18.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

बांग्लादेश में संपन्न तबके का आतंक : निराश हो चुके लोग खतरनाक बदलाव के बारे में सोचने लगते हैं

Advertisement

हिरण्मय कार्लेकर किसी को नहीं पता कि उसकी मौत कब होगी, लेकिन आतंक की आग जब एक बार भड़कती है, तो वह किसी को नहीं बख्शती. एक जुलाई को ढाका में और छह जुलाई को किशोरगंज में हुए हमले यह बताते हैं कि बांग्लादेश के लिए यह मुश्किल घड़ी है. भारत ने वहां की सरकार […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

हिरण्मय कार्लेकर

- Advertisement -

किसी को नहीं पता कि उसकी मौत कब होगी, लेकिन आतंक की आग जब एक बार भड़कती है, तो वह किसी को नहीं बख्शती. एक जुलाई को ढाका में और छह जुलाई को किशोरगंज में हुए हमले यह बताते हैं कि बांग्लादेश के लिए यह मुश्किल घड़ी है. भारत ने वहां की सरकार के साथ दोस्ताना समझौते किये हैं और अपने पड़ोसी मुल्क के प्रति समर्थन के लिए निश्चित तौर पर उसे आगे आना चाहिए. कारण पड़ोस में लगी आग आपके घर तक भी पहुंच सकती है. पढ़िए अंतिम कड़ी.

काफी संख्या में लोग और खास तौर पर बांग्लादेशी इस बात से हैरान हैं कि एक और दो जुलाई की रात को ढाका में एक रेस्टोरेंट को कब्जे में लेकर असभ्य हरकतों को अंजाम देनेवालों में से दो को छोड़ कर शेष अन्य सभी धनाढ्य परिवारों से ताल्लुक रखते थे. यहां तक कि उनकी पढ़ाई-लिखाई देश के नामचीन स्कूलों में हुई थी. ज्यादातर लोगों के मन में आतंकियों को लेकर वही घिसी-पिटी छवि है कि वे वंचित पृष्ठभूमि से आनेवाले मदरसों में पढ़े युवा होते हैं, जिन्हें बरगलाया जाता है और मौत की क्रूर मशीन बनने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है.

जबकि सच्चाई यह है कि गरीबी और आधी-अधूरी शिक्षा की वजह से बढ़नेवाली धार्मिक कट्टरता आतंकवाद की एकमात्र वजह नहीं है.

यहां मैं दो किताबों का जिक्र करना चाहूंगा- एरिक होफर की ‘द ट्रू बिलीवर : थॉट्स ऑन द नेचर ऑफ मास मूवमेंट्स’ और एरिक फ्रॉम की ‘द फीयर ऑफ फ्रीडम.’ इन्हें पढ़ने के बाद यह साफ हो जाता है कि अपने निर्णय की अवहेलना करके कैसे लोग जनांदोलन का हिस्सा बनते हैं और फिर इनके नेता कैसे बुनियादी और ऊपरी बदलाव का सिद्धांत गढ़ते और भाषण देते हैं.

इन किताबों में किये गये विश्लेषण यहां काफी प्रासंगिक हैं. खुद को आइएसआइएस बतानेवालों द्वारा किये जा रहे जंगी जनांदोलन एक प्रकार से बर्बर आतंकी गतिविधियाें की तरह ही हैं. फ्रॉम के मुताबिक, सबसे अहम है सुरक्षा की तलाश. एक शिशु की दुनिया काफी हद तक उसकी मां से घिरी होती, जो उसे सुरक्षित होने का एहसास दिलाती रहती है. बड़े होते जाने के साथ असुरक्षा और खतरे की आशंका बढ़ती जाती है. साथ ही खुद के प्रति चेतना, संवेदना और अकेले होने का एहसास भी बढ़ता है. अकेलेपन और असुरक्षा के एहसास से बाहर निकलने के दौरान ‘प्यार और अपने काम के जरिये दुनिया से, किसी की भावनात्मक, ऐंद्रिक और बौद्धिक क्षमता से स्वाभाविक तौर पर जुड़ाव महसूस होता है.’

फ्रॉम लिखते हैं, ‘खुद की अस्मिता के नष्ट होने से उबरने के दौरान सामर्थ्यहीनता का असह्य एहसास महज एक पक्ष है. इसका दूसरा पक्ष है कि इस कोशिश में हम स्वयं को बाहर से काफी मजबूत कर लेते हैं. यह शक्ति एक व्यक्ति, संस्था, ईश्वर, देश, विवेक या मनोवैज्ञानिक प्रतिबद्धता के रूप में हो सकती है. लिहाजा जब कोई स्वयं का त्याग करता है, तो शक्ति के जिस खेल में उसने खुद को समाहित कर लिया है, एक नयी सुरक्षा और नया गौरव पाता है. ऐसे में दुविधा की पीड़ा के खिलाफ भी सुरक्षा हासिल होती है.

एरिक दर्शाते हैं कि असुरक्षा कैसे किसी को जनांदोलन की ओर ले जाती है.

वे लिखते हैं, ‘कोई उभरता जनांदोलन लोगों को अपने विचारों या वादों से नहीं, बल्कि किसी व्यक्ति के अस्तित्व को अक्षम, पुरुषार्थहीन और बेमानी मानने से इनकार के कारण आकर्षित करता है.’

कुल मिलाकर असुरक्षा एक निजी एहसास है और भिन्न-भिन्न लोगों के साथ इसके कारण अलग-अलग होते हैं. हालांकि, किसी खास समय में समाज के लिए इसके कुछ निर्धारित सामान्य कारण होते हैं. इन कारणों को जंगली जानवरों या दुश्मन कबीले के भय से लेकर युद्ध, मनमानी गिरफ्तारियों, सामंतों की दबंगई और तमाम भय-आशंकाओं व लोकतांत्रिक अधिनायकवाद के तौर पर देख सकते हैं. इस डर में लुटेरों के खतरों से लेकर बाढ़-सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं व बीती सदी के बाद के दौर में आर्थिक मंदी भी शामिल हैं.

सवाल है कि धनाढ्य घरों से ताल्लुक रखनेवाले उन लोगों को आखिर असुरक्षा की कैसी आशंका थी, जो वे आतंकी बने और ढाका में नरसंहार को अंजाम दिया. जाहिर तौर पर उनके समक्ष जीवन का कोई खतरा नहीं रहा होगा, न ही अकाल या भूखमरी जैसी कोई स्थिति रही होगी. उनकी असुरक्षा के पीछे एक कारण यह हो सकता है कि अपने सामाजिक परिवेश में वे अपने सहपाठियों के मुकाबले ज्यादा कामयाब न हो पाये हों. यह भी हो सकता है कि अपने निर्धारित किये गये लक्ष्य को वे अब तक तय नहीं कर पाये हों और उसे हासिल करने को लेकर भी दुविधा में हों. तीसरी वजह यह हो सकती है कि अब तक वे किसी के साथ भावनात्मक रिश्ते नहीं बना पाये हों. खासतौर पर लड़कियों को लेकर किशोरों और युवकों के साथ ऐसा देखा जाता है.

इसके अलावा कई बड़ी सामाजिक वजहें हैं, जो आपके व्यवहार और लक्ष्य को तय करने में भूमिका निभाती हैं. बाजारू अर्थव्यवस्था और विज्ञापन की चमक-दमक एक बड़ा कारक है. इसने भरपूर उपभोग को जीवन का प्राथमिक लक्ष्य बना दिया है और इसके लिए किसी चुनिंदा क्षेत्र में कामयाबी को ही एकमात्र ध्येय बना दिया है. बाजारू अर्थव्यवस्था का इंजन प्रतिस्पर्धा है, यह बात लोगों की जेहन में गहराई तक बैठ गयी है. यहीं से स्वार्थ पनपता है और हताशा पैदा होती है.

बांग्लादेश की बीआरएसी यूनिवर्सिटी में मानवशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर सीउटी साबर की ‘द वायर’ में छपे लेख में कही गयी बात यहां काबिलेगौर है- ‘1980 के नव-उदारवाद के दौर के बाद से बांग्लादेश में अर्थव्यवस्था और जीवनशैली में खासा फर्क आया. न सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियां और गैर-सरकारी संगठन अर्थव्यवस्था पर हावी हुए, बल्कि कॉरपोरेट एजुकेशन सिस्टम के तौर पर अंगरेजी माध्यम स्कूलों की ढाका में बाढ़ आ गयी. महानगरीय उच्च-मध्यवर्ग के कई लोगों को लगा कि ये स्कूल वैश्विक नागरिकों के लिए हैं और यहां से उन्हें ऊंची हैसियत का दर्जा हासिल हो सकता है. इन सबने अभिभावकों की जीवनशैली ऐसी बना दी, जिस बारे में वे पूरी तरह अनभिज्ञ थे. आज वहां बच्चों की ऐसी पीढ़ियां हैं, जिनके सपनों में लंदन और टोक्यो हैं. यानी एक ऐसी दुनिया, जो उनके अभिभावकों की पहुंच से बाहर है. इनमें कई बच्चे ऐसे हैं, जो विदेश नहीं जा सकते. ये वैसे बच्चे हैं, जो पीछे छूट गये हैं और निजी विश्वविद्यालयों में अटके हैं. वैसे भी 9/11 की घटना के बाद से उच्चतर शिक्षा के लिए विदेश जाना ज्यादा मुश्किल हो गया है.’

होफर लिखते हैं, ‘हमारी यह प्रवृत्ति होती है कि हम अपने अस्तित्व को अपने दायरे से बाहर आकार ले रही चीजों में तलाशते हैं.

सफलता और असफलता को परिवेश से अलग करके देखना हमारे लिए मुश्किल है. ऐसे में संतुष्ट लोगों को लगता है कि दुनिया जैसी भी है, अच्छी है और वे खुद को उस अनुरूप ढाल लेते हैं, जबकि निराश हो चुके लोग खतरनाक बदलाव के बारे में सोचने लगते हैं.’ बांग्लादेश में बहुतेरे युवा और जमात-उल-मुजाहिदीन, अंसार अल-इसलाम बांग्लादेश, आइएस और अल कायदा जैसे रूढ़िवादी इसलामी संगठन इसी तरह के बदलाव की बात सोचते हैं.

किसी को नहीं पता कि उसकी मौत कब होगी, लेकिन आतंक की आग जब एक बार भड़कती है, तो वह किसी को नहीं बख्शती. एक जुलाई को ढाका में और छह जुलाई को किशोरगंज में हुए हमले यह दर्शाते हैं कि बांग्लादेश के लिए यह मुश्किल घड़ी है. भारत ने वहां की सरकार के साथ दोस्ताना समझौते किये हैं और अपने पड़ोसी मुल्क के प्रति समर्थन के लिए निश्चित तौर पर उसे आगे आना चाहिए. कारण पड़ोस में लगी आग आपके घर तक भी पहुंच सकती है.

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)(अंगरेजी दैनिक ‘पायनियर’ से साभार)

(अनुवाद : प्रेम प्रकाश)

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें