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उद्यमशीलता की धारा को मिले धार तो चमकेगा साल

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वर्ष 2015 में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास तो हुआ, पर वह आशा के अनुरूप नहीं रहा. कमजोर मॉनसून तथा निर्यात व निवेश में कमी ने वृद्धि दर को अपेक्षित गति नहीं दी. इसके बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्था है और इसी आधार पर 2016 के लिए उम्मीदें बरकरार हैं. सरकार, […]

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वर्ष 2015 में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास तो हुआ, पर वह आशा के अनुरूप नहीं रहा. कमजोर मॉनसून तथा निर्यात व निवेश में कमी ने वृद्धि दर को अपेक्षित गति नहीं दी. इसके बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्था है और इसी आधार पर 2016 के लिए उम्मीदें बरकरार हैं. सरकार, उद्योग जगत एवं अर्थव्यवस्था के अन्य आयामों के समक्ष मौजूद चुनौतियों, आर्थिक संभावनाओं और अवरोधों पर एक विश्लेषण…
– अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.कॉम
देश की अर्थव्यवस्था अगर सरकारों के इशारों पर चलती तो एक जगह उट्ठक-बैठक करने के बजाय अभी सरपट दौड़ रही होती. बात पक्की है कि इसकी, उसकी या जिसकी भी सरकार हो, वह तो बस देशवासियों के प्रयासों को सही अंजाम तक पहुंचाने में मदद भर करती है.
फिलहाल देश में बमुश्किल पांच-सात करोड़ लोग हैं जो बंधी-बंधाई सरकारी या निजी नौकरियों में मस्त हैं और पूंजी के जखीरे पर सात समंदर पार तक मार करते हैं. इनको छोड़ दें तो कम से कम 120 करोड़ भारतवासी आज भी समस्याओं की काट निकालने में जुटे हैं. इनके लिए नये साल का पहला महीना ही बड़ा सहारा लेकर आ रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर जिस ‘स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया’ पहल की घोषणा की थी, वह 16 जनवरी से जमीन पर उतरने जा रही है. उस दिन सरकार के वरिष्ठ अधिकारी, बैंकर, देशी-विदेशी वेंचर कैपिटल के नुमाइंदे और दूसरे बड़े नीति-निर्धारक गहन विचार-विमर्श के बाद इसका पूरा एक्शन प्लान घोषित करेंगे.
इस पहल में देश के आइआइटी, आइआइएम, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और एनआइटी जैसे संस्थानों को तो जोड़ा ही जायेगा, साथ ही ग्रामीण भारत को भी इसका हिस्सा बनाया जायेगा.
लक्ष्य है कि देश में अंदर ही अंदर बह रही उद्यमशीलता की धारा को वित्तीय, संस्थागत व टेक्नोलॉज़ी का सहारा देकर विकास की मुख्यधारा बना दिया जाये, क्योंकि यही वह धारा है जो हर साल काम की तलाश में निकलते करीब 1.3 करोड़ युवक-युवतियों को उभार सकती है. बाकी, कल का मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र तो लागत घटाने के चक्कर में अब इनसानों से ज्यादा रोबोट पर भरोसा करता दिख रहा है. सरकार अगर नौकरी तलाशनेवालों को नहीं, नौकरी पैदा करनेवालों को उभारना चाहती है, तो दरअसल यही आज की
मांग है.
देश की आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा यानी किसान समुदाय भी भगवान या सरकार भरोसे रहने की आदत से उबरने लगा है. पता चला है कि गुजरात के खेडा जिले के धुंडी गांव के छह छोटे किसानों ने मिल कर धुंडी सोलर ऊर्जा उत्पादक सहकारी मंडली बना ली है. उनकी इस सहकारी मंडली ने 7.7 हॉर्सपावर का सोलर पैनल लगाया है. इसमें किसानों ने खुद 40 से 54 हजार रुपये लगाये हैं, जबकि 6.5 लाख रुपये की कुल लागत का बाकी हिस्सा कोलंबो के स्वयंसेवी संगठन इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (आइडब्ल्यूएमआइ) ने लगाये हैं.
इससे ये किसान पंपसेट और बिजली की अन्य जरूरतें पूरी करेंगे. साथ ही फरवरी-मार्च से बाकी बची बिजली मध्य गुजरात विज कंपनी की ग्रिड को सप्लाई कर देंगे. इससे उन्हें हर दिन 100 से 150 रुपये मिलने लगेंगे. हो सकता है कि यह प्रयास आपको अपवाद नजर आये, लेकिन जमीन पर जाकर देंखे तो हमारे गांवों में किसान व नौजवान ऐसे तमाम अभिनव प्रयासों में लगे हैं.
यह भी आशा है कि लगातार दो सालों से खराब चल रहा मॉनसून इस साल अच्छा रहेगा. मॉनसून अच्छा होगा तो गांवों का बाजार चहकने लगेगा और ऑटोमोबाइल से लेकर विभिन्न उपभोक्ता सामान बनानेवाली कंपनियों का बिजनेस भी खिलखिलाने लगेगा. कंपनियों के नतीजे अच्छे होंगे, तो शेयर बाज़ार की रौनक भी लौट आयेगी. वैसे भी साल 2015 में भारतीय शेयर बाजार लगभग पांच प्रतिशत गिरा है, तो अब तमाम अनिश्चितताओं की समाप्ति और बेहतर नतीजों के दम पर ठोस उछाल की तैयारी में है.
ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौतियां नहीं हैं. रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक हमारे बैंकों के पुनर्गठित व डूबते ऋण उनके कुल ऋण का लगभग 13 प्रतिशत हो चुके हैं.
इसमें से लगभग 4.3 लाख करोड़ रुपये तो अकेले बिजली वितरण कंपनियों पर बकाया हैं. लेकिन, इनके समाधान की पुरजोर कोशिशें जारी हैं. जहां रिजर्व बैंक ने मार्च 2017 तक बैंकों की बैंलेंसशीट को दुरुस्त करने का कार्यक्रम बनाया है, वहीं केंद्र सरकार ने बिजली वितरण कंपनियों के उद्धार के लिए उदय (उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना) शुरू की है.
देश को एकल राष्ट्रीय बाजार बनाने वाले वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) कानून के विपक्ष के नखरों के बावजूद साल 2016 में ही पास हो जाने के पूरे आसार हैं.
चूंकि यह ट्रांजैक्शनल टैक्स है, इसलिए इसे किसी भी महीने की किसी भी तारीख से लागू किया जा सकता है. इस बीच सालाना बजट के परामर्श का सिलसिला सोमवार, 4 जनवरी से शुरू हो रहा है.
पहले दिन वित्त मंत्री अरुण जेटली किसानों और मजदूरों के नुमाइंदों से मिलेंगे. उनके लिए भी कच्चे तेल के गिरे दाम ने काफी माकूल महौल बना दिया है.
चालू वित्त वर्ष में नवंबर तक के आठ महीनों में कस्टम, एक्साइज और सर्विस टैक्स से मिली रकम सालभर पहले से 34.3 प्रतिशत ज्यादा है, जबकि बजट लक्ष्य 19.5 प्रतिशत की वृद्धि का था.
यही नहीं, बजट में पेट्रोलियम सब्सिडी के लिए किये गये 30,000 करोड़ रुपये के प्रावधान का बोझ भी अब नहीं उठाना पड़ेगा. इसलिए वित्त मंत्री को राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.9 प्रतिशत रखने में बहुत आसानी हो जायेगी.
समग्र स्थिति यह है कि मोदी सरकार के पहले 18 महीनों में जो समस्याएं आनी थीं, वे सामने आ चुकी हैं और उनके समाधान का आगाज भी हो चुका है. इसलिए भरोसा यही करना चाहिए कि साल 2016 देश की उड़ान का साल बनेगा. सरकार बस रास्ता खोलेगी और भारतीय अवाम की हर स्तर की रचनाशीलता को नये पंख लग जाएंगे. आमीन!
शेयर बाजार के लिए महत्वपूर्ण कारक
वस्तुओं के दाम में कमी
पिछले वर्ष वस्तुओं की कीमतें लगातार कम हुई थीं, और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि 2016 में भी धातुओं, खाद्य और पेय पदार्थों, कृषि से जुड़े कच्चे माल और कच्चे तेल की कीमतें गिरेंगी.चीनी विकास और वैश्विक मांग में कमी से इन क्षेत्रों से निवेशक निराश हैं.
वर्ष 2015 के अंत में सरकार की अर्द्धवार्षिक आर्थिक समीक्षा में मौजूद वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि के लक्ष्य को घटा कर 7-7.5 फीसदी तक कर दिया गया है और आगामी वित्त वर्ष के लिए भी आंशिक बढ़ोतरी की संभावना ही जतायी गयी है. बाजार में बेहतरी की संभावना है, पर यह कुछ जरूरी कारकों पर निर्भर करेगा…
अमेरिकी डॉलर की स्थिति
पिछले साल के सेंसेक्स को देखें, तो निष्कर्ष यह निकलता है कि जब भी रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ, शेयर बाजार में गिरावट दर्ज की गयी. अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने से डॉलर की मजबूती बनी रहेगी. उसकी मजबूती वैश्विक बाजार में उसके महत्व से भी जुड़ी हुई है. दिसंबर के महीने में यूरो में भी सुधार हुआ है. अगर फेडरल रिजर्व बाजार की उम्मीदों के अनुरूप दरों को तीन बार नहीं बढ़ायेगा, तो डॉलर कमजोर होगा.
चीन में मंदी और मुद्रा का अवमूल्यन
बाजार को उम्मीद है कि चीन के वृद्धि में बहुत धीमी गति से कमी आयेगी तथा चीन अधिक मुद्रा बाजार में उतारेगा. कमजोर युआन उन चीनी कंपनियों पर खराब असर डालेगा जिन्होंने बाहर से कर्ज लिया है. यह स्थिति भारतीय शेयर बाजार को उछाल दे सकती है.
भारतीय अर्थव्यवस्था
पिछले साल हमारी अर्थव्यवस्था में जो सुधार आया था, उसका कारण तेल की कम कीमतें थीं. लेकिन 2016 में तेल की कीमतें बहुत अधिक गिरने की आशा नहीं है. इससे होनेवाले लाभ भी सीमित होंगे और इसकी भरपाई पूंजी व्यय, सरकारी खर्च या निर्यात में वृद्धि से नहीं की जा सकेगी.
वर्ष 2016-17 में वित्तीय घाटे को जीडीपी के 3.5 फीसदी तक लाने के इरादा भी मांग में कमी को और गंभीर बनायेगा. अगर वित्तीय घाटा को कम करने की जिद्द छोड़ दी जाये और रिजर्व बैंक इस वर्ष ब्याज दरों में कमी कर दे, तो वृद्धि हासिल की जा सकती है. यदि मॉनसून अच्छा रहा, तो ग्रामीण क्षेत्र में मांग को मजबूती मिलेगी.
आय में वृिद्ध और निवेश
यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि स्टॉक मार्केट घरेलू अर्थव्यवस्था की सही स्थिति का सूचक नहीं होता है. शेयर बाजार की कमाई का बड़ा हिस्सा बाहरी निवेश का नतीजा होता है. ऐसे में बाजार में निवेश और उसमें तेजी बहुत हद तक विदेशी पूंजी और वैश्विक हलचलों पर निर्भर करेगा. भारत में सुधारों की गति के धीमा होने के कारण भी नकारात्मक असर की आशंका है.

कम नहीं हैं आंतरिक और बाहरी चुनौतियां
– अरुण कुमार
वरिष्ठ अर्थशास्त्री
बीता साल भारत के लिहाज से अच्छा इसलिए रहा कि तेल की कीमतों में अप्रत्याशित गिरावट आयी. अगर तेल की कीमतें पहले के स्तर पर रहतीं तो भारतीय अर्थव्यवस्था पर और दबाव होता. लेकिन, यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है. अगर यह संकट गंभीर होता है, तो भारत को आनेवाले समय में तेल के मोर्चे पर संकट का सामना करना पड़ेगा. फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आंतरिक और बाहरी दोनों चुनौतियां हैं. देखना है कि देश 2016 में इससे कैसे निबटता है.
विकास दर को लेकर आशंकाएं
बीता साल देश की अर्थव्यवस्था के लिए मिला-जुला रहा. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विकास दर 7.5 फीसदी रही. लेकिन समझ में नहीं आता कि यह आंकड़ा कैसे आया है. पिछले दो सालों से कृषि की हालत अच्छी नहीं है. विकास दर में कृषि का योगदान कम होता जा रहा है. निर्यात के मोरचे पर स्थिति चिंताजनक है.
इसमें करीब 15 फीसदी की गिरावट आयी है. उद्योग में मंदी का माहौल है. सर्विस सेक्टर में भी जैसी तेजी की उम्मीद थी, वह नहीं दिखी. छोटे और मंझोले उद्योगों की हालत भी अच्छी नहीं है. बैंकों का एनपीए काफी अधिक है. ऐसे में समझ में नहीं आता कि विकास दर 7.5 फीसदी कैसे हो गयी.
इससे लोगों के मन में विकास दर को लेकर आशंका है. नये साल में आर्थिक विकास दर बढ़ाने के लिए कृषि, उद्योग, सेवा क्षेत्र में तेजी लाने पर सरकार को काम करना होगा. आंकड़ों की बाजीगरी से विकास दर बढ़ सकती है, लेकिन अर्थव्यवस्था की सेहत में बदलाव नहीं लाया जा सकता है.
ब्याज दर कम करना होगा
नये साल में रिजर्व बैंक के सामने सबसे बडी चुनौती ब्याज दरों को कम करने की होगी. बीते साल अमेरिका के फेडरल रिजर्व में ब्याज दरों को बढाया और उम्मीद है कि इस साल भी इसमें वृद्धि होगी. लेकिन अगर भारत ब्याज दरों में कटौती नहीं करेगा, तो भारत से एफआइआइ, एफडीआइ बाहर जाने लगेगा. साथ ही डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होगा.
ऐसे हालात में शेयर बाजार में गिरावट का दौर शुरू हो जायेगा. शेयर बाजार में गिरावट से भारतीय अर्थव्यवस्था से निवेशक दूर होने लगेंगे. इससे इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. नये साल में निवेश बढ़ाने के लिए फेडरल रिजर्व के फैसले के उलट भारत को ब्याज दरों में कटौती करनी ही होगी.
निवेश बढ़ाने पर देना होगा जोर
विकास दर बढ़ाने के लिए निवेश के दर को तेज करना होगा. वर्ष 2008 में निवेश दर 38 फीसदी था. लेकिन मौजूदा समय में यह 28 फीसदी हो गया है. निजी क्षेत्र का निवेश नहीं बढ़ पा रहा है.
इसे सार्वजनिक निवेश से पूरा करना संभव नहीं है. नये साल में निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को कदम उठाना चाहिए. कई निजी परियोजनाएं विभिन्न कारणों से अधर में लटकी हैं. इसके लिए कंपनियों ने बैंकों से बड़े पैमाने पर कर्ज ले रखा है. इस कारण कंपनियों की वित्तीय स्थिति तो खराब हो ही रही है, बैंकों की सेहत पर भी असर पड़ रहा है. अधूरी और लंबित परियोजनाओं को पूरा करने पर ही कंपनियां दूसरी जगह निवेश के बारे में सोचेंगी.
वैश्विक अर्थव्यवस्था है दबाव में
मौजूदा समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था कमजोर है. दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं, जैसे चीन और जापान, में मंदी के हालात है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भी जिस तेजी की उम्मीद की जा रही थी, वैसा परिणाम नहीं दिखा. बड़ी अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण आयात पर असर पड़ रहा है.
रूस की अर्थव्यस्था की हालत भी अच्छी नहीं है. यूरोपीय अर्थव्यवस्था के हालत से सभी वाकिफ हैं. अभी ग्रीस संकट खत्म नहीं हुआ है. स्पेन, इटली में मंदी से निबटने के लिए खर्च कम करने के उपाय किये जा रहे हैं. भारत के लिए यूरोप एक महत्वपूर्ण बाजार है, लेकिन वहां मंदी के कारण भारत की अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ रहा है. यूक्रेन संकट के कारण रूस और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ गया था. तनावपूर्ण माहौल में बाजार पर प्रतिकूल असर पडता है.
पश्चिम एशिया का संकट
आतंकी संगठन आइएसआइएस के कारण पश्चिम एशिया में संकट के हालात हैं. आतंकी संगठन के सामने आने से विभिन्न देशों का सुरक्षा खर्च बढ़ा है.
इससे अर्थव्यवस्था में लेन-देन पर होने वाला खर्च बढ़ रहा है और आने वाले समय में इसे कम करना एक बड़ी चुनौती होगी. सीरिया, इराक, यमन में अस्थिरता के कारण लाखों लोग यूरोपीय देशों में पलायन करने को मजबूर है. यह क्षेत्र तेल के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं. अगर हालात और बिगड़ते हैं. तो तेल की आपूर्ति पर असर पड़ना तय है.
बातचीत पर आधािरत

मोदी के दौरे से बढ़ रही है देश की ब्रांड वैल्यू
– जेडी अग्रवाल
अर्थशास्त्री
– सस्ते तेल से कम होगा व्यापार घाटा : इंटरनेशनल मार्केट में तेल की कीमतें काबू में रहने से हमें उसका फायदा मिलेगा. अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा नुकसान हमें तेल की कीमत बढ़ने से होता है. एक समय यह 145 डाॅलर प्रति बैरल तक पहुंच गया था, जबकि फिलहाल यह 35 डाॅलर के आसपास है. इसमें अभी और कमी संभव है. इससे हमारा व्यापार घाटा कम होगा, क्योंकि हमारे आयात का एक बड़ा हिस्सा तेल पर खर्च होता है.
– रुपये का ज्यादा गिरना चिंताजनक : डाॅलर के मुकाबले रुपये का लगातार नीचे गिरना अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए अच्छा नहीं है. ऐसे में तेल की कीमतों में कमी होने का फायदा हमें नहीं मिल पायेगा. इसलिए केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक को मिल कर ऐसे कदम उठाने चाहिए, ताकि रुपये को डाॅलर के मुकाबले कमजोर होने से रोका जा सके और इसके मूल्यों में स्टेबिलिटी आ सके.
साथ ही वित्त मंत्रालय को रेवेन्यू अर्जित करने के लिए इस संबंध में किसी अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना होगा. मंत्रालय को अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने पर ध्यान देना होगा, न कि व्यापार घाटा कम करने पर. रुपया कमजोर होने पर सरकार की आमदनी कम होती है और वित्त मंत्रालय अपना प्रदर्शन अच्छा दिखाने के लिए व्यापार घाटे को कम करने पर ज्यादा ध्यान देता है. केंद्र सरकार को इस पर समग्रता से काम करना होगा.
– आयात-निर्यात की स्थिति बेहतर होगी : रुपये का अवमूल्यन होने से आयात-निर्यात के संबंध में भी हमें ही नुकसान होता है. हमें तकनीक समेत अनेक मशीनरी चीजों का आयात करना होता है. रुपये में अवमूल्यन होने से हमें समान कीमत चुकाने पर पहले से कम सामान मिलता है. रेवेन्यू या फिस्कल डेफिसिट को कम करने की कवायद में हमें इन चीजों का भी ध्यान रखना होगा. इसे हमें धीरे-धीरे मजबूत करना होगा.
– विदेशी निवेश से बढ़ेगी विकास दर : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विभिन्न देशों का दौरा करने से देश की ब्रांड वैल्यू बढ़ रही है. आलोचक भले ही इसकी आलोचना करें, लेकिन आनेवाले समय में इसका जरूर फायदा होगा.
इससे विदेशी निवेशक हमारे यहां आयेंगे और निवेश बढ़ेगा. विदेशी निवेश आने से रोजगार के मौके बढ़ेंगे और ज्यादा सामान पैदा होने पर निर्यात बढ़ेगा. इसके सरकार को ‘मेक इन इंडिया’ के प्रयास को सार्थक करने में कामयाबी मिलेगी. साथ ही इससे जीडीपी ग्रोथ में वृद्धि होगी.
– कौशल विकास पर और ध्यान देना होगा : पिछले कुछ दशकों में देश में शिक्षा का स्तर बढ़ा है. एक समय था जब हाइस्कूल के शिक्षक भी इंगलैंड से आते थे, लेकिन आज भारत के लोग दुनिया की नामचीन यूनिवर्सिटी और संस्थानों में पढ़ा रहे हैं. न केवल एकेडमिक संस्थानों, बल्कि ‘नासा’ जैसे तकनीकी संस्थानों में भी भारतीय प्रोफेशनल कार्यरत हैं. लेकिन कौशल का विकास करना इसलिए जरूरी है, ताकि गुणवत्तायुक्त सामग्रियों का निर्माण किया जा सके. बातचीत पर आधािरत
2016 में दिखेगा ‘मेक इन इंडिया’ का असर
– अरविंद मोहन
अर्थशास्त्री
– तेल के विकल्पों पर जोर देना जरूरी : पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें इस वर्ष मौजूदा स्तर पर बनी रहेंगी. यह हमारे लिए अच्छा है और इससे महंगाई नियंत्रण में रहेगी. हालांकि, पेट्रोलियम उत्पादक देश कच्चे तेल की कीमत बढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसे में इस चुनौती से निबटने के लिए हमें पूरी तरह से तैयार रहना होगा और तेल के विकल्पों पर जोर देना होगा.
– नियंत्रण में रहे खाद्य पदार्थों की महंगाई : पिछले कुछ वर्षों के दौरान खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ी हैं. कई बार अचानक भी इसमें वृद्धि हो जाती है. हाल ही में दाल के मामले में ऐसा देखा गया है. इस दिशा में हमें पूरी तैयारी करनी होगी. खाद्य पदार्थों के भंडारण के लिए नये गोदाम बनाने होंगे. केंद्र सरकार ने इस दिशा में काम शुरू किया भी है. उम्मीद है कि इस साल अर्थव्यवस्था में महंगाई पर नियंत्रण रखने में कामयाबी मिलेगी.
– मांग बढ़ने से बढ़ेगी िवकास दर : सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ने की पूरी उम्मीद है.
मांग बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था तेजी से विकसित होगी. हालांकि वेतन आयोग की सिफारिशों का असर दो रूपों में होगा-नकारात्मक और सकारात्मक. वैसे तो इस वेतन आयोग की सिफारिशों के भार को वहन करना केंद्र व राज्य सरकारों के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिए, लेकिन ‘िवत्तीय घाटा’ पर इसका सीधा असर होगा और इससे महंगाई प्रभावित होगी. यह इसका निगेटिव स्वरूप है. लेकिन पाॅजिटिव स्वरूप यह है कि दुनियाभर में मांग में आयी कमी का हमें फायदा मिल सकता है. इसलिए यदि अर्थव्यवस्था को सही तरीके से हैंडल किया जाये, तो वेतन आयोग के निगेटिव असर को हम दूसरे तरीके से कम कर सकते हैं.
– ‘मेक इन इंडिया’ की बहुत सी चीजें स्पष्ट होंगी : मेक इन इंडिया के लिहाज से देखें, तो इस वर्ष सतह पर कुछ काम देखा जा सकता है. बीते वर्ष जापान, रूस समेत अनेक देशों से इस संबंध में समझौते किये गये, जिसका असर इस वर्ष दिखेगा. डिफेंस, न्यूक्लियर एनर्जी समेत अक्षय उर्जा व बुनियादी ढांचे के विकास में इसका असर इस वर्ष स्पष्ट रूप से दिखेगा. कुछ निवेश भी हमें आकार लेते हुए दिखेंगे. अनेक सेक्टर में इसका ब्लूप्रिंट पूरी तरह से हमारे सामने होगा. इससे बहुत सी चीजें स्पष्ट होंगी.
– इस साल अधिक रोजगार सृजन संभावित : आज देश में व्यापक स्तर पर रोजगार सृजन की जरूरत है.
‘मेक इन इंडिया’ से अगले कुछ सालों में 30 लाख नये रोजगार सृजन की उम्मीद है, जिसका एक बड़ा हिस्सा हमें इस साल दिख सकता है. इसके लिए हमें ग्रामीण इलाकों की ओर बढ़ना होगा. ग्रामीण क्षेत्रों को जब तक मानव विकास और शिक्षा के साथ समग्रता से जोड़ कर विकसित नहीं किया जायेगा, तब तक यह लक्ष्य हासिल करना मुश्किल है. अब तक हमने केवल इंडस्ट्री का इंजन खोल रखा है. रोजगार के लिए हमें ग्रामीण क्षेत्रों में मानव विकास का इंजन भी खोलना होगा. कृषि और ग्रामीण इलाकों में गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावना है. बातचीत पर आधािरत
देश की वित्तीय बुनियाद काफी मजबूत है : अरुण जेटली
वैश्विक मंदी और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद पिछले साल भारत 7 से 7.5 फीसदी वृद्धि की संभावनाओं के साथ दुनियाभर में चमकता हुआ आकर्षक स्थान बना रहा. आर्थिक वृद्धि अच्छी है और आनेवाले महीनों में इसमें और सुधार होगा. ग्लोबल इकोनाॅमी में छायी मंदी से पैदा हुई चुनौती में भारत की प्रतिक्रिया अच्छी रही है.
कुछ क्षेत्रों में हमें तेजी से काम करना होगा. भाैतिक बुनियादी ढांचा, सामाजिक अवसंरचना और सिंचाई के क्षेत्र में ज्यादा ध्यान देना होगा. प्रत्यक्ष कर को दुनिया के अन्य देशों के स्तर पर लाने की जरूरत है. देश की वित्तीय बुनियाद काफी मजबूत है और ढांचागत सुधारों को जारी रखा जायेगा.
अर्थव्यवस्था : अवरोध और संभावनाएं
ईशान आनंद
इकोनॉमिक्स स्कॉलर
अर्थव्यवस्था से जुड़ी चर्चाओं को महज वृद्धि दर को हासिल करने तक सीमित करने का रवैया साझेदारी और कल्याण से संबंधित सवालों को हाशिये पर धकेल देता है. इस कारण आर्थिक स्थिति के अन्य जरूरी पहलू और उसका दीर्घकालीन आकलन पीछे छूट जाते हैं. जिन कारकों पर आगामी दिनों में नजर रखनी होगी, उन्हें आम तौर पर वृद्धि, हिस्सेदारी, मुद्रास्फीति और बाह्य मोर्चे की श्रेणियों में रखा जा सकता है.
– वृद्धि दर : सभी विश्वसनीय आर्थिक एजेंसियों के अनुसार भारत वर्तमान में दुनिया का सर्वाधिक तेज गति से बढ़ता हुआ देश है. अर्द्धवार्षिक आर्थिक समीक्षा में विकास दर के अनुमान को कम किये जाने के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था की यह स्थिति बनी रहेगी. चिंताजनक बात यह है कि सिर्फ उपभोक्ता मांगों और सार्वजनिक व्यय के कारण विकास को गति मिल रही है. सरकार भी यही कह रही है. प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के लिए यह अच्छी खबर नहीं है. अभी तक सेवा क्षेत्र ही आर्थिक प्रगति का आधार बना हुआ है.
जब तक मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में तेजी नहीं आती है, तब तक चीन को पछाड़ने का सपना पूरा नहीं हो सकेगा. इस वर्ष सरकार के सामने बड़ी चुनौती युवा आबादी को रोजगार के समुचित अवसर मुहैया कराने की होगी.
– मुद्रास्फीति : मौजूदा समय में मुद्रास्फीति यूपीए सरकार के कार्यकाल की तुलना में कम है. इसका एक बड़ा कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावट है, लेकिन खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि भी हो रही है और इसके थमने की कोई संभावना भी नहीं दिख रही है. इसके लिए सरकार को खाद्य पदार्थों के संग्रहण, वितरण और यातायात में इंफ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर व्यापक सुधार करने होंगे. यह देखना होगा कि 2016 में सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर खाद्य पदार्थों के उत्पादन को बढ़ावा देने तथा आयात पर निर्भरता कम करने को लेकर कितनी गंभीर है.
– निर्यात : बाहरी कर्जे में कमी का आंकड़ा इस तथ्य को छुपा दे रहा है कि हमारा निर्यात लगातार कम होता जा रहा है. इस मोर्चे पर सरकार को सिर्फ उन्हीं उत्पादों को समर्थन नहीं करना चाहिए जिनका निर्यात हो रहा है, बल्कि ऐसे अन्य उत्पादों को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिनके निर्यात की संभावना बन सकती है.
– हिस्सेदारी : समाज में बढ़ती विषमता न सिर्फ विकास को प्रभावित करती है, बल्कि आर्थिक वृद्धि पर भी प्रतिकूल असर डालती है. स्वास्थ्य और शिक्षा पर भारत का खर्च गरीब अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों से भी कम है.
मानव विकास सूचकांक और रोजगार के अवसर पैदा करने में भी हम बहुत पीछे हैं. फिलहाल कृषि क्षेत्र बड़े संकट से गुजर रहा है. सरकार का ध्यान अप्रत्यक्ष करों पर है जिससे लोगों पर बोझ बढ़ रहा है. ऐसे में तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था के लाभों को नागरिकों तक पहुंचाने का सवाल सबसे अहम है.

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