16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

नदियों को बहने दो-2 : गाड़ी धोने पर खर्च होता है करोड़ों लीटर पानी

Advertisement

नदियों को बहने दो-2 : अंगरेजों के जमाने में भी इतनी उपेक्षित नहीं थीं नदियां श्रीश चौधरी गंगा जैसी देवनदी द्वारा सिंचित, जैसा स्वर्गीय भूपेन हजारिका गाते हैं, ‘निर्लज्ज भाव’ से बहती देवनदी, के किनारे विश्व का सर्वाधिक पिछड़ा समुदाय रहता है तथा यह जीविका के लिए जहां-तहां भटकता है एवं उन स्थानों के साधनों […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

नदियों को बहने दो-2 : अंगरेजों के जमाने में भी इतनी उपेक्षित नहीं थीं नदियां
श्रीश चौधरी
गंगा जैसी देवनदी द्वारा सिंचित, जैसा स्वर्गीय भूपेन हजारिका गाते हैं, ‘निर्लज्ज भाव’ से बहती देवनदी, के किनारे विश्व का सर्वाधिक पिछड़ा समुदाय रहता है तथा यह जीविका के लिए जहां-तहां भटकता है एवं उन स्थानों के साधनों पर दबाव बढ़ाता है. अकेली दिल्ली की बात करें, तब भी हम नित्य 300 से अधिक ट्रेनों की सफाई तथा पानी भरने की बात कर रहे हैं. इतना पानी कहां से आयेगा? पढ़िए अंतिम कड़ी.
विश्व के अनेक विश्वविद्यालय छोटे शहरों में अवस्थित हैं. ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज, हार्वर्ड आदि अनेक बड़े विश्वविद्यालय छोटे शहरों में अवस्थित हैं. वैसे भी पुरानी परंपरा ऋषियों की राजधानी से दूर रहने की है, न कि वहीं आश्रम एवं कुटी बना कर. इग्नू, जामिया मिलिया आदि प्रकार के विश्वविद्यालय बनाये ही गये हैं, पिछड़े इलाकों एवं वंचित वर्गों तक स्तरीय उच्च शिक्षा सुगमता से उपलब्ध कराने के लिए. इन्हें तो सीतामढ़ी, बेतिया, मधुबनी, किशनगंज आदि जैसी जगहों में होना चाहिए था, जैसा विनोबा भावे का वर्धा आश्रम अथवा गांधी जी का साबरमती आश्रम था.
परंतु एक गलत सोच के कारण ऐसी संस्थाएं भी महानगरों की ठेलमपेल में घुसी हुई हैं और इनकी सीमित प्राकृतिक साधनों पर बोझ बढ़ा है.
अकेले दिल्ली में यहां के निवासियों के पास एवं इनके लिए 70 लाख से अधिक मोटर वाहन हैं. मुंबई कोलकाता चेन्नई, हैदराबाद, बंगलोर, पुणे आदि की भी, ऐसी ही स्थिति है. जिस तेजी से ये शहर क्षेत्र एवं आबादी में बढ़े, उस तेजी से यहां स्थानीय परिवहन, जल मल निष्कासन आदि की व्यवस्था नहीं बढ़ी. निजी वाहनों की संख्या देश में अबाध गति से बढ़ी है. आप कल्पना करें कि इन वाहनों को हफ्ते में एक बार भी धोया जाता है एवं औसतन 40 लीटर पानी, लगभग तीन बाल्टी ही एक बार खर्च किया जाता है, तब भी अकेले दिल्ली में ही करोड़ लीटर पानी हर हफ्ता सिर्फ गाड़ियों को धोने के लिए चाहिए. यही स्थिति अन्य महानगरों की भी है. इतना पानी कहां है? तब आप नदियों का बहना रोक कर बिना भविष्य की चिंता किये हुए बिना और जगहों की चिंता किये हुए, इन महानगरों की आवश्यकता पूरी करते हैं.
एक अधूरी सोच ने नदियों की ऐसी दुर्दशा की है. आजाद भारत में जितना उपेक्षित यहां के गांव एवं छोटे-छोटे शहर रह गये. उतना तो ये प्राय: अंगरेजों के भी जमाने में नहीं थे. जितनी भी सुविधाएं अस्पताल, विश्वविद्यालय, बिजली टेलीफोन सरकारी या निजी क्षेत्र में बने, वे सभी महानगरों तथा इनके उपनगरों में ही लगे, बने. रोजगार एवं जीविका के नये अवसर भी यहीं बने.
सोच कर आश्चर्य होता है कि पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तर बिहार, झारखंड, ओड़िसा, पश्चिमी असम, नेपाल की तराई एवं बांग्लादेश के पश्चिमी इलाकों में पिछले पचास वर्षों में रोजगार के कुछ भी नये अवसर नहीं खड़े किये गये.
फलत: अकेले दिल्ली में, एक आकलन के अनुसार 25 लाख से अधिक लोग उत्तर बिहार में अपना स्थायी निवास छोड़ कर रह रहे हैं. नोएडा तो मुझे पटना का ही थोड़ा अधिक परिष्कृत रूप दिखता है.
यहां मंदिर का पुजारी, रिक्शा-टेंपो, टैक्सी चालक, फल सब्जी आदि सड़क किनारे बेचनेवाला, मकान बनानेवाला दिहाड़ी मजदूर, मिस्त्री, आदि सभी काफी बड़ी संख्या में इसी क्षेत्र से गये लगते हैं. फिर उनका परिवार, उनके आने जानेवाले मित्र-कुटुंब आदि दिल्ली तथा इन महानगरों में काफी बड़ी संख्या में फ्लोटिंग पोपुलेशन तैयार करते हैं. यदि हर सुबह नयी दिल्ली के सुप्रसिद्ध एम्स अस्पताल, सफदरजंग या राममनोहर लोहिया अस्पताल, यहां तक कि मैक्स, मेदांता एवं सर गंगाराम अस्पताल के बाहर खड़ी भीड़ को भी देखें, तो वहां काफी बड़ी संख्या में बिहार के लोग खड़े दिखेंगे. दिल्ली विश्वविद्यालय जेएनयू, आइआइटी आदि में भी एवं अब वहां फैकल्टी में भी, बिहार ओड़िशा आदि के लोग एक बड़े क्षेत्रीय समूह के रूप में उपस्थित हैं.
कन्हैया कुमार सिर्फ साम्यवादी कमीज से ही नहीं हैं, बल्कि छात्र संघ के सचिव हैं. केंद्र सरकार में डेपुटेशन पर गये एक वरिष्ठ बिहारी पदाधिकारी ने बहुत पहले मुझे एक दिन कहा था कि बिहार के लड़के यदि गांव वापस आ जायेंगे, तो देश की अधिकांश चाय की दुकानें बंद हो जायेंगी. आज मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि बिहार के लड़के-लड़कियां यदि गांव वापस आ जायेंगे, तो काफी बड़ी संख्या में सरकारी एवं निजी क्षेत्र की शिक्षण संस्थाएं अस्पताल एवं अन्य उद्योग धंधों को बंद करना पड़ेगा.
मैं जब चार दशक पहले दक्षिण भारत काम करने गया, तो वहां के किसी भी शहर से बिहार के किसी भी हिस्से के लिए सीधी रेल सेवा नहीं थी. एक ट्रेन बोकारो-टाटा होते हुए मद्रास जाती आती थी. दक्षिण के जितने भी लोग बिहार झारखंड में रहें हों. बिहार के गिने-चुने लोग ही उधर थे.
सभी एक दूसरे को जानते थे. चेन्नई के बिहार एसोसियेशन में कुल जमा 500 बिहारी लोग नहीं थे, क्योंकि शहर ही में कुछ हजार सेअधिक लोग नहीं थे. आज दिल्ली, मुंबई, कोलकाता की तो छोड़ें, सूरत में भी बड़ा बिहार एसोसिएशन है. हैदराबाद में है. त्रिवेंद्रम के जीपीओ रोड पर आप कहीं भी मैथिली में पान खरीद सकते हैं, ये सारे पानवाले सीतामढ़ी, मधुबनी मार्ग के गांव से गये हैं. चेन्नई की बसों-लिफ्टों में, बंगलोर के संत मार्क्स रोड की रेस्तराओं में हैदराबाद की साइबर सिटी, गुड़गांव एवं नोएडा के चाइनीज रेस्तराओं में भी खाने-खिलानेवाले काफी बड़ी संख्या में मैथिली-भगही भोजपुरी बोलनेवाले मिलेंगे.
और ऐसा नहीं है कि इन प्रवासी बिहारियों को अपने गांव से प्यार नहीं है. जब सीधी रेल सेवा नहीं थी, तब भी और आज जब प्राय: बिहार के हर भाग से देश के लगभग हर बड़े शहर का सीधा रेल संपर्क है, तब भी ये लोग शादी-ब्याह, मुंडन, उपनयन, होली, दिवाली, छठ, ईद, दुर्गापूजा के लिए आते-जाते रहते हैं.
ईश्वर मेरी सुने तो मैं एक साथ रामविलास जी, नितीश जी एवं बिहार के बाहर सर्वाधिक पहचान वाले बिहारी नेता लालू जी को एक साथ प्रधानमंत्री बनवा दूं. इन लोगों के रेल मंत्री बनने के पूर्व चेन्नई से दरभंगा, मुहम्मदपुर मेरे गांव के स्टेशन तक पहुंचने में 60 से 70 घंटे लगते थे तथा कम से कम चार-पांच बार गाड़ियां बदलनी पड़ती थी. अब 40 घंटे में चेन्नई से पटना, दरभंगा आ जाते हैं. एसी कोच में, उपन्यास पढ़ते, पत्नी से लड़ते, पड़ोस के गांव के लोगों से गपशप मारते, दरभंगा पहुंच जाते हैं. एक बार किसी पत्रकार ने लालू जी से पूछा था कि आप सारी नयी ट्रेनें बिहार में ही दे रहे हैं, तो इनका अपनी विशिष्ट शैली का उत्तर कि ‘क्या ये गाड़ियां केवल बिहार में ही तिरपेच्छन करती हैं?’, आज भी बिहार के प्रवासियों को याद है.
आज पचास के लगभग लंबी दूरी की ट्रेनें रोज बिहार से बाहर जाती हैं और बिहार के बाहर रह रहे बिहारियों को अपने गांव परिवार में हो रहे पर्व उत्सव आदि के लिए गांव वापस ला रही हैं. इन ट्रेनों में बिहार के बाहर का विरला ही कोई व्यक्ति होता है. एक बोधगया-राजगीर-नालंदा को छोड़ दें, तो बिहार आने जानेवाले गैर बिहारी पर्यटकों की संख्या नगण्य है. लगभग यही स्थिति झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तर बंगल, पश्चिमी असम तथा दक्षिणी नेपाल के मैदानी अंचलों में है.
गंगा जैसी देवनदी द्वारा सिंचित, जैसा स्वर्गीय भूपेन हजारिका गाते हैं, ‘निर्लज्ज भाव’ से बहती देवनदी, के किनारे विश्व का सर्वाधिक पिछड़ा समुदाय रहता है तथा यह जीविका के लिए जहां-तहां भटकता है एवं उन स्थानों के साधनों पर दबाव बढ़ाता है. अकेली दिल्ली की बात करें, तब भी हम नित्य 300 से अधिक ट्रेनों की सफाई तथा पानी भरने की बात कर रहे हैं. इतना पानी कहां से आयेगा? पानी, बिजली आदि की राष्ट्रीय प्रतिव्यक्ति उपभोग की तुलना में दिल्ली डेढ़-दो गुना अधिक पानी-बिजली लेती है.
( समाप्त)
(लेखक सेवानिवृत प्रोफेसर,आइआइटी मद्रास हैं और संप्रति जीएलए यूनिवर्सिटी में डिश्टिंगविश्ड प्रोफेसर हैं.)

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें