर्थिक रूप से शक्तिशाली देशों में यह खास प्रवृत्ति रही है कि वे ऐसी स्थिति में अपने भीतर केंद्रित हो जाते हैं और व्यापारिक संरक्षणवाद की नीति अपनाने लगते हैं. अगर हम इतिहास में पीछे जायें, तो वहां तथाकथित वैश्वीकरण के कई चरण मिलेंगे, जो मुख्य रूप से तुलनात्मक स्तर पर सीमाओं के परे वस्तुओं और पूंजी के मुक्त आवागमन से संचालित होते रहे हैं.
इसके बाद भौगोलिक सीमाओं को बंद करने की प्रवृत्ति दिखती है, जिसका उद्देश्य देशों के अपने आर्थिक और व्यापारिक हितों की रक्षा करना बताया जाता है. इसी तरह के संरक्षणवाद की परिणति दो महायुद्धों में हुई थी.
मुक्त व्यापार को झटका!
आज की दुनिया भयावह रूप से उन युद्धों के हिंसक दिनों से मेल खाती है. एक-एक कर विभिन्न देशों में आर्थिक संरक्षणवाद को समर्पित दक्षिणपंथी पार्टियां चुनाव जीत रही हैं या अपना प्रभाव बढ़ा रही हैं. इसी के साथ कथित ‘मुक्त व्यापार’ और ‘वैश्वीकरण’ के दौर को 2016 में गंभीर झटका लगा है.
और इन रुझानों का परिणाम व्यापक आर्थिक गतिहीनता के रूप में सामने आया है, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है. जिस प्रवृत्ति को आम तौर पर ‘वैश्वीकरण’ के नाम से जाना जाता है, वह वास्तव में मुक्त बाजार की ओर उन्मुख नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश ऐसे ‘वैश्वीकरण’ के मुख्य केंद्र हुआ करते थे, और जब ये केंद्र 2008 की वित्तीय मंदी के बाद संकट में आये, तो पूरी प्रक्रिया गंभीर रूप से अवरुद्ध हुई और उस पर सवाल उठने लगे. इसी के साथ अन्य विकसित, उभरते हुए और विकासशील देशों में वैश्वीकरण के साथ-साथ तेजी से विषमता भी बढ़ती गयी.
इन विषमताओं ने पूरी दुनिया में असंतोष की लहर पैदा की है, क्योंकि संपत्ति और आय कुछ लोगों के पास केंद्रित होने लगी है. अमेरिकी तौर-तरीके की ऐसी मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था अकेली नहीं आयी, बल्कि अपने साथ पश्चिमी (खासकर अमेरिकी) लोकतंत्र को भी लेकर आयी. ‘उदारवादी अर्थव्यवस्था’ अंतर्निहित तौर पर, लेकिन बहुत मजबूती से मुक्त व्यापार अर्थव्यवस्था और उदारवादी लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करती है. 2008 के बाद विषमता में बढ़ोतरी होने तथा आर्थिक मॉडल की सफलता बाधित होने से अधिकतर देशों में समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था में विभाजन और विवाद लगातार बढ़ रहे हैं.
उदारवाद की असफलता!
यही कारण है कि कुछ विद्वान दुनियाभर के मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल को सामान्यतः ‘उदारवाद की असफलता’ की संज्ञा दे रहे हैं. ‘उदार’ आर्थिक मॉडल ने ‘उदार राजनीति’ के साथ लंबे समय तक बढ़ती आर्थिक विषमता को नजरअंदाज किया है, जिससे बड़ी आबादी के बीच स्वाभाविक रूप से असंतोष को बढ़ाया है. अब जब दुनिया एक आर्थिक मंदी से गुजर रही है, तो यह ‘विषम’ और ‘वंचित’ आबादी हर देश- चाहे अमेरिका हो, ब्रिटेन हो, जर्मनी हो या फिर कोई अन्य देश- में आश्चर्यजनक रूप से प्रतिक्रिया दे रही है.
यह ‘उदारवादी आर्थिक मॉडल’ बुनियादी रूप से वित्तीय पूंजी पर निर्भर है, और इस कारण वास्तविक अर्थव्यवस्था या उसका वित्तीय हिस्सा पूरी तरह अवहेलना का शिकार हो जाता है. विषमता में कमी हमेशा ही किसी तरह के पुनर्वितरण से की जाती है, विशेषकर वित्तीय या सामाजिक कल्याण के उपायों से. सरल शब्दों में कहें, तो वंचितों को कल्याण योजनाओं या किसी अन्य सार्वजनिक निवेश से पैदा किये गये रोजगारों के जरिये आय और क्रय शक्ति मुहैया कराना होगा. यदि ऐसा नहीं हुआ, तो 2017 में भी वैश्विक अर्थव्यवस्था उथल-पुथल और मंदी के भंवरजाल में फंसी रहेगी. (अनुवाद : अरविंद कुमार यादव)

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