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बेसहारा लोगों के लिए देवदूत जैसे हैं सरबजीत

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बेमिसाल : कैंसर रोगियों को मुफ्त भोजन देते हैं और गरीबों के शवों को श्मशान पहुंचाते हैं सरबजीत सिंह प्रेरक और दिल को छू लेने वाली यह कहानी ‘वेला बॉबी’ की है, जो कैंसर के गरीब मरीजों के लिए फ्री कैंटीन चलाते हैं. अंतिम संस्कार के लिए मुफ्त वाहन सेवा देते हैं और ऐसे ही […]

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बेमिसाल : कैंसर रोगियों को मुफ्त भोजन देते हैं और गरीबों के शवों को श्मशान पहुंचाते हैं
सरबजीत सिंह
प्रेरक और दिल को छू लेने वाली यह कहानी ‘वेला बॉबी’ की है, जो कैंसर के गरीब मरीजों के लिए फ्री कैंटीन चलाते हैं. अंतिम संस्कार के लिए मुफ्त वाहन सेवा देते हैं और ऐसे ही कई अन्य सामाजिक काम भी करते हैं. ‌वह मानते हैं कि ईश्वर ने उन्हें वंचितों की सेवा के लिए भेेजा है. पढ़िए एक रिपोर्ट.
शिमला में लोग उन्हें ‘वेला बॉबी’ के नाम से जानते हैं. असली नाम सरबजीत सिंह हैै. पंजाबी भाषा में ‘वेला’ उस इनसान को कहते हैं, जो कुछ नहीं करता है. सरबजीत को ‘वेला’ पुकारे जाने पर बुरा नहीं महसूस करते हैं. उनकी मां भी उन्हें ‘वेला’ ही पुकारती हैं. सरबजीत शिमला में वंचितों और बेसहारा लोगों के लिए किसी देवदूत से कम नहीं हैं. वह कैंसर रोगियों के लिए एक भोजनालय चलाते हैं, जहां मुफ्त भोजन मिलता है. श्मशान तक गरीबों का शव ढोने के लिए एक गाड़ी चलाते हैं. शिमला के अस्पतालों की मदद से रक्तदान शिविर भी लगाते हैं. पिछले 10 सालों से रक्तदान शिविर लगाते आ रहे हैं और पिछले दो सालों से फ्री कैंटीन चला रहे हैं, जहां मरीजों के साथ मरीजों के परिजनों को भी मुफ्त भोजन कराया जाता है.
‘वेला’ पुकारे जाने के बारे में पूछे जाने पर सरबजीत कहते हैं- “ मैं ईश्वर का शुक्रगुजार हूं कि उसने मुझेे ‘वेेला’ बनाया, ताकि मैं लोगों की सेवा कर सकूं. लोगों की नि:स्वार्थ सेवा करना ही मेरी जिंदगी का मिशन है.” कोई 12 वर्ष पहले की बात है. सरजबीत स्थानीय गुरुद्वारे में स्वयंसेवक का काम किया करते थे. वहां रक्तदान शिविर आयोजित करने में मदद किया करते थे.
कुछ समय बाद गुरुद्वारे ने शिविर आयोजित करना छोड़ दिया. तब, सरबजीत ने अपनी पहल पर ऐसे शिविर लगाना शुरू कर दिया. राजधानी होने के कारण बड़ी संख्या में लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराने शिमला आते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि शिमला के बड़े अस्पतालों- इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज और कमला नेहरू हॉस्पिटल में हमेशा खून की उपलब्धता कम रहती है. यही वो वजह थी, जिसने सरबजीत को प्रेरित किया कि वह रक्तदान शिविर लगाना जारी रखें.
वह पिछले 10 सालों से शिमला में हर रविवार को रक्तदान शिविर लगाते हैं. शिमला के अस्पतालों के लिए अब तक 20,000 यूनिट रक्त संग्रहित किया है. राज्य के सभी ब्लड बैंकों के पास उनके फोन नंबर हैं. सबको मालूम है कि आपात स्थिति में सरबजीत ही वह शख्स हैं, जो हरसंभव मदद कर सकते हैं. पिछले आठ सालों से वह एक वाहन सेवा भी चला रहे हैं, जो सातों दिन 24 घंटे चलता है.
इस सेवा के अंतर्गत गरीबों को शव के अंतिम संस्कार के लिए गाड़ी उपलब्ध करायी जाती है. इसके लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है. वह बताते हैं-“अगर मेरे पास गाड़ी उपलब्ध है, तो जरूर मिलेगी, चाहे कितनी भी मुश्किल घड़ी क्यों नहीं हो. आज तक एक भी ऐसा अवसर नहीं आया, जब मैंने कोई कॉल रिफ्यूज किया हो. अस्पतालों के मुरदाघरों में पड़े-पड़े सड़ी-गली लावारिस लाशों को भी अंतिम संस्कार के लिए शिमला नगर निगम को गाड़ियां उपलब्ध करा देता हूं.”
यह पूछे जाने पर कि अंतिम संस्कार के लिए गाड़ी चलवाने का विचार कैसे आया, सरबजीत बताते हैं- “अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट या कब्रिस्तान अस्पतालों से काफी दूर हैं. अस्पतालों के पास मुरदा ढोने के लिए अमूमन गाड़ियां नहीं होतीं.
नतीजतन कई परिवारों को अंतिम संस्कार के लिए गाड़ियां ढूंढ़ने में काफी मुश्किल होतीं थीं. शाम पांच बजे के बाद तो वे असहाय हो जाते थे, क्योंकि शहर में उनकी मदद के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी. चूंकि मुझे गाड़ी चलाना भी पसंद है, सो मुझे लगा कि मैं इन असहाय लोगों की मदद कर सकता हूं.
वर्ष 2012 में मैंने शहर के लोगों के बीच चंदा किया और इस राशि से एक गाड़ी खरीदी. तब से जरूरतमंदों के बीच यह सेवा जारी है. अब तक 5000 शवों को मंजिल तक पहुंचा चुका हूं. हालांकि यह काम वीभत्स है. इस काम ने मुझे काफी कुछ सिखाया है, काफी अनुभव दिये हैं. एक घटना मुझे याद आती है. नौ साल की एक बच्ची का शव पहुंचाने गया था. उसकी मां पूरी तरह निराश और टूटी हुई थी. पहली बार मुझे अपने काम का महत्व समझ में आया और तब मैंने पक्का कर लिया कि अपनी इस सेवा को जारी रखूंगा. मुझे महसूस हुआ कि ईश्वर ने मुझे इसी काम के लिए भेजा है, चुना है. इसके तुरत बाद मैंने ‘ऑलमाइटी ब्लेसिंग्स’ के नाम से एक संस्था बना ली.”
सरबजीत ने वर्ष 2014 में इस संस्था के बैनर तले कैंसर के गरीब मरीजों और उनके परिजनों के लिए एक मुफ्त भोजनालय की शुरुआत की. शिमला में कैंसर का एक अस्पताल है, जहां राज्य भर से मरीज आते हैं. यहां मरीजों के लिए भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है.
वह कहते हैं-“भोजन की तो बात छोड़िए, कई ऐसे भी मरीज आते हैं, जिनके पास दवा खरीदने तक को पैसे नहीं होते हैं. यह देख कर मैंने तय किया कि इनके लिए कुछ किया जाये और इसी का नतीजा है यह फ्री कैंटीन.” उन्होंने वर्ष 2016 में शिमला के सबसे बड़े कमला नेहरू हॉस्पिटल में एक और फ्री कैंटीन खोला है. इसके अलावा वह शिमला में पांच जगहों पर चपाती बैंक भी चलाते हैं, जहां जरूरतमंदों के बीच खाने के लिए रोटियां बांटी जाती हैं. अब उनका इरादा गरीब मरीजों और उनके परिजनों के रात्रि-निवास के लिए एक शेल्टर होम बनाने का है.
अपना घर-परिवार कैसे चलाते हैं, यह पूछे जाने पर सरबजीत कहते हैं – “जूतों का छोटा-सा व्यवसाय है मेरा. यह मेरे परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी है. मेरे परिवार के लोग मेरे सामाजिक काम में मेरी काफी मदद करते हैं.” 40 की उम्र में जब लोग परिवार केंद्रित हो जाते हैं, सरबजीत जिंदा-मुरदा दोनों की सेवा में जुटे हुए हैं.
वह कहते हैं-“ मैं एक साधारण आदमी हूं और हर आदमी मेरी तरह हो सकता है. मेरी अभिलाषा है कि हिंदुस्तान के हर कोने में एक-एक सरबजीत हो. हर कोने में एक ऐसा इनसान हो, जो वंचितों की मदद के लिए खड़ा हो. धार्मिक संगठनों को सिर्फ दान देना काफी नहीं है, आप खुद जरूरतमंदों तक सेवा के लिए पहुंचें. उन्हें आपकी जरूरत है. आप उनकी मदद करें, जितना भी कर सकें.
(इनपुट: द बेटर इंडिया डॉट कॉम )

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