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नायकों के सम्मान के लिए बिरसा मुंडा और आदिवासी

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अनुज कुमार सिन्हा आजाद भारत के 70 साल के इतिहास में संभवत: यह पहला माैका है, जब देश के किसी प्रधानमंत्री (नरेंद्र माेदी) ने लाल किले की प्राचीर से बिरसा मुंडा की शहादत काे याद किया हाे, उनका नाम लिया हाे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासियाें के संघर्ष का जिक्र करते हुए उन्हें सम्मान दिया […]

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अनुज कुमार सिन्हा

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आजाद भारत के 70 साल के इतिहास में संभवत: यह पहला माैका है, जब देश के किसी प्रधानमंत्री (नरेंद्र माेदी) ने लाल किले की प्राचीर से बिरसा मुंडा की शहादत काे याद किया हाे, उनका नाम लिया हाे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासियाें के संघर्ष का जिक्र करते हुए उन्हें सम्मान दिया हाे. पहली बार यह घाेषणा की गयी कि बिरसा मुंडा समेत अन्य आदिवासी नायकाें (यहां अंगरेजाें के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हाेने की बात हाे रही है) काे इतिहास में जगह मिलेगी, सम्मान मिलेगा, गुमनाम शहीदाें की याद में देश भर में म्यूजियम बनाया जायेगा. यह देश के प्रधानमंत्री की घाेषणा है. इसका सम्मान-स्वागत हाेना चाहिए. 13 अगस्त काे देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातू आये थे.

उसी दिन प्रभात खबर ने बिरसा मुंडा समेत अन्य गुमनाम नायकाें का नाम देते हुए एक रिपाेर्ट छापी थी. शीर्षक था-बिरसा मुंडा ताे महानायक हैं ही, कई नायक बंद हैं दस्तावेजाें में. रिपाेर्ट लिखी ही इसलिए गयी थी, ताकि उस पर सरकार का ध्यान जाये, गृहमंत्री की नजर पड़े. पर ईमानदारी से कहें, ताे बहुत कार्रवाई-घाेषणा या इस पर केंद्र सरकार की नजर पड़ने का भराेसा नहीं था. ऐसा इसलिए क्याेंकि अतीत का अनुभव यही कहता था. हुआ उलट. खुद झारखंड के मुख्यमंत्री ने इसे गंभीरता से लिया. इस रिपाेर्ट में दर्जनाें ऐसे आदिवासी नायकाें के नाम, गांव के नाम, पिता के नाम थे, जिन्हाेंने आजादी की लड़ाई में शहादत दी, कई की माैत ताे जेलाें में हाे गयी थी, कई काला पानी की सजा भुगते थे. पर ऐसे नायकाें के गांववाले भी उनके बारे में नहीं जानते. उनकी वीरता की कहानी-कुर्बानी की उन्हें जानकारी नहीं है. यह सिर्फ सरकारी दस्तावेजाें तक सीमित है.

खबर छपते ही मामला राजनाथ सिंह (गृहमंत्री) तक पहुंच चुका था. वह खुद उलिहातू गये थे. बिरसा मुंडा के वंशजाें से मिलने के बाद जब वह आम सभा काे संबाेधित कर रहे थे, वहीं से उन्हाेंने घाेषणा कर दी कि गुमनाम आदिवासी शहीदाें काे सरकार खाेजेगी. पहली बार आदिवासियाें के संघर्ष काे इतना बड़ा सम्मान मिला है.

ऐसा इसलिए क्याेंकि सरकार (राज्य-केंद्र दाेनाें) आजादी की लड़ाई में शहीद हाेनेवाले आदिवासी नायकाें (सैकड़ाें गुमनाम) के प्रति संवेदनशील निकली. पहले गृहमंत्री आैर उसके बाद देश के प्रधानमंत्री. इन दाेनाें घाेषणाआें के लिए आभार. यह सच है कि बिरसा मुंडा, सिदाे-कान्हाे समेत अन्य महानायकाें, नायकाें काे पूरे देश में अब तक वह सम्मान नहीं मिल पाया था. हां, 16 अक्तूबर, 1989 काे संसद के केंद्रीय कक्ष में बिरसा मुंडा के चित्र का अनावरण जरूर किया गया था. बिरसा मुंडा सिर्फ झारखंड के नहीं थे, पूरे देश के थे, जिन्हाेंने अंगरेजाें के खिलाफ संघर्ष किया था. प्रधानमंत्री-गृहमंत्री के भाषण के बाद अब यह तय हाे गया है कि देश के इतिहास में आदिवासियाें के संघर्ष काे उचित जगह मिलेगी. साथ ही (अगर झारखंड की बात करें) यहां की सरकार उन गुमनाम शहीदाें (चाहे वे आदिवासी हाें या गैर-आदिवासी) का विवरण खाेज निकालेगी, जिन्हाेंने भारत की आजादी में अपनी शहादत दी थी.

चार दिनाें में (13 अगस्त से 16 अगस्त) तीन घटनाएं ऐसी घटीं, जिसने उम्मीद बढ़ा दी है. 13 काे राजनाथ सिंह ने उलिहातू में घाेषणा की, 15 काे प्रधानमंत्री ने.

इस बीच 14 अगस्त की रात में प्राे बीपी केसरी का निधन हाे गया. झारखंड आंदाेलन में बड़ी भूमिका निभानेवाले, यहां की भाषा-संस्कृति काे जिंदा रखने की लड़ाई लड़नेवाले आैर आदिवासी-मूलवासी के सर्वमान्य नेता, बुद्धिजीवी डाॅ केसरी का अंतिम संस्कार झारखंड सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ कराया. मुख्यमंत्री रघुवर दास के निजी प्रयास से ही यह संभव हाे पाया. डॉ केसरी न ताे विधायक थे, न सांसद, न मंत्री, लेकिन झारखंड की पहचान थे. इसलिए ऐसे व्यक्ति का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ करने से राज्य में अच्छा संदेश गया है. इन तीनाें घाेषणाआें-सम्मान देने के लिए आभार. इस उम्मीद के साथ कि यह अंत नहीं है आैर भविष्य में भी ऐसे ही या इससे भी बेहतर कदम उठेंगे.

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