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इतिहास, वर्तमान और भविष्य

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हिंदी साहित्य में किताबों की दुनिया लगातार बड़ी और समृद्ध हो रही है. साहित्य सोपान के आज के अंक में हम आपके लिए लेकर आये हैं नये-पुराने रचनाकारों की कुछ नयी किताबें, जो विभिन्न प्रकाशन संस्थानों की ओर से हमारे पास आयी हैं. अलग-अलग विषयों पर लिखी गयी इन किताबों पर आइए डालें एक नजर- […]

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हिंदी साहित्य में किताबों की दुनिया लगातार बड़ी और समृद्ध हो रही है. साहित्य सोपान के आज के अंक में हम आपके लिए लेकर आये हैं नये-पुराने रचनाकारों की कुछ नयी किताबें, जो विभिन्न प्रकाशन संस्थानों की ओर से हमारे पास आयी हैं. अलग-अलग विषयों पर लिखी गयी इन किताबों पर आइए डालें एक नजर-
माटी माटी अरकाटी
रचनाकार : अश्विनी कुमार पंकज
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन
पृष्ठ : 260
मूल्य : "250
गिरमिटिया मजदूरों की जब भी बात होती है, हमारे सामने ऐसे किसी मजदूर की जो छवि उभरती है वह भोजपुरी समाज का होता है. अभी तक जो भी बहुचर्चित साहित्यिक लेखन सामने आये हैं, उनमें भोजपुरिया गिरमिटियों के बारे में ही खास तौर पर बात हुई है, लेकिन जो झारखंडी आदिवासी मजदूर बाहर गये, जिनको हिल कुली कहा गया, उनके बारे में कहीं बात नहीं होती़ वे हमारी चिंता और चर्चा से कहां और क्यों खो गये, यह सोचने की बात है.
‘माटी माटी अरकाटी’ उपन्यास में हिल कुली कोंता की कहानी है, जिसे लेखक ने गहरी छानबीन के बाद बड़े दिलचस्प तरीके से लिखा है. यह उपन्यास आदिवासी समाज के इतिहास के भूले-बिसरे संदर्भों को नये सिरे से सामने ला रहा है. कोंता और कुंती की इस कहानी को कहने के पीछे लेखक का उद्देश्य पूरब और पश्चिम दोनों के गैर-आदिवासी समाजों में मौजूद नस्लीय और जातीय चरित्र को उजागर करना है, जिसे विकसित सभ्यताओं की बौद्धिक दार्शनिकता के जरिये अनदेखा किया जाता रहा है.
कालांतर में मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गयाना, टुबैगो सहित अन्य कैरीबियन और लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में लगभग डेढ़ सदी पहले ले जाये गये गैर-आदिवासी गिरमिटिया मजदूरों ने बेशक लंबे संघर्ष के बाद इन देशों को भोजपुरी बना दिया है. सवाल है कि वे हजारों झारखंडी जो सबसे पहले वहां पहुंचे थे, वे कहां चले गये? कैसे और कब वे गिरमिटिया कुलियों की नवनिर्मित भोजपुरी दुनिया से गायब हो गये? ऐसा क्यों हुआ कि गिरमिटिया कुली खुद तो आजादी पा गये,
लेकिन उनकी आजादी हिल कुलियों को चुपचाप खत्म कर गयी. एक कुली की आजादी दूसरे कुली के खात्मे का सबब कैसे बनी? क्या थोड़े आर्थिक संसाधन जुटते ही उनमें बहुसंख्यक धार्मिक और नस्ली वर्चस्व की दुर्भावना जाग गयी? इस तरह के कई मूल प्रश्नों को लेखक ने गहरे जीते हुए रचा है.
बिरसा काव्यांजलि
रचनाकार : विक्रमादित्य
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 144
मूल्य : "250
वनवासियों के सिरमौर वीर बिरसा मुंडा का संघर्षमय प्रेरणाप्रद जीवन सबके लिए अनुकरणीय है. उन्होंने अपने ‘युग का प्रश्न’ समझा था, उस युग की पीड़ा पहचानी थी और सबसे ऊपर अपने समय की नब्ज पकड़ी थी़ वह भारतीय इतिहास के उन अग्रणी नायकों में से एक हैं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की गुलामी और अपने समाज की प्रतिगामी नीतियों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाया था.
रचनाकार ने इस पुस्तक में इन्हीं बिरसा मुंडा के जीवन और संदेशों की गाथा प्रस्तुत की है. ब्रिटिश शासन और दिकुओं, जमींदारों ने आदिवासियों के जीवन को संकट में डाल दिया था. ऐसे में बिरसा ने ‘उलगुलान’(क्रांति) का एलान किया. वह ब्रिटिश दासता के खिलाफ संघर्ष के नेता बने. साथ ही सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ उन्होंने ‘बिरसा धर्म’ शुरू किया.
उनके इन प्रयासों ने न सिर्फ आदिवासियों को सबल-सक्षम बनने की राह दिखाई, बल्कि संसार के किसी भी उत्पीड़ित समाज के लिए प्रेरक बनने की क्षमता इनमें है. बिरसा के प्रेरणास्पद जीवन पर खंडकाव्य के रूप में विनम्र काव्यांजलि है यह पुस्तक, जिसकी प्रस्तुति प्रासंगिक और प्रशंसनीय है. रचनाकार ने इस किताब में न केवल बिरसा की जीवन कथा पेश की है, बल्कि आदिवासी समाज में प्रचलित सृष्टि की कथाओं का भी वर्णन किया है.
झारखंड : आदिवासी विकास का सच
रचनाकार : प्रभाकर तिर्की
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 208
मूल्य : "300
ऐसा कहा जाता रहा है कि संविधान की पांचवीं अनुसूची आदिवासियों के लिए उनका धर्मग्रंथ है, जिसके प्रति उनकी आस्था है, उनकी श्रद्धा है. यह धर्मग्रंथ उनके जीने की आशा है, उनका स्वर्णिम भविष्य है. लेकिन संविधान रूपी इस धर्मग्रंथ के प्रति अब आस्था टूट रही है और उनकी श्रद्धा कम हो रही है.
अब यह आस्था बनाये रखने का धर्मग्रंथ नहीं, बल्कि आदिवासी इसे कोरे कागज की तरह देख रहे हैं. इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत विश्लेषण पांचवीं अनुसूची के संवैधानिक प्रावधानों के अलावा आदिवासी समाज के उन तमाम पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश है, जिसका सीधा संबंध संविधान की पांचवीं अनुसूची से है. वर्तमान संदर्भ में यह विश्लेषण पांचवीं अनुसूची के उल्लंघन के कारण उत्पन्न होने वाली उन प्रतिकूल परिस्थितियों पर भी प्रकाश डालने की कोशिश है, जिनके कारण आदिवासी समाज का विकास बाधित होने की आशंका को बल मिल रहा है.
वस्तुतः झारखंड का नवनिर्माण का मकसद हमारी आनेवाली पीढ़ी के भविष्य का निर्माण. इस पुस्तक को प्रासंगिक बनाने के लिए ऐतिहासिक संदर्भों में विद्यमान तथ्यों को भरसक जुटाने की कोशिश करते हुए, झारखंड नवनिर्माण का मार्ग कैसे तय हो, इसकी चिंताधारा ढूंढ़ने की कोशिश की गयी है.
हो-ची-मिन्ह के देश में
रचनाकार : केडी सिंह
प्रकाशक : अखिल भारतीय किसान महासभा, नयी दिल्ली
पृष्ठ : 92
मूल्य : "100
अपनी सादगी और क्रांतिकारिता के लिए वियतनाम के हो-ची-मिन्ह आदर्श राजनीतिज्ञ के रूप में जनमानस पर लंबे काल से प्रभाव छोड़ते आ रहे हैं. इस वियतनाम यात्रा संस्मरण में लेखक ने वियतनाम के पूर्व और वर्तमान हालात, संस्कृति, वातावरण और वहां के किसानों व आम जनों की देशभक्ति, फ्रांसीसी उपनिवेश व अमेरिकी साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए उनका समर्पित संघर्ष, त्याग और बलिदान को जिस तरह से व्यक्त किया है, वह प्रेरक है. लेखक ने वियतनाम के महानायक हो-ची-मिन्ह के साथ-साथ दुनिया में महिला सशक्तीकरण की मिसाल, वियतनाम की राष्ट्रमाता नगुयेन-थी-विन्ह की विशेष चर्चा की है.
नगुयेन-थी-विन्ह ने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया़ अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध का कुशलता से संचालन से लेकर मुक्ति के बाद सरकार चलाने में अपनी दक्षता का भी परिचय दिया़ वियतनाम के विकास का श्रेय थी-विन्ह को भी जाता है और इसीलिए इस किताब में अलग से थी-विन्ह की जीवनी शामिल की गयी है. यह किताब वियतनाम के इतिहास और वर्तमान को रोचक ढंग से जोड़ती है़
भारतीयता का संचारक
पं दीनदयाल उपाध्याय
रचनाकार : संजय द्विवेदी
प्रकाशक : विज्डम पब्लिकेशंस
पृष्ठ : 324
मूल्य : "500
पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रेष्ठ लेखक, पत्रकार, विचारक, प्रभावी वक्ता और प्रखर राष्ट्र भक्त थे. सादा जीवन और उच्च विचार के वे सच्चे प्रतीक थे. उन्होंने शुचिता की राजनीति के कई प्रतिमान स्थापित किये थे. उनकी ऐसी प्रतिभा देख कर ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि यदि मेरे पास एक और दीनदयाल उपाध्याय होता तो मैं भारतीय राजनीति का चरित्र ही बदल देता.
उन्होंने भारतीय राजनीति को एक दर्शन, नया विचार और एक नया विकल्प दिया. इस किताब को चार खंडों में बांट कर दीनदयाल जी के समग्र व्यक्तित्व का आकलन किया गया है. पहले खंड में उनके विचार दर्शन पर चर्चा है.
दूसरे खंड में उनके संचारक, लेखकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व पर विमर्श है. तीसरे खंड ‘दस्तावेज’ में डॉ संपूर्णानंद, श्रीगुरुजी और नानाजी देशमुख द्वारा उन पर लिखी-बोली गयी सामग्री संकलित की गयी है. इसी हिस्से में भाषा और पत्रकारिता पर दीनदयाल जी के दो महत्वपूर्ण लेख भी सम्मिलित किये गये हैं. चौथे अध्याय में एकात्म मानववाद को प्रवर्तित करते हुए दीनदयाल जी के व्याख्यान संकलित किये गये हैं.
आचार्य शिवपूजन सहाय के निबंधों का समीक्षात्मक अध्ययन
रचनाकार : डॉ पुष्पा कुमारी
प्रकाशक : मीनाक्षी प्रकाशन
पृष्ठ : 160
मूल्य : "250
हिंदी की सेवा को जिन विद्वानों ने अपना धर्म माना, उनमें शिवपूजन सहाय का नाम अग्रणी है. उनकी हिंदी सेवा बहुआयामी रही है. उन्होंने हिंदी भाषा के विकास-प्रसार का गुरुतर दायित्व निभाया़ लेखन और पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार का अथक श्रम किया़ शिवपूजन सहाय का हिंदी गद्य लेखन में विशिष्ट स्थान है. उन्होंने हिंदी निबंध साहित्य काे समृद्ध किया़ इस किताब में लेखिका ने शिवपूजन जी के निबंधों की विषयवस्तु पर विस्तार से प्रकाश डाला है.
इतिहास के कुछ और पन्ने
रचनाकार : यदुनाथ सिंह
प्रकाशक : पैरोकार पब्लिकेशंस
पृष्ठ : 95
मूल्य : "150
यह सर्वविदित है कि आजादी की जंग में सारा देश शरीक था, लेकिन इतिहास के पन्नों में सबको जगह नहीं मिल पायी. यह किताब 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त आजमगढ़ की लालगंज तहसील के चौरी, बेलहा, कूबा इलाके में खास तौर पर तरवां, मेहनाजपुर के कुछ जीवित बचे स्वतंत्रता सेनानियों के संस्मरण और उनके द्वारा उपलब्ध कराये गये दस्तावेजी विवरणों के आधार पर लिखी गयी है़ इस जनपदीय इतिहास को लिखने की इस कोशिश के पीछे लेखक की मंश इके के लोगों की आजादी की जंग में भागीदारी को प्रकाश में लाना है़
भावधारा : संस्कृति एवं समाज
रचनाकार : शिव कुमार लोहिया
प्रकाशक : पैरोकार पब्लिकेशंस
पृष्ठ : 166
मूल्य : "200
इस किताब में विभिन्न मौकों पर लेखक द्वारा लिखे गये लेखोंका अनूठा संग्रह प्रस्तुत है़ लेख माला में ‘उतिष्ठित्! जाग्रत! प्राप्य वरान्निबोधत्’, ‘ईश्वर: परमं कृष्ण:’, ‘जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन’ में जहां लेखक का भारतीय आध्यात्मिक सांस्कृतिक मूल्यबोध और उसे पाने की चेतना है, तो वहीं ‘एक पाती नयी बहू के नाम’, ‘आखिर ये आडंबर क्यों’ जैसे लेख आज के दौर की नयी सामाजिक चुनौतियों सेे मुकाबले की आवाज हैं. लेख माला का लेख ‘मेरे बाबूजी’ पिता के प्रति लेखक की भावुकता का उद्गार है.
मेरे सपनों का विश्व
रचनाकार : नानुभाई नायक
प्रकाशक : साहित्य संगम
पृष्ठ : 672
मूल्य : "350
गांधीजी कहते थे कि साहित्य उस भाषा में होना चाहिए, जिसे सामान्य खेत मजदूर तक समझ सके़ लेखक ने कुछ इसी तरह लोकभाषा में यह किताब लिखी है. ‘मेरे सपनों का विश्व’ में लेखक लिखते हैं कि यह सपनों का विश्व गांधीजी और जयप्रकाशजी का है, लेकिन इसे पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि यह सपनों का विश्व सभी संवेदनशील सज्जनों का है. लेखक ने इस पुस्तक में प्रत्येक के संवेदनशील सज्जनों के हृदय को चीर देनेवाले विचार प्रस्तुत कर अपने समदुखी बनाया है. वह दुखी हैं देश के 80 प्रतिशत लोगों की रोजमर्रा की तकलीफों से़

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