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यह लिंकन के अमेरिका की हार है

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अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के मायने कुमार प्रशांत ट्रंप ने अपने समाज की अांतरिक बीमारियों को खूब उभारा अौर उसका दोष कुछ खास समुदायों पर थोप दिया. उन सारी ताकतों को खुलेअाम धमकी दी जो अोबामा-काल में उभरे थे. उन्होंने अमेरिका को याद दिलाया कि यह सफेद चमड़ी वालों का देश है जिस […]

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अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के मायने
कुमार प्रशांत
ट्रंप ने अपने समाज की अांतरिक बीमारियों को खूब उभारा अौर उसका दोष कुछ खास समुदायों पर थोप दिया. उन सारी ताकतों को खुलेअाम धमकी दी जो अोबामा-काल में उभरे थे. उन्होंने अमेरिका को याद दिलाया कि यह सफेद चमड़ी वालों का देश है जिस पर कालों का, संसार भर से अा जुटे अश्वेतों का, मुसलमानों का दवाब बहुत बढ़ गया है. उन्होंने अमेरिका को उस शान की याद दिलायी, जब दुनिया उसकी ठोकरों में हुअा करती थी. पढ़िए एक विश्लेषण.
यह हिलेरी क्लिंटन की हार का स्यापा नहीं है अौर न यह डोनाल्ड ट्रंप की जीत से पैदा हुई खीज ही है. ये दोनों ( या इन दोनों से विपरीत!) मनोभाव अमरीकियों को प्रदर्शित करने हैं, क्योंकि यह उनका अांतरिक मामला है. हमें यदि खेद है तो वह इस बात का कि अपने सांस्कृतिक अारोहण में हम सारी दुनिया में एक-एक कदम पीछे हट रहे हैं.
यह ज्यादा ही पीड़ाजनक अौर किसी हद तक अपमानजनक भी लगता है, क्योंकि हम देखते हैं कि ऊर्ध्वगामी एक कदम बढ़ाने अौर वहां पांव को स्थिर करने में मानवता को अपना पूरा प्राण-बल जोड़ना पड़ता है, जबकि वहां से फिसलने के लिए बस कोई एक ट्रंप काफी होता है. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हम सबकी दिलचस्पी का विषय इसलिए नहीं होता है कि वह कोई महाशक्ति है. हमारी दिलचस्पी इसलिए होती है कि अंतरराष्ट्रीय महत्व के कई-कई सवालों पर हमारी सदा की तनातनी के बाद भी अमेरिका कई अर्थों में दुनिया की अाशाअों का केंद्र है.
उसका लोकतंत्र के समर्थन में खड़े रहना अौर दुनिया भर के प्रगतिशील तबकों, विचारों अौर धाराअों से जुड़े रहना बहुत मतलब रखता है. हिलेरी क्लिंटन अौर डोनाल्ड जॉन ट्रंप के बीच ऐसा कोई धागा नहीं जो हमें जोड़ता हो. हां, जहां तक हिलेरी क्लिंटन का सवाल है, एक धागा जरूर था जो हमें किसी हद तक उनकी तरफ खींचता था अौर वह था उनका अौरत होना! यह वैसा ही है जैसे सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था में ही किसी मायावती के लिए मन का एक कोना जरा गीला होना! नहीं तो हिलेरी क्लिंटन अपने पति राष्ट्रपति क्लिंटन के काल में भी अौर फिर अोबामा के विदेशमंत्री के रूप में भी कभी प्रेरणादायी या सामान्य अमरीकी नौकरशाह से अलग कुछ रही नहीं हैं.
उनकी पराजय के पीछे भी इन्ही तत्वों का हाथ रहा है कि वे देश में उत्साह नहीं जगा सकीं, अाशा का संचार नहीं कर सकीं. वे ट्रंप की जुमलेबाजियों का कोई प्रभावी जवाब नहीं तैयार कर सकीं. अपने चुनाव के खर्च के लिए उन्होंने पैसा बहुत जमा किया, लेकिन विश्वास नहीं कमाया. शायद कहीं यह भाव भी रहा कि उन जैसी अनुभवी राजनीतिज्ञ के सामने राजनीति से अनजान ट्रंप को कहीं टिकेंगे भी क्या! शायद यह भी कहीं रहा कि वे ऐसी अकेली उम्मीदवार हैं जिनके समर्थन में दो-दो राष्ट्रपति मैदान में हैं! सो राष्ट्रपति बनने की कोशिश में दो-दो राष्ट्रपतियों को पराजित करवा कर, वे दो-दो बार पराजित हुईं.
लेकिन ट्रंप की कहानी देखने के लिए हम बहुत नहीं फिर भी थोड़ा पीछे चलते हैं. 1988-89 में अमेरिका ने अपने 40 वें राष्ट्रपति के रूप में चुना था रोनाल्ड रीगन को. कभी हॉलीवुड में अभिनेता रहे अौर फिर गवर्नर रहे रीगन की इसके अलावा दूसरी कोई विशेषता नहीं थी कि वे जाने-पहचाने चेहरे थे अौर फिल्मी संवादनुमा शैली में बातें करते थे.
यहां से अमरीकी राष्ट्रपतियों के पतन की एक नयी कहानी शुरू होती है. फिर 41वें राष्ट्रपति के रूप में उप-राष्ट्रपति जॉर्ज हरबर्ट वाकर बुश चुने गये. 43वें राष्ट्रपति के रूप में इनके स्वनामधन्य पुत्र जॉर्ज वाकर बुश चुने गये. रीगन से शुरू हो कर 2009 तक के कालखंड को हम अमेरिका के सबसे भौंडे काल में गिन सकते हैं जब अमेरिका का अार्थिक रुतबा अौर उसकी राजनीतिक नेतृत्व-क्षमता रसातल में पहुंचती गयी. सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमरीकी वर्चस्व बनाने की फूहड़ कोशिशों में सारी दुनिया में युद्ध भड़काने, अातंकवाद को संगठित स्वरूप देने अौर फिर अोसामा बेन लादेन तथा दूसरे अातंकी संगठनों का भूत खड़ा करने अादि का यही काल है. यही काल है जब अातंकी वर्ल्ड टावर पर हवाई जहाज दे मारते हैं अौर अमेरिका घुटनों के बल झुकता-गिरता दिखाई देता है.
राष्ट्रपति बुश की पहली प्रतिक्रिया किसी चूहे-सी बदहवास होती है अौर फिर किसी पागल हाथी की तरह वे अफगानिस्तान, ईराक अादि पर हमला करते हैं अौर सारी दुनिया को अांखें दिखाते हैं. ‘जो हमारे साथ नहीं, वह अातंकवादियों के साथ’ जैसी कबीलाई मानसिकता जगाने वाला अमेरिका यहां से उभरता है. इस अमेरिका के पास संसार को देने-कहने को कुछ नहीं था. बौना नेतृत्व राष्ट्र-मन को लिलिपुट के नाप का बना देता है. इसी दौर में भारत अमरीकी के लिए नया पाकिस्तान बनने की रजामंदी दिखाता है. यह अटलबिहारी वाजपेयी काल था. फिर तो मनमोहन-काल अाया अौर अब मोदी-काल! हम कहां से चल कर कहां पहुंचे हैं!!
अमेरिका का यह युद्धोन्मत्त काल अाम अमेरिकी को मौत अौर निराशा से अलग कुछ दे नहीं सकता था. बैंकों-बीमा कंपनियों का अभूतपूर्व भ्रष्टाचार अमेरिका की चूलें हिला गया अौर अार्थिक मंदी ने जड़ पकड़ ली. अमरीकी अार्थिक सत्ता कभी इतनी खोखली नहीं दिखाई दी थी जितनी बुश-काल के इस अंतिम दौर में दिखाई दी. महंगाई, बेरोजगारी अौर उत्पादन में गिरावट का यह काल अमेरिका का अात्मविश्वास हिला गया. ऐसे में बराक अोबामा सामने अाये. एक अश्वेत अमरीकी ने अमेरिका की कमान संभालने की सोची, यही काफी था कि सफेद चमड़ी के अाभिजात्य का ढोंग ढोने वाला अमेरिका उसे कुचल-मसल देता! लेकिन लस्त-पस्त अमेरिका में इतना बल बचा कहां था! निराशा की इसी गर्त में से अोबामा ने अाशा की हांक लगायी. यह बुझती लौ की बत्ती बढ़ाने जैसा काम था.
श्वेत अमेरिका देखता रहा अौर बाकी का अमेरिका अोबामा के साथ हो लिया! अोबामा ने सारा बल लगा कर मतदाताअों के सामने जो अमेरिका खड़ा किया वह युद्धों से बाहर निकलने, मंदी अौर बेरोजगारी से छूटने अौर सामाजिक न्याय की मांग करने वाला अमेरिका था. श्वेतवादियों ने अोबामा के रूप में उभरता यह खतरा नहीं देखा, ऐसा नहीं था. वे अंत-अंत तक कोशिश करते रहे कि यह अश्वेत अादमी सफल न हो लेकिन बात उनके बूते की रह नहीं गई थी. अोबामा जीते अौर अमेरिका खड़ा हुअा.
अोबामा दूसरी बार भी राष्ट्रपति चुने गये. हालांकि उन्हें इस बार पहले से कम समर्थन मिला. इसमें अोबामा की अपनी विफलताएं भी थीं, अमरीकी समाज व प्रशासन की सड़ांध भी थी लेकिन यह भी था, अौर खूब था कि सारे श्वेतवादियों ने अपनी मोर्चाबंदी कर ली थी.
लेकिन यह सारा प्रसंग तो अोबामा-काल की समीक्षा का है. अभी हम देख तो यह रहे हैं न कि ट्रंप का उभरना अौर जीतना कैसे हुअा, तो ट्रंप ने उन सारे धागों को काटना शुरू किया जिन्हें अोबामा ने जोड़ा था. ट्रंप का पूरा अभियान उस तर्ज पर चला जिस तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने का अपना अभियान चलाया था. ट्रंप ने भी अपने समाज की अांतरिक बीमारियों को खूब उभारा अौर उसका दोष कुछ खास समुदायों पर थोप दिया. उन सारी ताकतों को खुलेअाम धमकी दी जो अोबामा-काल में उभरे थे.
उन्होंने अमेरिका को याद दिलाया कि यह सफेद चमड़ी वालों का देश है जिस पर कालों का, संसार भर से अा जुटे अश्वेतों का, मुसलमानों का दवाब बहुत बढ़ गया है; उन्होंने अमेरिका को उस शान की याद दिलायी जब दुनिया उसकी ठोकरों में हुअा करती थी. उसने अमेरिका को पूंजी की ताकत की याद दिलायी अौर कहा कि इसका बल हो तुम्हारे पास तो तुम बादशाह हो अौर संसार की किसी भी अौरत को किसी भी तरह, कहीं भी दबोच सकते हो. यह किसी ट्रंप की निजी जिंदगी को नंगा करने जैसी बात नहीं है. पैसे को भगवान मानने वाला यह वह दर्शन है जो श्वेत अमेरिका को घुट्टी में पिलाया जाता है. ट्रंप की जीत के साथ ही वह अमेरिका हार गया है जिसे अब्राहम लिंकन से ले कर बराक अोबामा तक ने बनाने की कोशिश की थी.
जीत के बाद अचानक ट्रंप की बातें बदल गयीं. वे कह रहे हैं कि अब चुनाव पूरा हुअा तो यह घाव भरने का समय है. घाव दिये किसने अौर क्यों, इस बारे में कुछ न कहते हुए वे ‘ सबका साथ : सबका विकास’ कह रहे थे. मंच पर कुछ अौर मंच के नीचे व पर्दे के पीछे कुछ की त्रासदी हम लंबे समय से झेल रहे हैं. अब अमेरिका व संसार की बारी है. 20 जनवरी, 2017 के बाद ट्रंप अपने पत्ते चलना शुरू करेंगे अौर तब हम देखेंगे कि उनके पास कितने ट्रंप कार्ड हैं.
(लेखक गांधीवादी विचारक और वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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