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पहली मुलाकात में राणादिल का हुआ दाराशुकोह

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हमारे देश के इतिहास में इश्क की हजारों दास्ताने दर्ज हैं, जिन्हें समय-समय पर सियासी रंजिशों ने अपना शिकार बनाया और वह हाल किया कि आनेवाली पीढ़ियां उन्हें याद भी ना कर पायें. ऐसी ही एक मुहब्बत थी बादशाह शाहजहां के शहजादे दाराशुकोह और बेगम राणादिल की, जिन्होंने जमाने की परवाह किये बगैर साथ रहने […]

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हमारे देश के इतिहास में इश्क की हजारों दास्ताने दर्ज हैं, जिन्हें समय-समय पर सियासी रंजिशों ने अपना शिकार बनाया और वह हाल किया कि आनेवाली पीढ़ियां उन्हें याद भी ना कर पायें. ऐसी ही एक मुहब्बत थी बादशाह शाहजहां के शहजादे दाराशुकोह और बेगम राणादिल की, जिन्होंने जमाने की परवाह किये बगैर साथ रहने का फैसला किया. जिन्हें खुदा ने साथ लाया था, पर जमाने की रंजिशों ने उन्हें जुदा कर दिया.
मुगल बादशाह शाहजहां के शासनकाल में एक तवायफ बड़ी मशहूर हुई. नाम था राणादिल़ आगरे की इस तवायफ की पहलू में आने की हसरत उस जमाने के सभी अमीर, उमराओं के दिल में हिलोर मारती थी. वह थी भी ऐसी. उसकी खूबसूरती, उसका बांकपन और उसकी अल्हड़ जवानी सबको दीवाना बना देती थी. राणादिल मनशोख भी इतनी थी कि उसकी महफिल उसकी मर्जी की मोहताज हुआ करती थी.
पदवी और पैसे को वह अपनी जूतियों की नोक पर रखती थी. लेकिन वही तवायफ एक दिन शाहजहां के बड़े बेटे दाराशुकोह के हाथों दिल की बाजी हार बैठी. दाराशुकोह भी पहली ही मुलाकात में राणादिल का हो कर रह गया. दाराशुकोह ने जहां अपने इल्म, शेरो-शायरी और सूफियाना अंदाज से राणादिल के दिल में अपनी जगह बनायी, वहीं राणादिल ने अपनी गायिकी, शायरी की समझ और राग-रागिनियों की बारीक पेचीदगियों की पहचान के जरिये दाराशुकोह को अपना बना लिया.
इस पहली मुलाकात के बाद दाराशुकोह और राणादिल के बीच मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया़ शाही रस्मो-रिवाज की परवाह न करते हुए अब दाराशुकोह राणादिल की हवेली में भी आने-जाने लगा. दाराशुकोह जितना राणादिल की खूबसूरती से मजबूर था, उससे ज्यादा कहीं वह उसकी काबिलियत और पाक मुहब्बत का कायल था. कहते हैं कि इतनी मुहब्बत होने के बावजूद उनके बीच जिस्मानी ताल्लुकात न थे और राणादिल इस बात का खास ख्याल रखती थी़
कुछ दिनों तक तो उनका यह प्यार छिपा रहा, लेकिन धीरे-धीरे यह जगजाहिर होने लगा और एक दिन यह बात बादशाह सलामत शाहजहां के कानों तक भी जा पहुंची. राणादिल और दाराशुकोह की इस मुहब्बत पर तो मुल्ला-मौलवियों व अन्य कट्टर मुसलमानों की नजरें पहले से ही टेढ़ी थीं, अब बादशाह सलामत भी सोच में पड़ गये.
दाराशुकोह शाहजहां का लाड़ला था, लेकिन जब उसके कानों तक यह बात पहुंची कि उनका बेटा एक हिंदू तवायफ से शादी कर उसे मुगलिया सल्तनत की तकदीर और हिंदुस्तान की मल्लिका बनाने की हसरत रखता है, तो उसे यह बात नागवार गुजरी. राणादिल और दाराशुकोह की मुहब्बत के कुछ राजदार भी थे़ इनमें दारा की बड़ी बहन जहांआरा और उसके गुरु जगन्नाथ पंडित जैसे नाम शामिल थे. शाहजहां ने बेटी जहांआरा को अपने पास बुलाया और मामले की सच्चाई जाननी चाही.
जहांआरा ने साफ-साफ बता दिया कि दारा राणादिल से प्यार करता है और उसकी हवेली पर आता-जाता है. लेकिन राणादिल एक नेक औरत है और वह दाराशुकोह को एक हद के आगे कभी नहीं बढ़ने देती. उसकी मुहब्बत पाक है. यह जान कर बादशाह को थोड़ी तसल्ली हुई, लेकिन अब उसने जल्द से जल्द दाराशुकोह की शादी करने का मन बना लिया और इसकी जिम्मेदारी जहांआरा को सौंपी कि वह दारा के लायक दुल्हन की तलाश करे. जहांआरा ने जल्द ही दाराशुकोह के लिए एक दुल्हन तलाश ली. यह कोई और नहीं बल्कि मरहूम बादशाह अकबर की पोती जहांबानू की बेटी नादिराबानू थी. बड़ी मुश्किल से दाराशुकोह अपने मन को मार कर इस शादी के लिए राजी हुआ़ राणादिल भी शाही फरमान के आगे बेबस थी़
दाराशुकोह और नादिराबानू के निकाह के दूसरे दिन राणादिल अपनी हवेली में गुमसुम अपने बिस्तर पर लेटी थी. आज उसने रोज की तरह खुद को सजाया भी नहीं था़ उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसकी दुनिया उजड़ गयी हो.
अपनी खास बांदियों की गुजारिश पर वह दाराशुकोह और नादिराबानू को उनकी शादी की मुबारकबाद देने के लिए राजी हुई. बांदियों ने उसे ऐसा सजाया था कि वह आईने में खुद को देख कर लजा उठी़ अपने लाव-लश्कर के साथ राणादिल जब दाराशुकोह के महल पर पहुंची, तो वहां दाराशुकोह के अलावा उसकी बेगम नादिराबानू और आपा जहांआरा भी उसके खैरमकदम को खड़ी थीं. पहले तो नादिराबानू को थोड़ा अटपटा लगा, लेकिन जल्दी ही वह समझ गयी कि राणादिल कोई साधारण तवायफ नहीं बल्कि आला दर्जे की विदुषी है़ संगीत और शास्त्रों के विषय में उसकी गहरी पकड़ है. जब राणादिल ने नादिराबानू से यह कहा कि वह तो सिर्फ उनकी बांदी है, तो बेगम ने उसे अपने सीने से लगा लिया और कहा कि आप बांदी नहीं, मेरी बहन हैं.
इसके बाद नादिरा ने अपने दाहिने हाथ की मध्य उंगली की अंगूठी उतार कर राणादिल को पहना दी. राणादिल को अब बेगम की मुहब्बत भी मिल गयी थी.
राणादिल तो नादिराबानू की बहन बनकर ही संतुष्ट हो गयी थी, लेकिन दाराशुकोह ने उससे वादा किया था कि वह उससे शादी जरूर करेगा, इसलिए वह राणादिल से शादी की जुगत भिड़ाने लगा. इस काम में उसने अपनी बड़ी बहन जहांआरा और अपने गुरु जगन्नाथ पंडित को लगाया. बादशाह शाहजहां ने पहले तो इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया, लेकिन बेटे की जिद के आगे उसकी एक न चली. अंत में बादशाह शाहजहां ने शादी की इजाजात दे दी.
राणादिल ने कहा कि वह हिंदू रीति से शादी करेगी, क्योंकि मुसलिम धर्म में शादी एक समझौता है, जबकि हिंदू धर्म में जन्म-जन्मांतर का साथ़ और वह हर जन्म में दाराशुकोह को ही अपने पति के रूप में पाना चाहती है़ भारी मन से ही सही, शाहजहां इसके लिए भी राजी हो गया़ दाराशुकोह राणादिल से कितनी मुहब्बत करता था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह हिंदू भावनाओं के अनुरूप अपने दाहिने हाथ की अंगुली में जो अंगूठी पहनता था, उस पर प्रभु लिखवा दिया था.
शादी के बाद जब दाराशुकोह शाहजहां से मिलने के लिए रवाना होने लगा तो राणादिल ने उससे कहा कि आप यह अंगूठी अपने हाथ से निकाल दीजिए, क्योंकि इस पर प्रभु लिखा हुआ है, जिसका गलत अर्थ निकाला जा सकता है. दारा ने उसे प्यार से गले लगाया और कहा कि मेरी मुहब्बत इतनी कमजोर नहीं कि ऐसी छोटी बातों से घबरा जाये़
बहरहाल, इसे इतिहास की विडंबना ही कहेंगे कि दाराशुकोह हिंदुस्तान का वलिअहद (युवराज) तो बना लेकिन बादशाह नहीं बन सका़ उसका छोटा भाई औरंगजेब उसकी मासूमियत और भलमनसाहत को कमजोरी बनाकर उसके खिलाफ षड्यंत्र करने में सफल हो गया और हिंदुस्तान का इतिहास नया सूरज देखने से वंचित रह गया. जब औरंगजेब ने दाराशुकोह का कत्ल करा दिया, तो राणादिल ने दिल्ली में यमुना किनारे निगमबोध घाट पर सती होने के लिए अपनी चिता सजायी, लेकिन फकीर सरमद ने समझा-बुझा कर उसे ऐसा करने से रोका.
बाद में राणादिल फकीर सरमद की शिष्या बन कर साध्वी वेश में रहने लगी. लोग राणादिल की दिल से इज्जत करते थे और उसे सिद्ध योगिनी समझ कर उसका आशीर्वाद लेने आते थे. एक दिन अचानक यह योगिनी न जाने कहां चली गयी़ शायद इतनी दूर कि इतिहास की किसी किताब में उसका नाम तक नहीं आया और न उसकी कोई कब्र या समाधि बनी.
…और आखिर में
दाराशुकोह और राणादिल की मुहब्बत की यह दास्तान दुनिया की आंखों से ओझल ही रह गयी होती, अगर इतालवी यात्री निकोलाओ मनूची ने अपनी पुस्तक ‘स्टोरियो द मोगर’ में इसका जिक्र न किया होता. मनूची न सिर्फ एक यायावर था, बल्कि अव्वल दर्जे का गोलंदाज भी था. इसने दाराशुकोह की तरफ से सामूगढ़ के युद्ध में मुख्य तोपची बन कर हिस्सा भी लिया था. वैसे बेगम जहांआरा ने भी अपनी आत्मकथा में जो फारसी में है, दाराशुकोह की इस मुहब्बत का जिक्र किया है. इतिहासकार केशव ठाकुर ने इस किताब का अनुवाद हिंदी में किया है.

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