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देहरी का दीप

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भीगी आंखों से देख रहा हूं, अपने गांव की उस प्यार-दुलार बरसाती धरती को. वर्षों पहले छूट गये अपनेपन को तलाशती नजरों में एक खास प्यास थी. अपने पुरखों के बनवाये मकान की सीढ़ियां चढ़ते हुए मन भावुक हो उठा है. कई वर्षों के बाद आज जब मैं गांव वापस लौटा हूं, तो वे ही […]

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भीगी आंखों से देख रहा हूं, अपने गांव की उस प्यार-दुलार बरसाती धरती को. वर्षों पहले छूट गये अपनेपन को तलाशती नजरों में एक खास प्यास थी. अपने पुरखों के बनवाये मकान की सीढ़ियां चढ़ते हुए मन भावुक हो उठा है. कई वर्षों के बाद आज जब मैं गांव वापस लौटा हूं, तो वे ही हमारे बीच नहीं रहे, जिनके सपनों को पूरा कर पाने की आस लिये एक दिन इस गांव की माटी से विदा ले कर शहर आ गया था…
समय के अंतराल ने पहले मां को छीना, फिर बाबूजी को. पर मां के वे भीगे शब्द आज भी कानों में गूंजते हैं… ‘बबुआ! एक दिन बड़का आदमी बन जइबऽ तऽ हमार, बाबूजी आ पुरखन के नांव जी जाई…’
मां के शब्दों में आज बड़ा आदमी तो बन गया हूं, पर पुरखों की देहरी को भुला शहर की मजबूरियों और व्यस्तताओं में गुम हो जाने का अपराध बोध ले कर. मेरे पीछे-पीछे मेरा बेटा गौरव भी बैग उठाये चढ़ा और पत्नी गरिमा भी. पत्नी ने तो जीवन के पग-पग पर साथ दे कर सहधर्मिणी, जीवन संगिनी की भूमिका बखूबी निभायी थी. लेकिन, अंगरेजी माध्यम से पढ़े और ग्रामीण पृष्ठभूमि से कोसों दूर रहे बेटे को ले कर मेरा मन सशंकित था कि पता नहीं वह कीचड़, मिट्टी और धूल से सनी गांव की गलियों से कितना घुल-मिल जायेगा. मैं तो इसी गांव का बेटा था, जो सुबह का भुला ही सांझ ढले घर लौट आया था. मां के हाथों रोपे गये तुलसी के चौरे पर गेरू और रंग से मेरे ही हाथों लिखा श्रीरामजी सदा सहाय तथा स्वास्तिक एवं शुभ-लाभ के चिह्न आज भी ज्यों-के-त्यों मौजूद थे. मेरी पत्नी ने भी वहां झुक कर प्रणाम किया.
पास-पड़ोस की औरतें वहां जुट आयी थीं… और आधुनिक ढंग से कीमती साड़ी पहने, शालीन और माथे पर पल्लू डाले शहर की बहू को देख-देख हैरान भी थीं. मां का ही अनुकरण गौरव ने भी किया था. यह देख मैं अतिसंतुष्ट भी हो उठा था. सुंदर काकी सामने आयी और वृद्ध हो गयी धुंधलाती आंखों से मुझे देखा, तो झट पहचान लिया- छोटका बबुआ हो नऽ?
मैंने और गरिमा ने झुक कर उन्हें प्रणाम किया, तो बहू को गले लगा कर बोली- जीती रहो बहुरिया! गौरव को भी ढेरों आशीष दिये उन्होंने.
सुंदर काकी की गोद में मैं खेला और बड़ा हुआ हूं. मुझे उनके साथ बिताये गये बचपन के प्यारे, मासूम पल आज भी बखूबी याद हैं. उन्होंने ढालान में बिछी चौकी पर हमें बिठाया और हमारे भोजन की व्यवस्था करने चली गयी.
आज गांव लौट कर एक आत्मिक सुख और शांति का अनुभव कर रहा हूं. क्योंकि, आज भी व्यक्तिगत रूप से गौरवान्वित और संतुष्ट हूं. मेरे बेटे गौरव ने इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता पास कर ली थी और देश के एक नामी संस्थान में पढ़ने जानेवाला था कुछ ही दिनों में.
जिस दिन उसका परिणाम निकला था, उस दिन हम सभी मंदिर गये थे. वहां से लौट कर जब मैं मां की तसवीर के आगे हाथ जोड़े खड़ा था तभी मेरे अंतर्मन में मां की आवाज गूंजी थी-बबुआ ! एक दिन बड़का आदमी बन जइबऽ तऽ पुरखन के नांव जी जाई. मैं चौंक पड़ा था.
मैं आज शहर का प्रतिष्ठित नामी अधिकारी बन गया था और मेरा बेटा भी एक नये सम्मान के रास्ते पर अपने कदम बढ़ा रहा है… हम दोनों भी तो उसी माटी के अंश हैं, पुरखों को सम्मान देना हमारा कर्तव्य, परंपरा और संस्कृति है. हमारे संस्कारों में आज भी वह गांव बसता है. तभी मैंने यह निर्णय ले लिया था कि इस बार पुरखों से बेटे को आशीर्वाद दिलाने गांव जरूर जाऊंगा.
तभी काकी की आवाज से मैं अतीत से बाहर आ गया था. वे खाने के लिए बुला रही थी. उन्होंने अपनी बहू के साथ मिल कर बड़े प्रेम से खाना बनाया था. जमीन पर ही चादर बिछा हम एक पंक्ति में बैठ गये थे. मैं, गौरव, काका और उनका बेटा सुदर्शन और उसका बेटा कृष्णा, जो गौरव का ही हमउम्र था. चमचमाती पीतल की थालियों में काकी ने खाना परोसा था.
दाल-भात, बैंगन की तरकारी, धनिये की चटनी और आचार… कीमती डाइनिंग टेबल पर बैठ कांटे-छुरी से खाने की अभ्यस्त उंगलियों ने वर्षों बाद ठेठ पारंपरिक अंदाज अपनाया था. गौरव ने पहले तो चम्मच मांगा, फिर मुझे हाथों से खाता देख, वह भी हाथों से खाने लगा. जब भी हाथ का भोजन कपड़ों पर गिरता, तो वह प्रसन्न मन हंस पड़ता था. वह कहीं से भी परेशानी का अनुभव नहीं कर रहा था. यह देख मैं भी खुश था रात को गौरव कृष्णा के साथ ही सोया. सुबह जल्दी उठ कर गांव के मंदिर में तथा कुलदेवता की पूजा, जो करानी थी, अत: हम जल्दी ही सो गये थे.
भोर में चिड़ियों की मधुर आवाजों ने हमें जगा दिया. सुदर्शन भी जाग गया था और मुझसे नित्यकर्म के लिए पूछा था. गांव में एक अच्छी बात यह हुई थी कि अधिकांश घरों में खेतों में शौच जाने की परंपरा खत्म हो गयी थी. और उसकी व्यवस्था घरों में ही पक्के शौचालय बनवा कर पूरी की गयी थी. अत: मैं आश्चर्य मिश्रित खुशी का अनुभव कर रहा था कि अब गौरव को कोई परेशानी नहीं होगी. पर गौरव है कहां? अभी तक सो रहा होगा. इतनी सुबह उठने की आदत जो नहीं है! मैंने उसे आवाज दी, तो पता चला कि वह तो सुबह ही कृष्णा के साथ कहीं बाहर चला गया था, बगीचे की ओर…
लौटा करीब सात बजे. घुटनों पर जीन्स चढ़ाये, कीचड़, मिट्टी से सने पैर तथा हाथों में पके आमों का झोला उठाये गौरव और कृष्णा किसी बात पर खिलखिला रहे थे. गौरव कीचड़ सने पैरों को धोते हुए बोला -डैडी! बगीचे में घूम कर बहुत मजा आया. पके आम टपक रहे थे और मैं उन्हें दौड़-दौड़ के उठाता गया, ढेर सारे कनेर और अड़हुल के फूल भी लाया हूं, पूजा के लिए. मैं मूक हो उसकी खुशी केवल महसूस कर रहा था. थोड़ी देर बाद हम कुलदेवता की पूजा पर बैठ गये थे.
गौरव के हाथों पूजा कराते समय प्रसाद और फूल अर्पण कराते समय एक-एक पल जैसे मैं जी रहा था. पूजा करते समय जितनी श्रद्धा, भक्ति और उत्साह मैं गौरव के चेहरे पर देख रहा था, मेरे मन की सारी शंकाएं ध्वस्त होती जा रही थीं… कि पता नहीं गौरव इन परंपराओं को कितनी देर तक निभा पायेगा!… पर उसे देख कर तो ऐसा लग रहा था, जैसे वह यहीं पला-बढ़ा और वर्षों से यहीं रह रहा हो.
पता नहीं, हम अपनी नयी पीढ़ी के प्रति इतने सशंकित क्यों रहते हैं? क्यों भूल जाते हैं कि हमारे अच्छे संस्कार उन्हें कभी भटकने नहीं देंगे. उन पर विश्वास करके तो देखें!
घर के चारों कोनों पर बंदनवार बांधते समय घर की दयनीय हालत छुपी नहीं रही थीं. वर्षों से बंद पड़ा मेरा घर जर्जर होकर नष्टप्राय: हो रहा था. कोई उसकी सुधि लेनेवाला नहीं था.
क्योंकि, मेरे जाने के बाद मेरे दोनों भाई भी अपना गांव छोड़ कर विदेश जा बसे थे और उन्हें या भतीजों को गांव का मोह नहीं रहा था. यह बात वे कई बार जाहिर कर चुके थे. मैं अपने बचपन के घर की हालत देख उदास और दुखी हो उठा था. अब तो इस देहरी पर एक दिया जलानेवाला भी कोई नहीं था. सबके रहते हुए भी यह घर अनाथ हो रहा था.
मेरे साथ-साथ घर के हर कोने में अक्षत डाल दीप रखता हुआ गौरव जैसे मेरे मन की बात समझ गया था- डैडी ! एक दिन जब मैं इंजीनियर बन जाऊंगा न, तो दादाजी का यह घर बहुत बड़ा बनवा दूंगा. और दादी जी का तुलसी चौरा भी पक्का संगमरमर का बनवाऊंगा. गांव का हर कोना बिजली से जगमगा उठेगा… जल्दी ही.
मेरी आंखें भीग गयी. मुझे आज अपने गौरव पर अभिमान हो आया था. कौन कहता है कि मेरा घर जर्जर हो गया है?
कोई इस अंधेरे घर में दिया जलानेवाला नहीं? तुलसी चौरे के सामने नतमस्तक हो उठा था मैं. देख लो मां! आज तुम्हारा सपना पूरा हो गया. तुम्हारा और पुरखों का आशीष ले आज यह नयी उम्मीद, नया सपना साकार हो उठा है मां! तुम्हारी ममता की छांव तले इस अंधेरे घर का चिराग जरूर रोशन होगा. लो यह है मेरा गौरव, मेरा अभिमान, तुम्हारा पोता… तुम्हारी देहरी का दीप. आशीष दो मां !मैं और गरिमा नतमस्तक हो उठे थे.

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