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वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना

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बल्देव भाई शर्मा महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास भारत की ऋषि परंपरा में सामाजिक समरसता के सेतु हैं. कथित रूप से जिन वर्गों को अस्पृश्य, वंचित या त्याज्य माना जाता रहा वहां से उठ कर कोई अपने ज्ञान, साधना और तप से शीर्ष पर पहुंच कर यदि ऋषियों की पांत में वंदनीय हो जाये, तो […]

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बल्देव भाई शर्मा
महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास भारत की ऋषि परंपरा में सामाजिक समरसता के सेतु हैं. कथित रूप से जिन वर्गों को अस्पृश्य, वंचित या त्याज्य माना जाता रहा वहां से उठ कर कोई अपने ज्ञान, साधना और तप से शीर्ष पर पहुंच कर यदि ऋषियों की पांत में वंदनीय हो जाये, तो जाति-भेद, ऊंच-नीच का कुत्सित भाव अर्थहीन हो जाता है.
भारत की सांस्कृतिक चेतना के ऐसे ही शिखर पुरुष वाल्मीकि ने ही सर्वप्रथम विश्व को भगवान राम के आदर्श जीवन से कथा रूप में परिचित कराया. उन्होंने महर्षि नारद से श्रीराम का आख्यान सुन कर उनके निर्देश पर ही श्रीराम के श्रेष्ठ मानवीय गुणों को जन-जन तक पहुंचाने का संकल्प पूरा किया. वाल्मीकि रचित रामायण को संस्कृत का पहला महाकाव्य माना जाता है, जिसमें पहली बार उन्होंने संस्कृत काव्य में श्लोक की भी रचना की. उल्लेख है कि तमसा नदी के तट पर नारद जी से श्रीराम का गुणगान सुन कर जनकल्याण के लिए उसे कथा रूप में प्रस्तुत करने का संकल्प लिया- वृंत कथय धीरस्य यथा ते नारदात् श्रुतम.
उन्हें लगा कि श्रीराम से बड़ा मानवीय जीवन का नायक दूसरा कोई नहीं हो सकता. राम को वाल्मीकि ने ‘रामो विग्रहवान धर्म:’ कहा है यानी मनुष्य रूप में श्रीराम धर्म का प्रतिरूप हैं, राम साक्षात धर्म हैं. मनुष्य जीवन के जो आदर्श राम ने प्रस्तुत किये, मानवीय संबंधों की जो परिभाषा दी, एक राजा के रूप में जो प्रजावत्सलता, धर्मप्रधानता और कर्तव्यनिष्ठा उनकी शासन व्यवस्था का अंग बनी और आसुरी शक्तियों का संहार कर धर्म, न्याय व सत्य की स्थापना के लिए उन्होंने राजसी सुख-वैभव को त्याग कर सहर्ष वनगमन स्वीकार किया, इसी से वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये.
अपने सुख, अपनी सुविधा और अपने लाभ के लिए राम ने किसी भी मर्यादा को नहीं तोड़ा.जनकल्याण ही सदा उनके जीवन का आदर्श रहा, इसके लिए वह सदा सर्वस्व त्याग के लिए भी तत्पर रहे जैसा कि वाल्मीकि ने रामायण में उल्लेख किया है- भरत जब अयोध्या लौट कर रामवनगमन का समाचार सुनते हैं, तो व्यथित हो जाते हैं. बड़े भाई के प्रेम में विह्वल भरत राम को वापस लाने के लिए स्वयं वन जाते हैं. जब आंखों में आंसू भर कर वह राम से अयोध्या लौट चलने का अनुरोध करते हैं, तो राम का कथन आज के दौर में अपनी सुख-सुविधा के लिए माता-पिता और बुजुर्गों की अनदेखी करने वाले लोगों के लिए एक सबक है- ‘पिता हि दैवतं तात देवतानामपि स्मृतम.’ हे भाई भरत मेरे लिए पिता दशरथ ही सबसे बड़े देवता हैं, मैं किसी और देवता को नहीं जानता.
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में इस प्रसंग का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है. भरत की आंखों सेे झर-झर आंसुओं की धारा बह रही है, लेकिन राम जरा भी विचलित नहीं हैं. एक तरफ राजसिंहासन का लोभ है दूसरी और पिता के वचनों का पालन करते हुए 14 वर्ष वन का कष्टमय जीवन.
लेकिन राम पिता की आज्ञा को ही चुनते हैं, भरत और उनके साथ आये अनेक गण्यमान्य माताएं, इनके अनुरोध की आड़ में कि अब तुम नहीं मानते हो तो ठीक है मैं वापस चलता हूं, अब तो पिता भी चल बसे कि उनका सामना करने से कतराकर रहना पड़े. इसके विपरीत राम कहते हैं- ‘अरूं हि वचनाद्राज्ञ: पतेयमपिवाके/भक्षयेयं विषं तीक्ष्ण मज्जयेयमपि चार्णवे.’ पिता की प्रसन्नता और उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं सर्वस्व त्याग को भी तत्पर हूं चाहे मुझे आग में कूदना पड़े, विष खाना पड़े या समुद्र में डूबना पड़े. जब दशरथ युवराज राम को वनगमन की आज्ञा सुनाते हैं, जबकि कुछ देर बाद ही उनका राज्याभिषेक होना था, तब भी राम पूरे धैर्य और आदर के साथ कहते हैं- ‘नैवाहं राज्यमिच्छामि न सुखं.’ न मुझे राज्य पाने की इच्छा है, न सुख. आज तो पिता से संपत्ति छीनने के लिए संतान उसका कत्ल करने में भी नहीं हिचकती, ऐसी कितनी खबरें अखबारों में हम पढ़ते हैं.
माता कैकेयी ने राम को वनवास दिलाया, लेकिन राम के मन में उनके प्रति कोई कटुता नहीं, वह कहते हैं- समा हि मम मातर:.’ मेरी सभी माताएं मेरे लिए समान हैं. वाल्मीकि ने राम के जीवन के ऐसे अनेक प्रेरक कथा प्रसंग रामायण में उकेरे हैं जो आज स्वार्थ, द्वेष और अनैतिकता के जाल में फंसे लोगों को मानवता के रास्ते पर चलना सिखा सकते हैं, बशर्ते हम उन्हें पढ़ें, समझें और उनका आचरण करें. वाल्मीकि से प्रेरणा पाकर ही कालांतर में अनेक संतों-कवियों ने अलग-अलग भाषाओं में रामकथा का आख्यान रचा. भवभूति ने संस्कृत में ‘उत्तर रामचरितम’ की रचना की. राम के जीवन का आदर्श प्रस्तुत करते हुए भवभूति ने जो लिखा है, वह आज भी राजनीति और शासन व्यवस्था के लिए मानक है, जबकि इस दौर की राजनीति पूरी तरह सत्तापेक्षी हो गयी दिखती है और जनहित व लोककल्याण उसके आखिरी पायदान पर हैं. ‘स्नेहं दयां च सौख्यज्च यदि व जानकीमपि/लोकाराधनाय लोकस्य मुग्धतो नास्ति में व्यथा.’ राम राजा के रूप में शासन को सुख-वैभव भाेगने का अवसर नहीं मानते, वह उसे लोक-आराधना कहते हैं और इसके लिए जरूरत पड़े तो अपने उन गुणों दया, स्नेह आदि जो उनकी पहचान है, यहां तक कि जानकी को भी त्यागने को तैयार हैं.
इस तरह महर्षि वाल्मीकि ने राम के आदर्श चरित्र को उद्घाटित कर जन-जन में मानवता की प्रेरणा जगायी. वाल्मीकि का स्वयं का जीवन भी सबके लिए एक आदर्श है. संत तुलसीदास जिन्हें भविष्य पुराण में शिव ने पार्वती से चर्चा करते हुए वाल्मीकि का अवतार बताया है, ने वाल्मीकि की महिमा का बखान करते हुए श्रीरामचरितमानस में लिखा है- ‘उलटा नामु जपत जग जाना/वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.’ परम ब्रह्म राम का नाम उलटा (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकि स्वयं ब्रह्म के समान हो गये. इस तरह वाल्मीकि जप-यज्ञ के भी प्रर्वतक माने जा सकते हैं. गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है ‘यज्ञानां जपयज्ञोअरिम.’ मैं यज्ञों में यज्ञ हूं. नारद जी से रामनाम रूपी धन का रहस्य जानकर वाल्मीकि महर्षि हो गये. ऐसा जीवन सबके लिए अनुकरणीय है.
मानवता वाल्मीकि की ऋणी है जिन्होंने राम का आदर्श बता कर जीवन का लोककल्याणकारी मार्ग दिखाया. एक पक्षी की मौत से वहां वन में आस-पास ही उपस्थित वाल्मीकि इतने आहत हुए कि उस पीड़ा में से उनके मुख से काव्य फूट पड़ा- ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा:/यतक्रौंच मिथुध्देकमधी काममोहितं.’ कविवर सुमित्रानंदन पंत ने इसी प्रसंग को व्यक्त करते हुए बड़ी मार्मिक पंक्तियां लिखी हैं- ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान. उमड़ कर आंखों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान.’ ऐसे महर्षि वाल्मीकि काव्य जगत के सूर्य भी हैं जिन्होंने पहली बार काव्य रचना कर उसे प्रकाशमान किया और श्रीराम भारतीय संस्कृति के सूर्य हैं जिनका लोकपरिचय वाल्मीकि ने कराया कि वाल्मीकि रचित रामायण एक कथा भर नहीं है, वह वैसा आचरण करके जीवन संवारने का मंत्र है. वाल्मीकि जयंती शरद पूर्णिमा के दिन आती है जो आश्विन (कवार) मास की पूर्णिमा है. शास्त्रों में उल्लेख है कि इस रात्रि चंद्रमा षाेडश कलाओं के साथ उदित होता है और पृथ्वी के सबसे निकट होता है.
उससे अमृत झरता है उसकी चांदनी में रखी गो दुग्ध से बनी खीर सुबह खाने से शरीर निरोग बनता है. इस बारे में श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- ‘पुष्णामि चौधरी : सर्वा : सोमो भूत्वा रसात्मक: ‘अर्थात चंद्रमा इस स्वरूप में अमृतमय होकर संपूर्ण औषधियों/वनस्पतियों को पुष्ट करता है. इस दिन वर्षा काल समाप्त होकर शरद ऋतु का प्रारंभ होता है. शरद पूर्णिमा महारास की रात्रि है जो जगत के आनंद और कल्याण के लिए श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रचाया.

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