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अंदर के रावण को मारना होगा

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बल्देव भाई शर्मा कल रामनवमी बीत गयी. बड़े हर्षोल्लास के साथ हम सबने भगवान श्रीराम का एक आैर जन्मदिन मना डाला. राम का जन्मदिन मनाना एक पारंपरिक कर्मकांड-सा हो गया है हर साल क्योंकि पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और मंदिरों की एक से एक शानदार सजावट के बावजूद राम शायद ही किसी के मन में विराजने को […]

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बल्देव भाई शर्मा

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कल रामनवमी बीत गयी. बड़े हर्षोल्लास के साथ हम सबने भगवान श्रीराम का एक आैर जन्मदिन मना डाला. राम का जन्मदिन मनाना एक पारंपरिक कर्मकांड-सा हो गया है हर साल क्योंकि पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और मंदिरों की एक से एक शानदार सजावट के बावजूद राम शायद ही किसी के मन में विराजने को उत्सुक दिखते हो.

एक फिल्म आयी थी ‘स्वदेश’, उसमें रामलीला का दृश्य है और रावण की कैद में छटपटाती सीता मैया की पीड़ा इन शब्दों में फूट पड़ती है- ‘पल-पल है भारी, ये विपदा है आयी/मोहे बचाने तुम आओ रघुराई/आओ मेरे राम आओ.’ इसी गीत में आगे एक पंक्ति आती है- ‘मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में हैं’, काश हम ये समझ पायें कि जब तक मन में रावण रूपी विकार बुराइयां बैठी हैं तब राम वहां कैसे विराजेंगे. स्वयं राम बनकर हमें उन विकारों-बुराइयों पर विजय पानी होगी अपने अंदर के रावण को मारना होगा. तभी तो राम हमारे मन में विराजेंगे.

वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ हो या तुलसी कृत ‘श्रीरामचरितमानस’, इनके माध्यम से राम के जीवन की गाथा इसीलिए जनमानस के सामने रखी गयी, ताकि हम मानव जीवन के अर्थ और उसकी उपयोगिता को समझ सकें. उसके अनुसार जीवन जीने की राह हम पा सकें.

इस धरती पर मानवता की सुगंध फैले. प्रेम, बंधुत्व, समरसता, भक्ति, सेवा, त्याग, शुचिता और पुरुषार्थ जैसे गुणों से हमारा जीवन सजे. शायद इसीलिए महर्षि वाल्मीकि ने राम के मनुष्य रूप को ही श्रेष्ठतम मानवीय गुणों से युक्त बता कर उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में हमारे सामने रखा. वाल्मीकि हमें राम दिखाना चाहते हैं कि जब दशरथ पुत्र राम इन गुणों का आचरण कर मर्यादा पुरुषोत्तम यात्री श्रेष्ठ मनुष्य बन सकते है तो हम क्यों नहीं? व्यक्ति विचार से नहीं, आचरण से यानी श्रेष्ठ विचार के अनुशीलन से महान बनता है. संत तुलसीदास ने राम के इसी गुण समुच्चय को आराध्य के रूप में स्वीकारा और राम भक्ति की धारा प्रवाहित की.

रामायण हमारे भारतीय वांग्मय का निचोड़ जैसा महाकाव्य है. यही जीवन दृष्टि और मानवीय गुणों का संस्कार वेद, पुराण, उपनिषद में धर्म कहा गया है. राम उसका मूर्तिमंत स्वरूप हैं. इसीलिए वाल्मीकि ने कहा ‘रामो विग्रहवान धर्म:.’ यानी राम धर्म का साकार रूप हैं.

मानो धर्म राम का रूप लेकर साक्षात प्रकट हो गया हो.

आज राजनीतिक उद्देश्य के चलते भले ही राम के अस्तित्व को मानने से इनकार करते हुए इसे एक काल्पनिक चरित्र-चित्रण बता दिया जाय. अथवा राम के नाम को सांप्रदायिकता से जोड़ कर व्याख्यायित किया जाये. लेकिन राम नाम के प्रति गांधी का विश्वास अडिग था.

गांधी के वर्धा आश्रम के प्रवेश द्वार के बाहर बाउंड्रीवॉल पर लिखा है ‘राम का नाम विकारों, राेग और भय से मुक्ति दिलाता है’ गांधी ऐसे ही कुछ भी नहीं कह देते थे, वह विचार का अनुशीलन करने के बाद कुछ कहते थे. गांधी से बड़ा प्रयोगधर्मी शायद ही कोई हुआ हो. उन प्रयोगों में उन्होंने पूरी पारदर्शिता भी बरती. उन्होंने इसकी भी कभी परवाह नहीं की कि इस बारे में जान कर कोई उनके प्रति क्या राय बनायेगा. यही उनका सत्य के प्रति आग्रह था. राम के प्रति उनके विश्वास को सहज ही समझा जा सकता है.

राम को नकार कर आप भारतीयता तो क्या मनुष्यता को भी नहीं समझ पायेंगे. राम को जिंदगी के सीधे रास्ते चल कर ही समझा और पाया जा सकता है. चालाकी, मक्कारी, स्वार्थ, लोभ, द्वेष की राह चल कर या छल-प्रपंच से आप दुनियावी लाभ तो हासिल कर सकते हैं पर राम से उतने ही दूर होते चले जायेंगे. रहीम ने इसे कितने भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है. ‘रहिमन मुश्किल आ पड़ी, उलटे दोउ काम/सीधे से जग ना मिले, टेडे मिले न राम’. राम को पाना है तो टेड़ा चलना छोड़ना पड़ेगा.

राम की कथा को ‘रामायण’ या ‘श्रीरामचरितमानस’ से प्रेरित होकर कितने ही कवियों ने आख्यान रच डालें. कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंशम’ में राम की महत्ता बताते हुए लिखा है समुद्र इव गांभीर्य, धैर्येन हिमवान इव. इक्क्ष्वाकु वंश प्रभावो रामो नाम जनै: श्रुत:.’ जिनके अंत:करण में समुद्र जैसी गंभीरता और हिमालय जैसा धैर्य है, उन्हीं इक्क्ष्वाकु वंश के स्वामी को राम के रूप में लोग जानते हैं.

आज के दौर में हर चीज के प्रति आदमी इतना व्यग्र और अधीर हो गया है की उसे हर हालत में पाने के लिए या तो दूसरे को मारने तक को तत्पर हो जाता है या अपनी जान देने को. राम की गंभीरता और धैर्य यदि हमारे मन में स्थान पा जाये तो जीवन की आधी समस्याएं तो खुद-ब-खुद खत्म हो जायेंगी. शायद ही इसीलिए तुलसीदास ने लिखा, राम कथा सुंदर कर तारी/संशय विहग उड़ावन हारी. राम कथा उस करतल ध्वनि (ताली) के समान है. जिसकी आवाज सुन कर पक्षी तुरंत उड़ जाते हैं, वैसे ही उसे सुन कर मन के सारे संदेह, ऊहापोह, क्लेश फुर्र हो जाते हैं.

तुलसीदास राम को परम तत्व मानते हैं जो सारी सृष्टि में विद्यमान है. उसकी व्यापकता बताते हुए उन्होंने लिखा है ‘जड़ चेतन जल जीव नभ, सकल राममय जान’. जब सबमें राम समाया है तो भेद कैसा? समानता, बंधुत्व और समरसता का मंत्र है राम का नाम, बशर्ते उसे हम हृदय से अंगीकार करें, उसे अपने भाव में समा लें. आधुनिक बुद्धि से राम का छिद्रान्वेषण करके कोई अपनी बुद्धिमत्ता पर तो गर्व कर सकता है, लेकिन वह मनुष्य होने से उतना ही दूर होता चला जायेगा.

मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में राम का जो अनूठा चरित्र चित्रण किया है वह स्वार्थ, क्रोध व हिंसा में डूबे व्यक्ति के लिए आंखें खोल देने वाला है. राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटते हैं और सीधे नंदीग्राम जाते हैं जहां से भरत उनकी खड़ाऊं लेकर प्रतीक के तौर पर राज्य संचालन करते हैं. भरत ने राम से कह रखा था कि 14 वर्ष के बाद एक पल भी आपको आने में विलंब हुआ तो प्राण त्याग दूंगा. राम अपने प्रति भरत के प्रेम और भक्ति को जानते थे वह सीधे पहुंच कर कि जहां भी विलंब हो गया तो अनर्थ हो जायेगा.

राम के आने पर भरत राज-काज राम को सौंप देते हैं. लेकिन राम की आंखों से आंसू बरसने लगते हैं. भरत यह देख कर विह्वल हो गये, पूछा यह तो खुश होने का दिन है कि अयोध्या की प्रजा को अपना प्राणप्रिय राज मिल गया. आप रो क्यों रहे हैं. राम का उत्तर सुनिए – ‘खोकर रोये सभी, भरत मैं पाकर रोया’. अरे भरत, दुनिया में सब कुछ-न-कुछ खो कर रोते हैं लेकिन मैं तुमसे राजपाट पाकर भी इसलिए रो रहा हूं कि अब अयोध्या की प्रजा तुम्हारे जैसे धर्मनिष्ठ राजा से वंचित हाे जायेगी. यह राम ही कर सकते हैं.

पिता की आज्ञा पर कभी जिस साम्राज्य को ठोकर मार दी थी राम ने आज फिर भ्रातृप्रेम उस सिंहासन को स्वीकार करने में बाधा बन रहा है. इसलिए राम पाकर भी दु:खी है रो रहे हैं. आज जब स्वार्थ और लोभ में भाई-भाई का गला काट रहा है, जब सारे रिश्ते-नाते बेमानी होते जा रहे हैं तब राम का यह चरित्र इंसानियत को प्रेम और त्याग सिखाने वाला हैं.

एक सम्राट के रूप में राजा रामचंद्र ने जिस तरह प्रजा वात्सल्य को ही वरीयता दी, वह सत्ता की राजनीति करने वालों के लिए मार्गदर्शक हैं. वाल्मीकि राम उद्घोष सुनाते हैं- ‘स्नेह, दयाच, सौरव्यं च यदि व जानकीमपि/आराध्यनाथ, लोकस्था मुज्चते नास्त्रि में व्यथा’. राम राज्य संचालन को लोक आराधना मानते है और इसके लिए वह स्नेह, दया, साख्यभाव जैसे उन गुणों को भी बिना कोई क्लेश महसूस किये छोड़ देने को तैयार हैं जो राम की पहचान हैं, जो उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाते हैं.

इतना ही नहीं, प्रजा की सेवा को पूजा मानते हुए राम अपने प्राणों से प्यारी जानकी को भी बिना किसी व्यथा के छोड़ देने को तैयार हैं. यह है राम राज्य का आदर्श. इसलिए गांधीजी ने भारत की स्वाधीनता के बाद देश की शासन-व्यवस्था रामराज्य पर आधारित बनाने का आग्रह किया क्योंकि रामराज्य की संकल्पना ही लोकतंत्र का मूल आधार हैं.

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