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नर से नारायण बनने का बोध

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बल्देव भाई शर्मा श्री मदभागवत में ऋषि दत्तात्रेय की कथा बड़ी रोचक और प्रेरक है. ऋषि अत्रि ने भगवान विष्णु से उन्हें पुत्र रूप में पाने की इच्छा व्यक्त की तो विष्णु ने उनकी मनोकामना पूर्ण कर दिया. भगवान का दिया वर प्रतिफलित हुआ और अत्रि ऋषि की पत्नी परमसती अनुसूइया की गोद में बालक […]

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बल्देव भाई शर्मा
श्री मदभागवत में ऋषि दत्तात्रेय की कथा बड़ी रोचक और प्रेरक है. ऋषि अत्रि ने भगवान विष्णु से उन्हें पुत्र रूप में पाने की इच्छा व्यक्त की तो विष्णु ने उनकी मनोकामना पूर्ण कर दिया. भगवान का दिया वर प्रतिफलित हुआ और अत्रि ऋषि की पत्नी परमसती अनुसूइया की गोद में बालक खेलने लगा. विष्णु ने वर के रूप में दिया यानी ‘दत्त’ और अत्रि के पुत्र के रूप में आत्रेय, तो बालक का नाम रखा गया दत्तात्रेय. यह बालक ब्रह्मा, विष्णु, महेश का समन्वित रूप लेकर प्रकट हुआ, इसलिए दत्तात्रेय के तीन सिर दरसाये जाते हैं.
वास्तव में यह वैदिक चिंतन की समन्वित धारा है जिसमें सबके साथ सामंजस्य रखना यानी ‘सर्वेंषां अविरोधन’ का भाव बोध है. दत्तात्रेय इसी समन्वय के प्रतीक हैं यानी सामाजिक समरसता के पोषक. गुरुवाणी में उल्लेख है ‘मानुस की जात सबै एकै पहिचानबो.’ जात-पात, मजहब, ऊंच-नीच, धनी-गरीब के भेद से कैसे सुखी समाज बन सकता है. यह भेद मनुष्यता का लक्षण ही नहीं है. ऋषि दत्तात्रेय ने मानवीय चेतना के विस्तार के लिए यह संदेश भी दिया कि गुण कहीं से भी प्राप्त हों, उन्हें बेहिचक ग्रहण करो.
उन्होंने खुद अपने 24 गुरु बनाये, जिनमें पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि जैसे प्रकृति के तत्व हैं, तो सांप, मकड़ी, हिरण, कुत्ता, हाथी, कबूतर जैसे पशु-पक्षी व जीव-जंतु भी और बालक, वेश्या, कन्या जैसे मानवीय रूप भी. यानी उन्होंने प्रकृति, मनुष्य और जीव-जंतु के बीच भी समन्वय का संदेश दिया. दत्तात्रेय वैष्णव, शैव व नाथ संप्रदाय में समान भाव से पूजे जाते हैं.
अभी पिछले सप्ताह ही मार्गशीर्ष (अगहन) पूर्णिमा को उनकी जयंती मनायी गयी. मानवीय चेतना के जिस एकात्म भाव का संदेश दत्तात्रेय ने दिया है, उसे श्रीकृष्ण ने गीता में व्यक्त करते हुए कहा है-‘इंद्रियानि पराण्याहु इंद्रमेभ्य: परं मन:/मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे पर तस्तु स:.’ यानी इंद्रियों के परे मन है, मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मत्व है. मन, बुद्धि, शरीर से तो सभी प्राणी अलग-अलग हैं लेकिन यह आत्मा जो परमात्मा का अंश है वही सबमें मानवीय चेतना की अनुभूति कराती है.
यह आत्मत्व ही सबको परस्पर जोड़ता है फिर कोई भेदभाव नहीं रहता. इसी को शंकराचार्य ने अद्वैत कहा है और संत ने तो श्रीरामचरितमानस में स्पष्ट लिख दिया-ईश्वर अंस जीव अविनासी.’यह ज्ञान तो हिंदू धर्म ग्रंथों में भरा पड़ा है, लेकिन जब तक मन में नहीं बैठेगा तो भला कैसे होगा. पढ़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण है सीखना और सीखने का मतलब है ज्ञान का आचरण करना. ऋषि दत्तात्रेय ने सीखने की प्रवृत्ति का ही संदेश देने के लिए 24 गुरु बनाये. जिससे जो भी अच्छा सीखने को मिल रहा है, वह हमारा गुरु है. वेद में इसी का संदेश देते हुए उल्लेख है-‘आ नो मद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:’ यानी दुनिया में जो कुछ भी अच्छा है, भलाई करने वाला है उसे सीखो, ग्रहण करो. यही नर से नारायण बनने की प्रक्रिया है. इस दौर में खूब भौतिक तरक्की हुई है. तमाम तरह के सुख-साधन उपलब्ध हो गये हैं. तकनीकी विकास ने पूरी दुनिया को मानो मुट्ठी में समेट दिया है.
आदमी ‘मोर एंड मोर’ का मंत्र जपता रहता है यानी कुछ भी कम नहीं चाहिए, ज्यादा से ज्यादा चाहिए. फिर चाहे इसके लिए दूसरों का सुख ही क्यों न हड़पना पड़े. इस दुनियाबी तरक्की के दौर में आत्म तत्व यानी मनुष्यता कहीं पीछे छूटती जा रही है. संत कबीर ने इसका निरूपण करते हुए बहुत पहले लिख दिया था-‘सुखिया सब संसार है खाबै और सोबै/दुखिया दास कबीर है जागो और रोबै.’ आज अपने सुख में मगन चैन से सोने वाले तो बहुत हैं लेकिन दूसरों के दुख से दुखी, उसकी चिंता में जिन्हें नींद भी न आये और दूसरों की पीड़ा जिनको आंखों से आंसू बन कर बहे, ऐसे कितने हैं? कबीर ने यह मनुष्यता का पैमाना बना दिया. जो इस कसौटी पर खरा उतरे वही मनुष्य है. व्यक्ति और मनुष्य का यही फर्क है, व्यक्ति अपने लिए जीता है और मनुष्य सबके लिए.
हिंदू चिंतन में नर से नारायण बनने की यात्रा के जो पड़ाव बताये गये हैं, उनकी व्याख्या बड़ी सार्थक है. 1. नर, 2. नर पशु, 3. नर पिशाच 4. नरोत्तम, 5. नारायण. नर माने व्यक्ति के सामने जीवन के दो मार्ग हैं जो उसे या तो नर पिशाच बनने की ओर ले जाते हैं या नारायण बनने की ओर. अपने सुख में डूबा व्यक्ति (नर) दूसरे के दुखों से अलिप्त रहता है यानी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई दुखी रहे या सुखी रहे बस वह सुखी रहे लेकिन वह जब दूसरों के दुख से आनंदित होता है तो वह नर पशु है, जब वह अपने सुख के लिए दूसरों को दुख देता है तो नर पिशाच बन जाता है. इसके विपरीत जब वह दूसरों के दुख से न केवल दुखी होता है बल्कि दूसरों के दुख को दूर करने के लिए तत्पर होता है और दूसरों के दुख को दूर कर आनंदित होता है तब वह नरोत्तम बन जाता है. यह नरोत्तम होना ही नारायण बनने की ओर चलने की पहली सीढ़ी है.
उपनिषद में संदेश है ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ सबमें स्वयं को ही देखो. शास्त्रों में राजा रतिदेव की कथा आती है. रतिदेव की तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने वर मांगने को कहा तो रतिदेव ने राज्य, स्वर्ग या मोक्ष की कामना नहीं की बल्कि वरदान मांगा ‘कामये दुखतप्रानांप्राणिनां आर्तनाशनम’ यानी मेरी इच्छा है कि मैं दु:ख से पीड़ित लोगों की पीड़ा को दूर करने का सामर्थ्य पा सकूं. यह हिंदू चिंतन में जीवन जीने का महामंत्र है जो हमें दूसरों के लिए जीना सिखाता है.
यही अध्यात्म है. इसके विपरीत पाश्चत्य चिंतन नितांत भौतिकता पर आधारित है. वहां कहा गया ‘मैटर इस सुप्रीम’. आज अमेरिका अपनी आबादी के अनुपात में कई गुणा ज्यादा दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों को दोहन करता है. इस शोषण से प्रकृति कराह रही है, जबकि वह पर्यावरण संरक्षण या कार्बन उत्सर्जन को रोकने की जिम्मेवारी भारत जैसे कई दूसरे देशों पर डालने की जुगत में रहता है. ज्यादा से ज्यादा उपभोग के लिए वहां हर आदमी उधार की जिंदगी जी रहा है, जिसने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को संकट में डाल दिया है. अमेरिका का यह विकास मॉडल क्या मानव हित में है, यह सवाल अब खुद अमेरिकी समाज विज्ञानी उठाने लगे हैं.
रंगभेद के अाधार पर लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा तो अमेरिकी समाज रचना का कलंकित अध्याय है. भारतीय चिंतन में ‘शोषण नहीं, पोषण’ का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ. प्रकृति हो या मनुष्य, सबके संरक्षण, पोषण व उन्नयन की दृष्टि विकसित हुई. यह विडंबना ही है कि पराधीनता काल में कभी जबरन, कभी षड्यंत्रपूर्वक हमारे चिंतन व सामाजिक ताने-बाने को विकृत किया गया परिणामस्वरूप भेदभाव की कई सामाजिक बुराइयां हमारे यहां पैदा होती चली गयी. स्वतंत्रता के बाद उनके परिष्कार का जो उपाय होना चाहिए था, वह तो हुआ ही नहीं उल्टे औपनिवेशिक मानसिकता के चलते हमारे शास्त्रों, जीवन मूल्यों व चिंतन परंपरा को रुढ़िवाद, पोंगापंथ व हेय बनाकर प्रस्तुत किया गया. रुढ़ि और परंपरा में बहुत फर्क है. रूढ़ि तो जड़ होती है, नुकसानदेह होने पर भी कभी उसमें देश काल के अनुसार बदलाव नहीं किया जाता.
वह मानवता के लिए एक बेड़ी की तरह है. जबकि परंपरा तो सतत विकासशील प्रक्रिया है, समयानुसार उसमें नवाचारी सोच का विस्तार होता रहता है, जिसे अपग्रेडेशन कहते हैं. हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण, ग्रंथ, संहिताएं अन्य शास्त्र ज्ञान और सोच का विस्तारित रूप है. इसलिए आज के दौर में भी भारतीय चिंतन सटीक है और सामयिक भी. तभी तो अर्नाल्ड टायनबी अपनी पुस्तक ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ में लिखते हैं – ‘इन इंडिया इट इज पॉसिबल फॉर द ह्यूमन रेस टू ग्रो टुगेदर . इन द सिंगल फैमिली एंड इन द एटॉमिक एज दिस इज द ओनली आल्टरनेटिव टू प्रिवेंट डेस्ट्रॉइंग आवरसेल्व्स.’
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