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लोकपाल आखिर कब?

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अर्थव्यवस्था की सफाई के लिए विमुद्रीकरण जैसा सख्त कदम उठा कर सरकार जहां एक ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर लोकपाल की नियुक्ति में हो रही देरी पर उच्चतम न्यायालय ने सरकार की मंशा पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं. दरअसल, ढाई वर्ष का कार्यकाल बीत […]

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अर्थव्यवस्था की सफाई के लिए विमुद्रीकरण जैसा सख्त कदम उठा कर सरकार जहां एक ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर लोकपाल की नियुक्ति में हो रही देरी पर उच्चतम न्यायालय ने सरकार की मंशा पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं. दरअसल, ढाई वर्ष का कार्यकाल बीत जाने के बाद भी सरकार लोकपाल के लिए पांच सदस्यीय चयन समिति का गठन नहीं कर सकी है. नेता विपक्ष का नहीं होना ही सरकार का एक मात्र जवाब है. बहरहाल, लोकपाल के लिए वर्षों के संघर्ष और अन्ना आंदोलन के बाद भले लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम- 2013 के रूप में कानून हमारे सामने है, लेकिन परिणति का वर्षों लंबा इंतजार अब भी जारी है. लोकपाल गठन पर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों, सरकार के तर्कों और विशेषज्ञों की राय पर केंद्रित है आज का इन िदनों पेज…

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लोकपाल लाने के लिए सरकार के पास इच्छाशक्ति नहीं

तकरीबन साढ़े चार दशक से ज्यादा समय से लटका हुआ लोकपाल बिल साल 2013 में पास तो हो गया था, लेकिन अभी तक देश में लोकपाल नहीं आ पाया है. बिल पास होने के बाद भी अभी तक लोकपाल क्यों नहीं आ पाया है, इसके पीछे की राजनीतिक हकीकत को समझना जरूरी है. इसको पूरी तरह से समझे बगैर हम यह नहीं समझ सकते कि आखिर लोकपाल के आने में राजनीतिक तौर पर क्या समस्या है.

दरअसल, हमारी भारतीय राजनीति में एक सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें इस्तेमाल होनेवाल धन सही तरीकों से नहीं आता है. राजनीतिक दलों की आमदनी का हिसाब-किताब किसी को पता नहीं है. वे हर साल आयकर विभाग को अपनी आमदनी दिखाते हैं. हालांकि वे टैक्स नहीं देते, क्योंकि इनकम टैक्स कानून की धारा-13ए में लिखा हुआ है कि राजनीतिक दलों की आय पर आयकर की सौ प्रतिशत छूट है. खैर यह तो कानून है, इसमें कोई बात नहीं. मसला यह है कि राजनीतिक दल जो सालाना आमदनी दिखाते हैं, यह नहीं पता चलता कि यह आमदनी कहां से आयी है. कानून में यह भी है कि दलों को बीस हजार से ऊपर के मिलनेवाले पैसों की सूची चुनाव आयोग को देनी होती है. इस आमदनी का जब हमने हिसाब-किताब लगाया, तो मालूम हुआ कि महज 20-25 प्रतिशत आमदनी का ही पता चल पाता है कि वह कहां से आयी है, बाकी 75-80 प्रतिशत के स्राेत का किसी को पता नहीं है. इसी स्रोत का पता लगाने के लिए हमने आरटीआइ डाली, तो राजनीतिक दलों का जवाब आया कि हम आरटीआइ के दायरे में नहीं आते. फिर हम केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के पास गये, तो वहां से जवाब मिला कि कोई और ठोस सबूत लाइये. फिर हमने दो साल में तमाम सरकारी विभागों में दो हजार आरटीआइ डाल कर छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के बारे में पूरा मसौदा इकट्ठा किया. यह मसौदा पूरी तरह से सरकारी सूत्रों से प्राप्त जानकारियों पर ही आधारित था. इस मसौदे को हमने सीआइसी को दिखाया और इसमें वे छह दल भी अपने तर्क लेकर आये. इस तरह सबकी सुनने-सुनाने के बाद सीआइसी की एक फुल बेंच ने 3 जून, 2013 को यह फैसला दिया कि छह राष्ट्रीय पार्टियां- कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा- सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकार हैं, इसलिए इन दलों को आरटीआइ आवेदनों का जवाब देना चाहिए. लेकिन इन छह दलों ने सीआइसी के इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया. इस संबंध में सीआइसी इन दलों को दो साल तक नोटिस भेजता रहा, लेकिन दलों ने कोई जवाब नहीं दिया, तो अंतत: सीआइसी ने मार्च 2015 में लिख कर दे दिया कि वह इस फैसले को लागू नहीं करवा सकता. इसके बाद हम सुप्रीम कोर्ट गये. सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार ने एक हलफनामा फाइल किया कि राजनीतिक दल आरटीआइ के दायरे में नहीं आने चाहिए. इस राजनीतिक हकीकत का निहितार्थ यह है कि हमारे राजनीतिक दल और राजनीतिक दलों की बनायी हुई सरकार, ये दोनों राजनीतिक दलों की आय को स्रोत और इकट्ठा पैसों का ब्योरा उजागर करना चाहते ही नहीं हैं. मसला यहीं है. जब राजनीतिक दल अपने पैसे को छुपा कर रखने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हैं, तो जरूर इसमें कुछ छुपानेवाली बात होगी ही. ऐसे में यह कैसे मुमकिन है कि लोकपाल इतनी आसानी से आ जायेगा? क्योंकि अगर लोकपाल आ गया, तो इस तरह की चीजें छुपानी मुश्किल हो जायेंगी. सच्चाई यह है कि पिछले 48 साल से लोकपाल लाने की बात चल रही है और हर दफा कोई न कोई रोड़ा अटका दिया जाता है. इन सब रोड़ा-ओड़ा से गुजरते हुए अंतत: किसी तरह थोड़ा लचीला बना कर लोकपाल बिल पास तो हुआ, लेकिन वह भी कोई बहुत बढ़िया और प्रभावी लोकपाल बिल नहीं है. लेकिन, इस बात की तसल्ली है कि चलो लोकपाल बिल पास हो गया है.

दूसरी समस्या, बिल पास होने के बाद भी अब इसे लागू नहीं किया जा रहा है. यह लागू इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि लोकपाल के लिए चयन समिति में विपक्ष के नेता को शामिल किया जाना है. लेकिन, इस समय लोकसभा में कोई विपक्ष का नेता ही नहीं है और न ही मौजूदा सरकार यह चाहती है कि विपक्ष का कोई नेता हो. तब यह कहा गया कि जब नेता विपक्ष नहीं है, तो उसकी जगह सबसे ज्यादा सांसदों वाले विपक्षी दल के नेता को लोकपाल के लिए चयन समिति में डाल दिया जाये. इसी तरह की बदली सीआइसी और सीवीसी की नियुक्ति वाले कानून में कर दी गयी, लेकिन यही बदली लोकपाल की नियुक्ति वाले कानून में नहीं की गयी. ऐसा करने की सरकार की इच्छा बिल्कुल भी नहीं दिखती है.

लोकपाल लाने का मसला राजनीतिक इच्छाशक्ति का मसला है. लेकिन, यहां यह नहीं कहना चाहिए कि राजनीतिक दलों और सरकार में लोकपाल लाने की इच्छाशक्ति नहीं है, बल्कि यह कहना चाहिए कि लोकपाल न लाने की इच्छाशक्ति बहुत मजबूत है. इस पूरे मसले की जड़ है राजनीतिक दलों की आमदनी और खर्चे का हिसाब-किताब. जब तक इसका ब्योरा हम सबके सामने नहीं आयेगा, तब तक न तो लोकपाल बननेवाला है, न ही भ्रष्टाचार खत्म होनेवाला है. और न ही नोटबंदी से भ्रष्टाचार के भस्मासुर का कुछ होनेवाला है.

सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल लाने को लेकर जो टिप्पणी की है, उसके बाद में मुझे अंदेशा है कि कुछ हासिल नहीं हो पायेगा. सरकार और सुप्रीम कोर्ट का आपस में कोई प्रेम तो है नहीं, इसलिए यह मामला ऐसे ही लटकते हुए चलता रहेगा, क्योंकि राजनीतिक दल किसी भी हालत में लोकपाल लाने के पक्ष में नहीं होंगे. इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण प्रकाश िसंह की पुलिस सुधार की याचिका पर आया फैसला है. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने साल 2006 में ही सेवानिवृत्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह की याचिका पर पुलिस सुधार पर फैसला दिया था, लेकिन दस साल के बाद भी उस फैसले पर अमल नहीं किया गया. इस ऐतबार से देखें, तो लोकपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तो अभी एक टिप्पणी ही की है. अभी सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में कोई फैसला देना होगा, उसके बाद देखना होगा कि सरकार लोकपाल लाती है या नहीं. मेरा ख्याल है कि इसमें भी कुछ नहीं होगा. एक कहावत है कि अगर कोई आदमी सो रहा हो, तो उसे आप जगा सकते हैं, लेकिन अगर वह सोने का नाटक कर रहा हो, तो उसे आप नहीं जगा सकते. कुछ ऐसा ही मामला हमारी सरकार के साथ है. हमारी सरकार लोकपाल मामले में बहुत सजगता के साथ सोने का नाटक कर रही है.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

जगदीप छोकर

सहसंस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स

लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम- 2013 की मुख्य बातें

< इस अधिनियम के तहत लाेकपाल केंद्र व लोकायुक्त राज्य के लिए उत्तरदायी होगा और संबंधित क्षेत्र के कुछ सार्वजनिक पदाधिकारियों (पब्लिक फंक्शनरीज) के खिलाफ भ्रष्टाचार और इससे संबंधित मामलों की जांच करेगा.

< यह अधिनियम पूरे भारत में, यहां तक कि जम्मू और कश्मीर सहित देश से बाहर रह रहे लोक सेवकों पर भी लागू होगा.

< लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम 8 सदस्य होंगे.

< भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश या भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों, लोक प्रशासन, निगरानी, वित्त आदि से संबंधित मामलों का विशेषज्ञ व 25 साल का अनुभव रखनेवाला कोई प्रख्यात व्यक्ति लोकपाल अध्यक्ष हो सकता है.

< लोकपाल के आठ सदस्यों में से आधे न्यायिक सदस्य व आधी अनुसूचित जाति/ जनजाति/ अन्य पिछड़ा वर्ग/ अल्पसंख्यक और महिलाएं होंगी.

< सांसद, विधायक, नैतिक पतन व दूसरे किसी भी मामले में अपराधी साबित हुआ व्यक्ति, 45 साल से कम उम्र का व्यक्ति, पंचायत या नगरपालिका का सदस्य, लोक सेवा से हटाया या निलंबित व्यक्ति, लाभकारी संस्था में कार्यरत व्यक्ति, राजनीतिक दल से संबंधित व्यक्ति, किसी व्यवसाय या पेशे से जुड़ा व्यक्ति लोकपाल अध्यक्ष नहीं बन सकता है.

< लोकपाल के अध्यक्ष की नियुक्ति चयन समिति के सिफारिशों के आधार पर की जायेगी. इस चयन समिति में प्रधानमंत्री अध्यक्ष होंगे और लोकसभा स्पीकर, लोकसभा में विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित न्यायाधीश और एक प्रख्यात विधिवेत्ता आदि सदस्य होंगे.

< लोकपाल के अध्यक्ष का कार्यकाल पांच वर्ष और उनकी अधिकतम उम्र 70 साल होगी. कार्यकाल में अध्यक्ष की मृत्यु हो जाने या त्यागपत्र देने की स्थिति में दूसरा अध्यक्ष चुने जाने तक राष्ट्रपति लोकपाल के सबसे वरिष्ठ सदस्य को अध्यक्ष का अधिकार दे सकते हैं.

< लोकपाल के तीन प्रमुख अधिकारी होंगे- सेक्रेटरी टु लोकपाल, डायरेक्टर ऑफ इन्क्वाॅयरी, व डायरेक्टर ऑफ प्रॉसिक्यूशन. इन तीनों अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार लोकपाल के पास होगा.

< देश का प्रधानमंत्री (किसी खास परिस्थिति में), केंद्र सरकार के सभी मंत्री, ग्रुप ए, बी, सी व डी अधिकारी, केंद्रीय अधिनियम द्वारा स्थापित या केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित या नियंत्रित किसी प्रतिष्ठान के प्रभारी, अपराध करने के लिए उकसाने वाला व्यक्ति, घूस लेन-देन मे शामिल व्यक्ति लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में होंगे.

< लोकपाल के पास सीबीआइ की जांच करने और उसे निर्देश देने का अधिकार होगा, ऐसी स्थिति में बिना लोकपाल की स्वीकृति के सीबीआइ अधिकारी का ट्रांसफर नहीं किया जा सकता है.

< किसी मामले से संबंधित तलाशी और अधिग्रहण के लिए लोकपाल सीबीआइ को अधिकृत कर सकता है.

< लोकपाल के इन्क्वाॅयरी विंग के पास सिविल कोर्ट की शक्तियां होंगी.

< लोकपाल को किन्ही खास परिस्थितियों में भ्रष्ट तरीके से अर्जित की गयी संपत्ति, आय, लाभ आदि को जब्त करने का अधिकार होगा.

< किसी लोक सेवक पर भ्रष्टाचार का आरोप लगने के बाद, लोकपाल के पास यह अधिकार होगा कि वह उसके ट्रांसफर या सस्पेंशन की सिफारिश कर सके.

< किसी मामले की प्राथमिक जांच के समय लोकपाल को उससे संबंधित रिकॉर्ड को नष्ट करने से रोकने का अधिकार होगा.

< लोकपाल अपना बजट खुद बनायेगा और इसे केंद्र सरकार को देगा.

< लोकपाल के खाते की जांच कैग द्वारा किया जायेगा.

< लोकपाल कार्यालय में स्थान ग्रहण करने के बाद इसके सभी सदस्यों/ अधिकारियों को अपनी संपत्ति की घोषणा करनी होगी.

< लोकपाल अधिनियम की धारा 37 के अनुसार, लोकपाल अपने अध्यक्ष या सदस्यों के प्रति किसी तरह की कोई जांच नहीं करेगा.

< लोकपाल के अध्यक्ष या कोई सदस्य तभी हटाये जा सकते हैं, जब दुर्व्यवहार को लेकर उनके खिलाफ 100 सांसदों द्वारा हस्ताक्षर की हुई याचिका राष्ट्रपति के हवाले से सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल

की जाये.

लोकपाल एवं लोकायुक्त संशोधन विधेयक- 2016

< कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में इस वर्ष 27 जुलाई को लोकपाल एवं लोकायुक्त (संशोधन) विधेयक, 2016 को पेश किया.

< वर्तमान विधेयक लोक सेवकों की परिसंपत्तियों और देनदारियों की घोषणा के संदर्भ में लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम-2013 में संशोधन करता है. विधेयक के प्रावधान 2013 अधिनियम के अमल में आने की तारीख से लागू होंगे.

< इस संशोधन के अनुसार, लोकपाल अधिनियम में लोक सेवक से अपनी, पत्नी या पति और बच्चों की परिसंपत्तियों और देनदारियों की घोषणा की अपेक्षा की गयी है. लोक सेवक के कार्यकाल संभालने के 30 दिनों के भीतर सक्षम प्राधिकरण के समक्ष यह घोषणा करनी होगी. साथ ही लोक सेवक को हर वर्ष 31 जुलाई तक इन परिसंपत्तियों और देनदारियों का वार्षिक रिटर्न फाइल करना चाहिए. लोकपाल अधिनियम के निर्देशानुसार, संबंधित मंत्रालय की वेबसाइट पर 31 जुलाई तक घोषणा से संबंधित विस्तृत जानकारी प्रकाशित होनी चाहिए.

< विधेयक के प्रावधानों के अनुसार लोक सेवकों द्वारा की जानेवाली घोषणाओं का स्वरूप और तरीकों का निर्धारण केंद्र सरकार द्वारा किया जायेगा.

लोकपाल का इतिहास

< ओम्बुड्समैन यानी लोकपाल का विचार संसद में सबसे पहले 1963 में रखा गया. इसके बाद 1966 में पहली प्रशासनिक सुधार समिति ने केंद्र व राज्य के लिए दो स्वतंत्र प्राधिकरण बनाये जाने की सिफारिश की.

< लोकपाल विधेयक सबसे पहले 1968 में इंदिरा गांधी के शासन काल में लोकसभा में लाया गया, लेकिन तब प्रधानमंत्री और सांसदों को उसके तहत नहीं रखा गया था. 1969 में यह विधेयक पास हो गया, लेकिन लोकसभा भंग हो गयी, नतीजा पहला लोकपाल लागू नहीं हो सका.

< सन् 1971 के अगस्त में एक बार फिर यह विधेयक संसद पटल पर रखा गया. लेकिन इस पर विचार के लिए इसे किसी भी समिति को नहीं भेजा गया. इस प्रकार पांचवीं लोकसभा भी भंग हो गयी और विधेयक लागू नहीं हो सका. उस समय इंदिरा गांधी ही प्रधानमंत्री थीं.

< सन् 1977 की जुलाई में मोरारजी देसाई के शासनकाल में एक बार फिर यह विधेयक संसद में लाया गया. उस समय इस विधेयक के तहत प्रधानमंत्री को शामिल नहीं किया गया था, लेकिन सांसदों को इसके तहत लाया गया था. संसद में पेश होने के बाद संयुक्त प्रवर समिति ने इस विधेयक पर विचार किया और इसके लिए सिफारिशें दीं. लेकिन, इसके तुरंत बाद ही छठी लोकसभा भंग हो गयी.

< सन् 1985 में, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब एक बार फिर यह विधेयक संसद में लाया गया और एक बार फिर इस विधेयक को संयुक्त प्रवर समिति के पास भेजा गया. बाद में इस विधेयक को सरकार द्वारा वापस ले लिया गया.

< सन् 1989 में वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल यानी नौवीं लोकसभा में फिर से लोकपाल विधेयक को संसद में पेश किया गया. संसद में पेश होने के बाद इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति को भेजा गया, लेकिन लोकसभा भंग हो जाने के बाद यह विधेयक भी अतीत का हिस्सा बन कर रह गया.

< सन् 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा के शासनकाल में एक बार फिर यह विधेयक संसद में पेश किया गया. 1997 में संसद की स्थायी समिति ने इस विधेयक में संशोधन से संबंधित सिफारिशें पेश कीं. लेकिन एक बार फिर लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह विधेयक कानून नहीं बन सका.

< सन् 1998 में 12वीं लोकसभा व 2001 में 13वीं लोकसभा में, वाजपेयी के शासनकाल में दो बार इस विधेयक को संसद में पेश किया गया. लेकिन, इससे पहले कि इस विधेयक को लेकर स्थायी समिति द्वारा पेश की गयी सिफारिशों पर कोई विचार होता, दोनों ही बार लोकसभा भंग हो गयी.

< सन् 2005 व 2008 में भी यह विधेयक संसद में पेश किया गया, लेकिन अस्तित्व में नहीं आ सका.

< सन् 2011 के अप्रैल में अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों ने लोकपाल विधेयक पर काम करने व उसे संसद में लाने के लिए आंदोलन किया.

< 4 अगस्त, 2011 को नया लोकपाल विधेयक लोकसभा में पेश किया गया. इस तरह संसद पटल पर जो विधेयक रखा गया, वह इसका नौवां संस्करण था. उसके बाद इस विधेयक को संसद के स्थायी समिति में भेज दिया गया.

< सन् 1968 से 2011 तक यह विधेयक सात प्रधानमंत्रियों के शासन काल में संसद पटल पर रखा गया. लेकिन केवल वीपी सिंह, एचडी देवगौड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी ने ही इस बात पर सहमित जतायी कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में आना चाहिए.

लंबे संघर्ष के बाद लोकपाल बिल पास हुआ, लेकिन सरकार आगे कुछ नहीं कर रही है. क्या सरकार एक और अन्ना आंदोलन का इंतजार कर रही है? मेरी मांग है कि उच्चतम न्यायालय इस मामले में सरकार को निर्देशित करे. क्योंकि, लोकपाल लाने को लेकर सरकार में राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है. -शांति भूषण

वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पूर्व कानून मंत्री

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