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आतंक की गिरफ्त में बांग्लादेश : सुशासन की कमी से इसलामी कट्टरपंथ को दावत

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सुशासन की कमी से इसलामी कट्टरपंथ को दावत विश्लेषण : सबको समान अवसर देनेवाला शासन और पड़ोसी मुल्कों के साथ बेहतर रिश्ता ही है रास्ता ताज हाशमी एक जुलाई को ढाका के होली आर्टीजन बेकरी रेस्त्रां में आतंकियों के हमले में एक भारतीय युवती समेत 22 विदेशी नागरिक मार दिये गये. फिर ईद के दिन […]

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सुशासन की कमी से इसलामी कट्टरपंथ को दावत
विश्लेषण : सबको समान अवसर देनेवाला शासन और पड़ोसी मुल्कों के साथ बेहतर रिश्ता ही है रास्ता
ताज हाशमी
एक जुलाई को ढाका के होली आर्टीजन बेकरी रेस्त्रां में आतंकियों के हमले में एक भारतीय युवती समेत 22 विदेशी नागरिक मार दिये गये. फिर ईद के दिन आतंकियों ने किशोरगंज में शोलाकिया ईदगाह मैदान को निशाना बनाया. घटनाएं साबित करती हैं कि बांग्लादेश आतंक की गिरफ्त में है. सिर उठाते कट्टरपंथ को बांग्लादेश के विचारक-विश्लेषक कैसे देखते हैं, इस विषय पर हम एक शृंखला शुरू कर रहे हैं.
बांग्लादेश का मामला थोड़ा अलग है. हिंदू जमींदारों और उपनिवेशवाद के विरोध तथा 19वीं सदी के जेहाद को छोड़ दें, तो अन्य इसलामी मुल्कों के मुकाबले बांग्लादेश के मुसलमान ज्यादा समन्वयवादी रहे हैं. खेतिहर लोग वहां समाज की मुख्यधारा से जुड़े हैं. शहरी आबादी भी खासी आस्थावान है.
1971 में आजाद होने के बाद बांग्लादेश में राजनीतिक इसलाम और इसलामी विचारों पर खास तौर पर जोर दिया गया और यहीं से वहां शासन की दिक्कतें शुरू हुईं. 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत दखल के बाद बांग्लादेश में पहली बार इसलाम का जेहादी रूप दिखा. वैसे, 1820 से 1850 के बीच उत्तर-पश्चिमी भारत में हजारों मुसलमानों ने जेहाद में हिस्सा लिया था. सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831) ने सिख राजा रणजीत सिंह और बाद में उनके अनुयायियों ने फिरंगियों के खिलाफ जेहाद छेड़ा था. उनके जेहादी संगठन का नाम था- जमात उल-मुजाहिदीन. जमात उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) की पैदाइश इसी से जुड़ी है.
बांग्लादेशी इसलाम को समझने के लिए इस अंतर को समझना जरूरी है कि वहां सेक्युलर नेताओं ने क्या वादे किये और लोगों को क्या हासिल हुआ. बाद के दिनों में बांग्लादेश धार्मिक सहिष्णुता और शांति के दायरे से निकलता चला गया. 1990 के बाद से तो वहां कई आतंकी हमले और आत्मघाती विस्फोट हुए. कानून और शासन की खराब स्थिति, सीमित आजादी और व्यापक गरीबी जैसे कई आंतरिक और बाहरी कारणों से वहां अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ी. इसने नये इसलामी विचारों और आतंकवाद को पनपने का मौका दिया.
शीत युद्ध के बाद कमजोर हुए वामपंथी आंदोलन ने गरीबों-वंचितों के बीच इसलाम को नये सिरे से लोकप्रिय बनाया. दिलचस्प है कि बांग्लादेश में सामान्य लोगों के साथ फौज, अर्ध-सेक्युलर बुद्धिजीवी और मौलवी अपने-अपने तरह से इसलाम को अपना वैचारिक आधार बताते हैं.
ऐसे में, जबकि वहां शासनतंत्र राजनीतिक और सांस्कृतिक तौर पर इसलामी झुकाव वाला है, वहां फौजी शासन और इसलामीकरण के बीच लोकतंत्र दम तोड़ता जा रहा है. शेख मुजीब ने, जो राष्ट्रीय, समाजवादी और सेक्युलर लोकतंत्र की राह बांग्लादेश को दिखायी थी, वह कल्याणकारी राज्य की शक्ल लेने में असफल रहा. इस तरह वहां बदतर शासन और गरीबी का इसलामी समाधान सामने आया. 1975 के आरंभ में मुजीब की एकल दलीय तानाशाही, सोवियत मॉडल का आखिरी विस्तार था.
इस दौरान मध्य-पूर्व के देशों से लौट कर आये बांग्लादेशी कामगारों ने मध्यकालीन इसलामी विचारों की जड़ें वहां पुख्ता कर दीं. अपने को सही ठहराने के लिए फौजी और लोकतांत्रिक दोनों ही हुक्मरानों ने वहां इसलाम की आड़ ली.
ईरानी क्रांति और अफगानिस्तान में सोवियत दखल की प्रतिक्रिया में शुरू हुए अफगान जेहाद ने अंतरराष्ट्रीय इसलाम का एक नया पाठ पूरी मुसलिम दुनिया को पढ़ाया. खुद को अफगान मुजाहिदीन की शिनाख्त देनेवाले हजारों बांग्लादेशी मुसलिम युवक अस्सी के दशक में पाकिस्तान और बांग्लादेश में चल रहे अंतरराष्ट्रीय आतंकी नेटवर्क से जुड़े. नतीजतन बांग्लादेश में सिर्फ खुदा को माननेवाले विचार की जगह सेक्युलरवाद आया. लेकिन, 1988 आते-आते नौबत यह आ गयी कि वहां इसलाम राष्ट्रीय धर्म बन गया.
हालांकि, राज्य प्रायोजित इसलाम वहां राजनीतिक इसलाम और इसलामी आतंकवाद के उदय की असली वजह नहीं है. दरअसल, शीतयुद्ध के बाद की बदली परिस्थितियों में बांग्लादेशियों को यह महसूस हुआ कि उन्हें और उनकी इसलामी आस्था का पश्चिमी जगत अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर रहा है. इसके समानांतर मुसलिम दुनिया के दूसरे हिस्सों में बांग्लादेशी राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक तौर पर इसलामी रुझान की तरफ ज्यादा बढ़ रहे थे. इनमें पश्चिमी तालीम हासिल करनेवाले उच्चवर्ग के लोग भी शामिल थे. इस तरह राजनीतिक इसलाम पूंजीवाद के विकल्प की शक्ल लेने लगा.
एक जुलाई को ढाका में हुआ आतंकी हमला हैरान नहीं करता है. ‘युद्ध अपराधियों’ के लिए मौत की मांग के साथ 2013 में हुए शाहबाग आंदोलन के बाद से ही इसलामी आतंकवादी यहां धर्मनिरपेक्ष लेखकों, ब्लॉगरों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या कर रहे हैं. कथित युद्ध अपराधों के लिए कई जमात नेताओं को फांसी पर लटकाये जाने से बहुत से मुसलिम उत्तेजित हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि ढाका में हमले करनेवाले कुछ आतंकी जमात समर्थक चरमपंथियों के प्रभाव में आ गये.
हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि हजारों बांग्लादेशी मुसलमान अफगान जेहाद, तालिबान, अल-कायदा और बाद के दिनों में आइएस की तरफ खिंचे हैं. इनमें सैकड़ों तो सीरिया में आइएस से सीधे तौर पर जुड़ भी चुके हैं. वंचित और आक्रोश से भरे समाज के एक बड़े हिस्से ने पिछले करीब तीन दशकों में इसलामी आतंकवाद को एक बड़ी शिनाख्त देने में रोल अदा किया है. 9/11 में शामिल कोई भी आतंकी न तो गरीब था और न ही उसने मदरसे में पढ़ाई की थी.
इनके आकाओं में तो कुछ अपवादों को छोड़ कर ज्यादातर डॉक्टर, इंजीनियर और तकनीकी विशेषज्ञ हैं. इसलिए हैरत नहीं कि गुलशन हमले में मारे गये सभी आतंकी पढ़े-लिखे और उच्चवर्गीय परिवारों से आये थे. किशोरगंज में ईद मनाने के लिए जुटे लोगों पर हमला करनेवाले जिस आतंकी को पुलिस ने मार गिराया, वह बांग्लादेश के एक अंगरेजी माध्यम के प्राइवेट यूनिवर्सिटी का छात्र रह चुका था. इसलिए यह कहना गलत होगा कि आतंकवाद सिर्फ मदरसों की देन है.
जाहिर है, आतंकवाद महज गरीबी से नहीं जुड़ा है. इससे गरीबों की स्थिति में कोई फर्क भी नहीं आता है, लेकिन यह गरीबों के लिए एक हथियार जरूर है. निश्चित रूप से इसके लिए लोगों को बहकाया गया है.
अगर कोई समाज मध्ययुगीन मान्यताओं को तरजीह दे, जिंदगी की जगह मौत का जश्न मनाये और शांतिपूर्ण बदलाव के किसी विकल्प को न सुझाये, तो वह तो आतंकवाद, अराजकता और विनाशवाद के लिए सबसे मुफीद होगा ही. कहने की जरूरत नहीं कि सबको समान अवसर देनेवाला शासन और पड़ोसी मुल्कों के साथ बेहतर रिश्ते ही बांग्लादेश को आतंकवाद की जद से बाहर निकाल सकता है.
(लेखक अमेरिका के आॅस्टिन पीए स्टेट यूनिवर्सिटी में रक्षा अध्ययन विभाग में प्राध्यापक हैं.)( द बांग्लादेश क्रॉनिकल से साभार)(अनुवाद : प्रेम प्रकाश)

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