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भारत-पाकिस्तान शीतयुद्ध का आगाज

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समसामयिक : दोनों के बीच ‘गरम युद्ध’ का जोखिम भी बना हुआ है पहले उड़ी हमला, फिर पीओके ऑपरेशन की बौखलाहट में बारामूला हमला. ऐसे में भारत-पाक के बीच स्वस्थ संवाद की गुंजाइश फिलहाल नहीं है. इससे किसी को इनकार नहीं है कि दोनों देशों के बीच शीतयुद्ध का नया दौर आरंभ हो चुका है. […]

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समसामयिक : दोनों के बीच ‘गरम युद्ध’ का जोखिम भी बना हुआ है

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पहले उड़ी हमला, फिर पीओके ऑपरेशन की बौखलाहट में बारामूला हमला. ऐसे में भारत-पाक के बीच स्वस्थ संवाद की गुंजाइश फिलहाल नहीं है. इससे किसी को इनकार नहीं है कि दोनों देशों के बीच शीतयुद्ध का नया दौर आरंभ हो चुका है. सवाल है दोनों पड़ोसियों के बीच पनपे ताजा तनाव का क्या होगा अंजाम.

संजय बारू

सीनियर फेलो, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च

नियंत्रण रेखा के पार संपन्न भारतीय सैन्य कार्रवाई की काफी दिनों से प्रतीक्षा थी. तथ्य तो यह है कि नवंबर 2008 से ही भारत-पाकिस्तान के बीच ‘शीतयुद्ध’ जैसा कुछ चला आ रहा था. पिछले सात वर्षों में पाकिस्तान के नियंत्रणवाले इलाकों से भारत के विरुद्ध हो रही आतंकवादी साजिशों पर भारतीय चिंता के समाधान के लिए पाकिस्तान ने कुछ भी नहीं किया.

अब इसके आगे दोनों देशों के सामने एक बड़ी चुनौती यह होगी कि वे द्विपक्षीय संवादहीनता के लंबे खिंचनेवाले दौर से कैसे निबटते हैं.भारत व पाक के बीच सोद्देश्य संवादों का पिछला और अंतिम दौर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रथम कार्यकाल के दौरान ही हो सका था, जो 2007 में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के घरेलू परेशानियों में घिरने, अंततः उनकी गद्दी छिन जाने के साथ ही समाप्त हो गया. नवंबर 2009 में मुंबई में हुए आतंकी हमले के बावजूद मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ संवादों की बहाली की कोशिशों से अपने दूसरे कार्यकाल का प्रारंभ किया.

इस अरसे में वे पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी से दो बार मिले, मगर क्रमशः शर्म-अल-शेख तथा थिम्पू में हुईं इन दो मुलाकातों के नतीजे सिफर ही रहे. उसके बाद बाकी वार्ताएं औपचारिकता के दायरे से बाहर न जा सकीं और अंततः मनमोहन सिंह ने यह तय कर लिया कि जब तक कुछ ठोस हासिल कर पाने की प्रत्याशा न हो, वे पाकिस्तान की यात्रा से परहेज ही करेंगे. हालांकि, विदेश मामलों पर उनके सलाहकारों के साथ ही कई मीडियाकर्मियों ने भी उनसे बार-बार यह अनुरोध किया कि वे और नहीं तो कम-से-कम पाकिस्तान में गह नामक उस गांव की ही जियारत कर लें, जहां उनकी जन्मस्थली थी, पर मनमोहन सिंह ने उससे भी इनकार कर दिया.

पूरे देश के साथ ही दुनिया को भी हैरत में डालते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए की. मगर एक बार फिर सीमा पार से होनेवाले आतंकी हमलों और पाकिस्तान स्थित भारत विरोधी इसलामी आतंकियों को नियंत्रित करने से पाकिस्तान के लगातार इनकार के बावजूद मोदी अपने गैरदकियानूसी रवैये के अनुरूप ही अचानक लाहौर पहुंच गये और नवाज शरीफ के साथ अनौपचारिक गपशप का एक पूरा दिन गुजारा. लेकिन, वह बहुचर्चित यात्रा भी भारत के लिए बेनतीजा ही रही.

इस तरह पाकिस्तान के सारे अतिवादी उकसावे के बावजूद भिन्न-भिन्न धाराओं से आये भारतीय राजनेता पाकिस्तान के साथ सद्भावपूर्ण संबंधों की बहाली की दिशा में सक्रिय रहते हुए भी सफल नहीं हो सके.

इस पृष्ठभूमि में उड़ी के एक और हमले ने भारत के व्यग्र मिजाज को उबाल बिंदु पर ला दिया. ऐसी स्थिति में इसमें हैरत की कोई बात नहीं कि प्रत्येक राजनीतिक दल ने नियंत्रण रेखा के पार जाकर की गयी भारतीय सैन्य कार्रवाई पर उसे शाबाशी दी और इस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने द्विपक्षीय संबंधों को एक नया मोड़ दे दिया.

पाकिस्तानी रक्षा मंत्री जैसे उच्चपदस्थ व्यक्ति तक के द्वारा भी परमाण्विक भयादोहन के अत्यंत गैरजिम्मेवाराना बयान के तुरंत बाद भारत द्वारा ऐसी कोई कार्रवाई किये जाने से इनकार की पाकिस्तानी प्रतिक्रिया पर किसी को भी अचरज नहीं होना चाहिए. अंशतः तो यह प्रतिक्रिया बहादुराना बयानों की पाकिस्तानी प्रवृत्ति और वहां के पंजाबी कुलीनों की आत्मविमुग्ध रक्षात्मक वृत्ति का और अंशतः उसकी किंकर्तव्यविमूढ़ता का नतीजा मानी जानी चाहिए.

तथ्य यह है कि भारत ने नपे-तुले ढंग से अपने कदम उठा कर राजनय और बल दोनों का साथ-साथ इस्तेमाल किया है. पाकिस्तान के सदाबहार रक्षक चीन को छोड़ कर बाकी सभी अहम देशों ने प्रकारांतर से भारत का समर्थन ही किया है. मगर इसके बाद आगे का रास्ता किधर जाता है? यदि हम यह सोच लेते हैं कि पाकिस्तान को सबक मिल गया है और वह अब सुधर जायेगा, तो यह निरी मूर्खता ही होगी. वह वैसा करनेवाला नहीं. चीन-पाकिस्तान धुरी को अब मजबूती मिल गयी है. यही वजह है कि पाकिस्तान उत्तर कोरिया के नक्शे-कदम पर ज्यादा-से-ज्यादा चलने लगा है. भारत के लिए आगे का रास्ता साफ है और उसे पाकिस्तान के साथ ठीक वही बर्ताव करना होगा, जो जापान तथा दक्षिण कोरिया चीन के साथ किया करते हैं.

यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत तथा दक्षिण कोरिया दोनों ही ने 1990 के प्रारंभिक वर्षों में अपने मनबढ़े पड़ोसियों को दोस्ती के पैगाम दिये, जिसे दक्षिण कोरिया ने ‘सनशाइन पालिसी’ का खुशनुमा नाम दिया था. इधर भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने यह विचार दिया कि भारत को अपने सभी पड़ोसियों के प्रति एकपक्षीय ढंग से दोस्ताना रवैया दिखाना चाहिए.

इस नीति को बाद के प्रधानमंत्री आइके गुजराल ने खुद ही ‘गुजराल सिद्धांत’ का नाम दे दिया! और आज भारत और दक्षिण कोरिया दोनों ही यह यह मानते हैं कि इस नीति ने उनके लिए अपेक्षित नतीजे नहीं दिये और यह भी कि दोनों ही के पड़ोसियों के सैन्य नेतृत्व चीन की बढ़ती जाती अहमन्यता के सामरिक हित साधने में लगे हैं. आखिरकार दोनों ही के परमाण्विक कार्यक्रम चीन की मदद से परवान चढ़े हैं और दोनों ही की अर्थव्यवस्था चीन की अर्थव्यवस्था से संबद्ध होती जा रही है.

उत्तरी कोरिया तथा पाकिस्तान के बीच केवल दो ही फर्क हैं. भारत का पड़ोसी एक इसलामी गणतंत्र है और यही तथ्य एशिया के समकालीन सामरिक संदर्भ में अत्यंत अहम हो उठता है.

इसके बाद जो कुछ इस तथ्य को अंशतः संतुलित करता है, वह यह कि पाकिस्तान में अभी भी एक कुलीन वर्ग मौजूद है, जो अंगरेजीभाषी और पश्चिम-परस्त है, जिसके सामाजिक और आर्थिक संपर्क अमेरिका व ब्रिटेन तक फैले हैं. पर, जैसे-जैसे पाकिस्तान की इसलामी पहचान मजबूत होती जा रही है, उसके पाश्चात्य कुलीनवर्ग का प्रभाव घटता जा रहा है. यहां तक कि पश्चिम भी इस तथ्य से अब अपने सामंजस्य बिठाने में लगा है. इन सबका निहितार्थ यह है कि निकट भविष्य में भारत तथा पाकिस्तान के बीच सामान्य संबंध बहाल नहीं होनेवाले हैं. पाकिस्तान ने भारत के साथ सामान्य व्यापारिक संबंध स्थापित करने और सार्क के व्यापारिक उदारीकरण के कार्यक्रम के अनुपालन के अलावा भारतीय जींसों तथा वाहनों को अफगानिस्तान व मध्य एशिया तक जाने का रास्ता देने से भी इनकार ही किया है.

इन कठोर वास्तविकताओं के मद्देनजर यह स्वाभाविक ही है कि भारत सरकार ने सार्क शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का फैसला किया. अफगानिस्तान के अतिरिक्त सार्क के संस्थापक बांग्लादेश द्वारा भी अगले नवंबर में होनेवाले इस सम्मेलन से अलग रहने का निर्णय यह दिखाता है कि सार्क अब एक अंधी गली में प्रवेश कर चुका है. स्थगित व्यापारिक रिश्तों, सैन्य-समर्थित आतंकवाद व परमाण्विक भयादोहन की बढ़ती पाकिस्तानी प्रवृत्ति के संदर्भ में दोनों देशों के बीच शीतयुद्ध का एक नया दौर आरंभ हो चुका है. यह सही है कि यदि पाकिस्तानी सेना हताश हो जाये अथवा इसलामी जेहादी दोनों को प्रत्यक्ष संघर्ष तक उकसा दें, तो दोनों के बीच ‘गरम युद्ध’ का जोखिम भी बराबर बना है.

लेकिन, जहां एक ‘गरम युद्ध’ से अब भी बचा जा सकता है, ‘शीतयुद्ध’ तो शुरू हो ही चुका है.

भारत को इस शीतयुद्ध के औचित्य की तलाश कर उसका अनुपालन करना होगा. इस शीतयुद्ध का उद्देश्य उस मौलिक शीतयुद्ध से कहीं छोटा हो सकता है, यानी पाकिस्तान को एक ‘सामान्य’ राष्ट्र, राज्य व पड़ोसी की तरह बर्ताव करनेवाला बनाना. पर यदि पाकिस्तान सामान्य बनने की हद तक न बदल सके, तो इस क्षेत्रीय शीतयुद्ध का अंतिम नतीजा उस मौलिक शीतयुद्ध से भिन्न न होगा-यानी एक परमाण्विक हथियार संपन्न शक्ति का एक विफल राज्य बन जाना; आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से बिखर जाना; और वस्तुतः, इस प्रक्रिया में उसकी सीमाएं एक बार फिर से तय होना.

(साभार : इंडियन एक्सप्रेस )

(अनुवाद: विजय नंदन)

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