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स्मार्ट शहर से अधिक स्मार्ट स्कूलों की जरूरत

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जापान के स्कूलों में 300 वअमेरिका में 250 दिनों तक होती है पढ़ाई श्रीश चौधरी डिस्टंग्विश्ड प्रोफेसर जीएलए विश्वविद्यालय मथुरा शिक्षक को वे सारे कार्य करने हैं, जिनके लिए न तो उसकी नियुक्ति हुई है, न ही वह इच्छुक या प्रशिक्षित हैं. 90% से अधिक बच्चे तीसरी-चौथी कक्षा में पहुंच जाने पर भी अपनी ही […]

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जापान के स्कूलों में 300 वअमेरिका में 250 दिनों तक होती है पढ़ाई
श्रीश चौधरी
डिस्टंग्विश्ड प्रोफेसर
जीएलए विश्वविद्यालय मथुरा
शिक्षक को वे सारे कार्य करने हैं, जिनके लिए न तो उसकी नियुक्ति हुई है, न ही वह इच्छुक या प्रशिक्षित हैं. 90% से अधिक बच्चे तीसरी-चौथी कक्षा में पहुंच जाने पर भी अपनी ही कक्षा की हिंदी पुस्तक की दो-चार लाइनें भी दो-चार मिनटों में शुद्ध व सहज स्वर में नहीं पढ़ सकते हैं. मध्याह्न भोजन के अतिरिक्त बच्चों को पाठशाला में कोई आकर्षण नहीं रह गया है. पढ़िए सरकारी प्राथमिक स्कूलों की मौजूदा स्थिति पर टिप्पणी की पहली कड़ी.
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने एक पत्रकार के प्रश्न के उत्तर में कहा था कि व्हाइट हाउस पहुंचने पर सबसे बड़ा आश्चर्य उन्हें यह हुआ कि पिछले प्रशासन पर वह जितना आरोप लगा रहे थे, वह सारा न सिर्फ सच था, बल्कि स्थिति उससे कुछ अधिक ही बुरी थी. पिछले कुछ वर्षों में बिहार की सरकारी पाठशालाओं के संपर्क में आने पर मेरा भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा है. जितना मैं समझता था, स्थिति उससे कहीं अधिक बुरी है.
नब्बे प्रतिशत से अधिक बच्चे तीसरी-चौथी कक्षा में पहुंच जाने पर भी अपनी ही कक्षा की हिंदी पुस्तक की दो-चार लाइनें भी दो-चार मिनटों में शुद्ध एवं सहज स्वर मेंनहीं पढ़ सकते हैं. यद्यपि अब बिहार के प्राथमिक स्कूलों में अंगरेजी की पढ़ाई पहली कक्षा में ही शुरू हो जाती है. वे अंगरेजी के अक्षरों को मिलाकर एक शब्द भी नहीं बना पाते हैं. अंगरेजी के अन्य भागों का ज्ञान, जैसे-छपे शब्दों में अक्षरों को पहचानना, लिखना एवं अंकों के अंगरेजी शब्दों का ज्ञान आदि नहीं के बराबर है. स्थिति कम या ज्यादा पूरे बिहार में ही ऐसी है.
जब से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया, प्राथमिक पाठशालाओं में एवं माध्यमिक पाठशालाओं की आठवीं कक्षा तक अब परीक्षा नहीं होती है. वर्ष पूरा होने पर बच्चे स्वत: अगली कक्षा में चले जाते हैं. इस सुविधा ने सीखने-सिखाने का तत्काल दबाव एवं बच्चों में उपलब्धि की इच्छा समाप्त कर दी है. यह स्थिति बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिए अच्छी है या बुरी, इस पर मतभेद हो सकता है, परंतु अभी इस सुविधा ने स्कूलों में कम्युनिस्ट देशों की अर्थव्यवस्था जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी. जब सबके पारिश्रमिक निर्धारित ही हैं, तो फिर अधिक श्रम क्यों करें. सीखने-सिखाने की तत्काल कोई आवश्यकता अब विद्यालयों की निचली कक्षाओं में नहीं रह गयी है.
राज्य स्तर पर बिहार-झारखंड में प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है. केरल के सर्वश्रेष्ठ अनुपात,13 बच्चों पर एक शिक्षक, की तुलना में बिहार के लगभग 100 बच्चों पर एक शिक्षक काफी कम नजर आते हैं. फिर शहरी एवं देहाती विद्यालयों में भी फर्क है. शहर या शहर के निकट स्थित प्राथमिक पाठशालाओं में यह स्थिति अपेक्षाकृत काफी अच्छी है. जहां दरभंगा शहर के पास स्थित 500 बच्चों वाले एक माध्यमिक विद्यालय में एक दर्जन से अधिक शिक्षक हैं, वही दरभंगा शहर से 10 किमी दूर मेरे गांव के 600 से अधिक बच्चों वाले अकेले माध्यमिक विधालय में सिर्फ आधे दर्जन शिक्षक हैं. पांच-पांच कक्षाओं तक की पढ़ाई की अपेक्षा का वहन करने वाले अनेक देहाती स्कूल आज भी एक-शिक्षक स्कूल ही हैं.
इस एक शिक्षक की स्थिति प्राय: और अधिक दयनीय नहीं हो सकती है. उसे वे सारे कार्य करने हैं, जिनके लिए न तो उसकी नियुक्ति हुई है, न ही वह इच्छुक या प्रशिक्षित है. जनगणना, पशु-गणना, पोलियो एवं अन्य टीकाकरण, चुनाव आयोग एवं आधार कार्ड आदि जैसे विषयों से संबंधित कभी न खत्म होने वाले काम तथा जैसा कि कई शिक्षक कहते हैं, गले से लटके भारी पत्थर की तरह, मध्याह्न भोजन का काम एवं इन सारे विषयों से संबंधित रिपोर्ट तैयार करना-पहुंचाना आदि इन अकेले शिक्षकों के लिए स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने को उनकी अंतिम जिम्मेदारी बना देता है. हो जाये तो अच्छा है, पर नहीं भी होता है, तो कोई बात नहीं. जैसा बिहार में कहते है, ‘टेंशन नहीं लेना है’’.
वैसे तो शिक्षक एवं बच्चों के एक साथ होने से ही स्कूल बन जाता है, भवन एवं अन्य सुविधाएं नहीं भी हों, तो स्कूल चल सकता है. इधर कुछ वर्षों में जैसे-तैसे पांच कक्षाओं वाले विद्यालयों के लिए भी दो-एक कमरों वाले भवन तो ठेकेदारी स्तर के बन गये, परंतु सुविधाओं के नाम पर अभी भी बहुत कुछ नहीं बदला है. मेरे गांव के आठ प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ एक में बिजली लगी है. सिर्फ दो के पास इतनी जमीन है कि बच्चे वहां पांच मिनट बिना रुके हुए दौड़ सकें. अभी भी सात विद्यालयों में बच्चे फर्श पर बैठते हैं. ग्रामीणों के दान से एक में पुस्तकालय जैसी कोई चीज है, परंतु बच्चों को इसका ज्ञान नहीं है एवं शिक्षकों को इसके लिए समय नहीं है. विद्यालयों में छत एवं दीवार तो हो गये हैं, परंतु इन दीवारों पर एक कैलेंडर तक नहीं लटक रहा है. गोदामों की दीवारों की तरह ये सूनी एवं सपाट हैं. अखबारी कागज पर छपे हुए अक्षरों के अतिरिक्त यहां बच्चों को देखने के लिए कुछ भी नहीं है. वस्तुत: मध्याह्न भोजन के अतिरिक्त बच्चों को पाठशाला में कोई आकर्षण नहीं है.
अनेक कारणों से इन प्राथमिक पाठशालाओं में छुट्टियां अधिक एवं कार्य के दिन सीमित होते हैं. राष्ट्रीय अवकाश, क्षेत्रीय पर्व-त्योहार, चुनाव आदि के अवसर पर स्कूल भवन का अन्य उपयोग, गरमी-सर्दी आदि के अवकाश इत्यादि को जोड़ते हुए एक वर्ष में इन स्कूलों में एक सौ दिन पढ़ाई नहीं हो पाती है. ज्ञातव्य है कि जापान के स्कूलों में 300 एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में 250 दिनों तक पढ़ाई होती है.
यूं तो स्कूल सरकारी आदेश के अनुसार सात घंटे प्रतिदिन काम करते हैं, परंतु यथार्थत: मध्याह्न भोजन के बाद शिक्षक स्कूल में रह भी जाये, बच्चे प्राय: नहीं ही रहते हैं. अधिकतर दैनिक मजदूरी करने वाले माता-पिताओं के ये बच्चे मध्याह्न भोजन के बाद कहां होते हैं, यह किसी की चिंता का विषय नहीं होता है.
इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे ऐसे परिवारों से आये हैं, जहां वे स्कूल आने वाली पहली पीढी के बच्चे हैं. मेरे गांव के आठ प्राथमिक विद्यालयों के एक विद्यालय में 70 प्रतिशत बच्चे चौपाल टोल से 20 प्रतिशत बच्चे पासवान टोल से सात प्रतिशत बच्चे अन्य दलित एवं पिछड़े परिवारों से तथा तीन प्रतिशत बच्चे आर्थिक रूप से पिछड़े अन्य परिवारों से हैं. इन सभी परिवारों में पत्र- पत्रिकाओं का सर्वथा अभाव है. पासवान टोला के 50 घरों में सिर्फ दो अखबार आते हैं–हिंदी के, चौपाल टोला के 90 घरों में सिर्फ एक अखबार आता है–हिंदी का.
चौपाल टोला में 50 से अधिक घरों में टेलीविजन सेट है, परंतु हिंदी तथा भोजपुरी फिल्म तथा सीरियलों के अतिरिक्त वहां प्राय: अन्य कोई भी कार्यक्रम कोई नहीं देखता है. बहुत कम परिवारों में घर पर पढ़ने-पढ़ाने की सुविधा बच्चों के लिए बनायी जाती है. मिला-जुलाकर गांव एवं स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने वाली शक्तियों का अभाव है, भोजन कैसा भी हो, मात्र उसकी सुविधा उपलब्ध है. जारी…..
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