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रूस-तुर्की तनातनी, भंवर में मध्य-पूर्व

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सीरिया में गृहयुद्ध और मध्य-पूर्व में इसलामिक स्टेट की भयावह हिंसा के बीच बिछी अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर बड़ी ताकतें जोर-आजमाइश में लगी हुई हैं. रूस जहां सीरियाई शासक बशर अल-असद की ओर से मैदान में है. वहीं तुर्की, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि पश्चिमी देश विरोधियों की ओर से खड़े हैं. परंतु, इसलामिक स्टेट […]

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सीरिया में गृहयुद्ध और मध्य-पूर्व में इसलामिक स्टेट की भयावह हिंसा के बीच बिछी अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर बड़ी ताकतें जोर-आजमाइश में लगी हुई हैं. रूस जहां सीरियाई शासक बशर अल-असद की ओर से मैदान में है. वहीं तुर्की, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि पश्चिमी देश विरोधियों की ओर से खड़े हैं.

परंतु, इसलामिक स्टेट दोनों खेमों का साझा दुश्मन है या कम-से-कम दावा ऐसा किया जा रहा है. तुर्की और रूस के बीच बढ़ते तनाव से अरब के जटिल और हिंसक माहौल की पेचीदगियां भी बढ़ गयी हैं. इस मसले के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण आज के विशेष में…

– डाॅ रहीस सिंह

वर्तमान समय में एक अजीब बौद्धिक-नैतिक भ्रम की स्थिति दिख रही है, जिससे इस बात का अनुमान लगाना बेहद मुश्किल होगा कि आखिर दुनिया किस तरफ जानेवाली है. इस दुनिया के नेवीगेटर एक तरफ दावा करते दिख रहे हैं कि आज की दुनिया आधुनिकता, प्रगतिशीलता और मानवमूल्यों से सम्पन्न है, लेकिन वहीं दूसरी इसके बाशिंदे निर्दोष होने के बाद भी जेट फाइटर्स से गिराये जा रहे बमों, आतंकी हमलों, गृहयुद्धों या फिर शासकों की महत्वाकांक्षाओं के शिकार हो रहे हैं. करोड़ों लोग बेवतन हो चुके हैं, मारे गये हैं और शेष स्वयं को घरों में भी असुरक्षित पा रहे हैं.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि लगभग 14 वर्ष पहले अमेरिका ने जिस ‘ड्राइवर की भूमिका’ चुनी थी, उसने दुनिया को कौन सी दिशा दी? क्या अब रूस मध्य-पूर्व में उसी ड्राइवर की भूमिका में आना चाहता है? क्या अमेरिका रूस को इस तरह की नेतृत्वकारी भूमिका में आने देगा? इस नयी सक्रियता में तुर्की द्वारा उठाया गया कदम किस तरह का संकेत है? आज जो कुछ भी दिख रहा है, क्या वह इसलामिक स्टेट को समाप्त करने के लिए है अथवा मध्य-पूर्व में नये शक्ति-संतुलन की रणनीति का हिस्सा है?

24 नवंबर, 2015 को तुर्की द्वारा रूसी फाइटर एसयू-24 को मार गिराने के बाद मध्य-पूर्व में सामरिक राजनीति से जुड़ा नया अध्याय आरंभ हो चुका है. हालांकि, अभी दोनों देशों के दावे प्रमाणित नहीं हो सके हैं, क्योंकि तुर्की का दावा है कि रूस का लड़ाकू विमान (वॉर प्लेन) है, तुर्की के ‘एयरस्पेस’ में घुस आया था और उसे गिराने से पहले पांच मिनट में 10 बार चेतावनी दी गयी थी. लेकिन रूस ने इस आरोप को खारिज किया है.

रूसी न्यूज एजेंसी तास ने मिनिस्ट्री के हवाले से लिखा है कि विमान सीरिया के एयरस्पेस में ही था, जिसकी पुष्टि ‘ऑब्जेक्टिव मॉनिटरिंग डाटा’ से भी होती है. इस घटना के बाद क्रेमलिन आक्रामक मुद्रा में आ गया. हालांकि, तुर्की में भारी बहुमत से विजयी होकर सत्ता पर पुनः काबिज हुए राष्ट्रपति रिसेप ताइप एर्डोगान ने रूस को ‘आग से नहीं खेलने’ की चेतावनी दी है.

उन्होंने इसलामिक स्टेट संगठन के खिलाफ एकता का आह्वान भी किया और कहा कि विमान को मार गिराना रूस के खिलाफ कदम नहीं है. लेकिन मास्को अब अंकारा के साथ सामंजस्य स्थापित करने के मूड में नहीं दिख रहा है. यही नहीं, पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने तुर्की पर आरोप लगाया- ‘बड़ी मात्रा में निकाला जानेवाला तेल, जिसका नियंत्रण चरमपंथी संगठन इसलामिक स्टेट के हाथों में है, उसे तुर्की भेजा जाता है.

हमारे विमान को केवल इसलिए गिराया गया, ताकि हम उसके खिलाफ सबूत न जुटा सकें, विशेषकर उन बंदरगाहों के जहां इन तेल को टैंकरों में भरा जाता है.’ व्लादिमीर पुतिन का दावा है कि इंटेलीजेंस रिपोर्टें इस बात के पुख्ता प्रमाण देती हैं कि इसलामिक स्टेट द्वारा नियंत्रित तेल रिजर्व औद्योगिक पैमाने पर तुर्की के जरिये ही निर्यात किया जाता है.

सवाल यह उठता है कि क्या रूस और तुर्की के बीच इस टकराव का कारण सिर्फ विमान घटना है, जो अकस्मात घटी या फिर मसला बेहद गंभीर और रणनीतिक है, जिसका खुलासा होना आवश्यक है.

खास बात यह है कि पेरिस पर हुए आतंकी हमलों को देखते हुए वाशिंगटन ने तुर्की के उन दावों को मानने से इनकार किया है कि अभी तक आइएस द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले अपने ‘शाॅर्ट सेक्शन आॅफ द बॉर्डर’ को बंद कर पाने में वह असमर्थ है. वाशिंगटन की तरफ से यह भी कहा गया है कि खेल बदल चुका है (द गेम हैज चेंज्ड). अब बहुत हो चुका (इनफ इज इनफ). अब सीमा को सील करने की सख्त जरूरत है.

पेरिस घटना के बाद वाशिंगटन ने यह स्वीकार किया है कि आइएस एक अंतरराष्ट्रीय खतरा है और अब यह सीरिया से बाहर आ रहा है. चूंकि यह तुर्की के इलाके से होकर बाहर आ रहा है, इसलिए इसे रोकने का काम तुर्की का है. वाशिंगटन की तरफ से यह अनुमान भी व्यक्त किया गया है कि महानद (यूफ्रेट्स) स्थित जराबुलस और किलिस कस्बे के बीच सीमा को बंद करने के लिए लगभग 30,000 तुर्की सैनिकों की जरूरत होगी. उल्लेखनीय है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का कहना है कि जराबुलस और कोबानबे के बीच की सीमा के बीच के क्षेत्र को आइएस द्वारा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जा रहा है.

इसका मतलब है कि अंकारा आइएस के प्रति कुछ ज्यादा ही सहिष्णु है. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सीरियाई कुर्दों ताकतों (सीरियन कुर्दिश फोर्सेज), जो कि पीपुल्स प्रोटेक्शन यूनिट्स (वाइपीजी) के नाम से जानी जाती हैं, ने जब से आइएस राजधानी राक्का से 60 मील उत्तर में तेल अबैद सीमा पर कब्जा किया है, तब से यह और भी महत्वपूर्ण हो गया है. एर्डोगान सरकार के लिए कुर्द बगावती हैं, जिन्हें नियंत्रण में रखना उसकी पहली वरीयता है.

चूंकि कुर्द आइएस के कब्जे वाले क्षेत्रों पर कब्जा करने में कामयाब रहे हैं, इसलिए वे इसलामिक स्टेट के दुश्मन हुए. मतलब यह हुआ कि एर्डोगान और इसलामिक स्टेट दोनों के लिए कुर्द काॅमन एनेमी है, इसलिए यह तो स्वाभाविक पक्ष बनता है कि एर्डोगान सरकार इसलामिक स्टेट के प्रति उदार व मैत्री रवैया अपनाये. यानी यहां भी वैसा ही कार्य-कारण संबंध विद्यमान है, जैसा कि सीरिया या इराक या मध्य-पूर्व के अन्य देशों में मौजूद है.

तुर्की की आइएस तथा अन्य आतंकी समूहों, विशेषकर अलकायदा की सीरिया शाखा, अल-नुसरा फ्रंट तथा अहरार अल-शाम के प्रति लंबे समय से सहिष्णुता दिख रही है, जिसके कारण अब उसकी अंतरराष्ट्रीय आलोचना भी हो रही है.

चूंकि तुर्की नाटो का एक सदस्य और अमेरिकी सहयोगी है, इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वास्तव में अमेरिका सीरिया में या लैवेंट क्षेत्र में इसलामिक स्टेट से लड़ भी रहा है या नहीं? तुर्की सीमा न केवल हजारों विदेशी लड़ाकों को तुर्की से होकर आइएस से जुड़ने के लिए प्रवेश द्वारा साबित हो रही है, बल्कि वह इसलामिक स्टेट के नियंत्रण वाले तेल क्षेत्रों (आॅयल फील्ड्स) से, उत्तर-पूर्वी एशिया से तुर्की के जरिये परिवहन हेतु मार्ग उपलब्ध करा रही है, जिससे इसलामिक स्टेट को भरपूर राजस्व प्राप्त होता है.

क्या इन स्थितियों को अमेरिका पहले से नहीं देख रहा था? आखिर पेरिस घटना के बाद अथवा रूस द्वारा इस क्षेत्र में हवाई हमलों के बाद ही अमेरिका की निगाह इन स्ट्राइक प्वॉइंट्स पर क्यों आ टिकी?

उल्लेखनीय है कि सीरिया इस समय पांच भागों में विभक्त है. पहला-सरकारी नियंत्रण वाला दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र, जिसकी सीमाएं लेबनान व जोर्डन को छू रही हैं, दूसरा-विद्रोहियों के नियंत्रण वाला तुर्की की सीमा से लगता उत्तर-पश्चिमी व इराक के निकट दक्षिण का कुछ क्षेत्र, तीसरा-कुर्द कब्जे वाला उत्तरी क्षेत्र, जो तुर्की की सीमा के पार तक फैला है, चाैथा-पूर्व में इराक की सीमा के पार तक फैला आइएस नियंत्रित क्षेत्र व पांचवां क्षेत्र वह है, जिस पर विद्रोहियों या असंतुष्ट गुटों का मिश्रित नियंत्रण है. इस लिहाज से सीरिया की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है, जो एक तरह से ग्लोबल जियो-स्ट्रैटेजिक केंद्र अथवा स्ट्रेटेजिक कोर जोन का हिस्सा है.

यही वजह है कि असद अब तक सत्ता पर काबिज हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि रूस के सीरिया में ‘भू-राजनीतिक हित’ (जियो-पाॅलिटकल इंटरेस्ट) निहित हैं, इसलिए यदि स्थितियां रूस के पक्ष में बनीं, तो अमेरिका का मध्य-पूर्व से वर्चस्व समाप्त हो जायेगा. चूंकि तुर्की इसलामिक स्टेट के आयातित लड़ाकुओं का वह प्रवेश द्वार है और असद का विरोधी भी, इसलिए रूस आइएस का पीछा करते-करते अमेरिका के इस सहयोगी और नाटो सदस्य के दरवाजे तक पहुंच सकता है. यह शंका अमेरिका, तुर्की और उसके अन्य सहयोगियों को भी है.

ऐसी स्थिति में रूस द्वारा सीरियाई सीमा पर मिसाइलों काे तैनात करना, कुर्दों द्वारा महानद (यूफ्रेट्स) को कुर्दिश एन्क्लेव आफ्रिन से जोड़ कर एक स्वायत्त राज्य बनाने की महत्वाकांक्षा का रखना और रूस द्वारा उनके प्रति सहयोगात्मक दृष्टिकोण रखना, जबकि तुर्की द्वारा इसलामिक स्टेट के प्रति साॅफ्ट कार्नर और अमेरिका तुर्की के प्रति आत्मीय मैत्री भाव, यह बताता है कि मध्य-पूर्व ‘ग्रेट गेम’ से गुजर रहा है.

पेट्रो डाॅलर हो सकता है निर्णायक कारक

सीरिया की जंग के साये में सऊदी अरब और ईरान एशियाई तेल बाजारों पर कब्जे की कोशिश में हैं और एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे हैं. यदि सीरिया में बाजी रूस और ईरान (साथ ही चीन भी) के हाथ लगती है, तो स्थितियां बदलेंगी. चूंकि ईरान के साथ पश्चिमी शक्तियां पहले ही परमाणु समझौते पर पहुंच चुकी हैं, इसलिए ईरान के लिए तेल का बाजार खुल चुका है.

अब रूस सीरिया के साथ एक मजबूत साझेदारी बना कर मध्य-पूर्व में आ रहा है और ईरान उसका अहम सहयोगी है, इसलिए अब सऊदी अरब का यह डर बढ़ गया है कि उसका प्रतिद्वंद्वी ईरान एशियाई बाजारों में फिर से अपनी पैठ बना कर सऊदी अरब के एकाधिकार को चुनौती दे सकता है. अतः सऊदी अरब की कोशिश होगी कि रूस-सीरिया-ईरान कोएलिशन किसी सार्थक परिणाम तक न पहुंच पाये. बात यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि सऊदी अरब को डर है कि रूस ओपेक के उन देशों के साथ गठजोड़ कर लेगा, जो सऊदी अरब से खुश नहीं हैं.

रूस की यह भी कोशिश होगी कि वह चीन और भारत के बाजारों में सऊदी अरब की हिस्सेदारी में कमी ला दे. चूंकि सऊदी अरब को अमेरिकी छतरी हासिल है और वह अमेरिका का मध्य-पूर्व में स्ट्रैटेजिक पार्टनर है, इसलिए अमेरिका किसी भी कीमत में उसे कमजोर नहीं होने देना चाहता है.

यही कारण है कि तुर्की खुल कर रूस के खिलाफ आ गया है और अमेरिका उसके प्रति बेहद साॅफ्ट है, जबकि वह रूस के साथ मिल कर इस्लामी स्टेट के खिलाफ लड़ने की मंशा भी प्रकट कर चुका है. इस दृष्टि से देखें, तो मध्य-पूर्व में आइसिस उतना निर्णायक कारक नहीं है, जितना कि पेट्रो डाॅलर है, यह अलग बात है कि इस आयाम को छुपाये रखा जाता है.

कहीं यह युद्ध नये स्वामित्व के लिए तो नहीं

रूस ने अपनी सैन्य कार्रवाई के दौरान अलेप्पो, होम्स, लताकिया और दमिश्क में इसलामिक स्टेट और उसके सहयोगी आतंकवादी गिरोह जेभट अल-नुसरा फ्रंट के ठिकानों को निशाना बनाया, जिसके प्रति तुर्की सहिष्ण नजर आ रहा है. दूसरी ओर अमेरिका भी यह मानता है कि रूस ने इसलामिक स्टेट के बहाने सीरियन नेशनल कोएलिशन पर हमले किये हैं.

अब अल-नुसरा का कहना है कि रूसी कार्रवाई ‘वाॅर आॅफ क्रूसेड्स’ की ओर ले जानेवाली है. लेकिन वास्तविकता यह नहीं है, बल्कि इसका एक पक्ष सऊदी अरब और ईरान के एशियाई तेल बाजारों पर कब्जे का है. दूसरा पक्ष मध्य-पूर्व में ‘नये मास्टर्स’ की प्रतिष्ठा के लिए शक्ति परीक्षण का है.

ध्यान रहे, सीरिया और ईरान के मध्य-पूर्व में कमजोर होने का मतलब होगा रूस का मध्य-पूर्व में कमजोर होना और व्लादिमीर पुतिन इसे स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि वे रूस को सोवियत युग तक ले जाना चाहते हैं. ऐसे में रूस की जरूरत सीरिया और सीरिया का वह सत्ता प्रतिष्ठान है, जो उसके वफादार सिपहसालार की तरह काम करे. शायद इन्हीं स्थितियों व आवश्यकताओं ने रूस को सीरिया में हवाई हमले करने के लिए प्रेरित किया.

इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर की ओर तुर्की की सीमा के साथ एक महत्वपूर्ण मार्ग पर आइएस का कब्जा होने का खतरा भी पैदा होने की संभावना बढ़ गयी. इस कार्रवाई में रूसी सेनाओं ने अपने हमलों का अधिकांश जोर राष्ट्रपति असद के विरुद्ध एकजुट हुए विद्रोही गुटों पर केंद्रित करने के साथ-साथ कुर्दों के अप्रत्यक्ष सहयोग और आइएस के विरुद्ध केंद्रित किया है.

क्या यह पसंद के युद्ध (वाॅर्स आॅफ च्वाॅइस) का क्षेत्र है?

अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ नाॅयल फाॅग्यूसन ने अपनी पुस्तक में अमेरिका के ‘पसंद के युद्ध’ (वाॅर्स आॅफ च्वाॅइस) का उल्लेख किया है, जो उसने दुनिया के कई देशों के खिलाफ लड़े. अब कई अमेरिकी बुद्धिजीवी सवाल उठे रहे हैं कि यही रूस कर रहा है.

दरअसल, दो प्रकार के युद्धों का जिक्र रक्षा विशेषज्ञों ने किया है. पहला, ‘पसंद के युद्ध’ (वाॅर्स आॅफ च्वाॅइस) और दूसरा, ‘अनिवार्यता के युद्ध’ (वाॅर्स आॅफ नेसेसिटी). अमेरिका की प्रायः यह कोशिश होती है कि लक्ष्यित देश या सरकार के खिलाफ दूसरे विकल्प पर वैश्विक सहमति बनायी जाये. यही कारण है कि अमेरिकी थिंक टैंक ने सीरिया में अमेरिकी युद्ध को ‘अनिवार्यता के युद्ध’ के रूप में पेश किया था, लेकिन यह संभव नहीं हो सका. एक अमेरिकी कालम लेखक का कहना है कि मिडिल इस्ट ड्राइवर सीट पर रूस बैठना चाहता है, जहां पहले अमेरिका था.

अमेरिका ने 1970 और 1980 के दशक के अंत में जो किया था, अब रूस उसी मनोविज्ञान से प्रेरित दिखता है. दरअसल, वाशिंगटन की विदेश नीति कुलीन वर्ग के माइंड सेट को कुछ इस प्रकार विकसित करती है, जिससे उपलब्धियों का बखान हो और त्रुटियां छुप जायें, जबकि उसमें बहुत सी त्रुटियां होती हैं. वे इस प्रकार का मनोविज्ञान विकसित करते हैं कि दुनिया का हर संकट अमेरिकी ताकत द्वारा और अधिमानतः सैन्य शक्ति द्वारा हल किया जाना चाहिए. अमेरिकी विद्वानों का मानना है कि इसी तर्क के आधार पर रूस और ईरान मध्य पूर्व नये मास्टर्स (स्वामी) बनना चाहते हैं.

यदि ऐसा है, तो फिर दुनिया एक और शीतयुद्ध की ओर खिसकेगी. विचार करने योग्य बात यह है कि यदि राष्ट्रपति ओबामा की सेना बढ़ कर असद के शासन को खत्म करती है, तो परिणाम क्या होगा? क्या वही जो इराक में सद्दाम हुसैन के बाद या लीबिया में गद्दाफी के बाद हुआ? यदि रूस सफल होता है और असद बच जाते हैं, तो माइनारिटी के शासन द्वारा बहुजन का शोषण और निरंकुशता की प्रतिष्ठा होगी. सवाल फिर वही कि इन दोनों ही स्थितियों में मानवमूल्यों की प्रतिष्ठा कैसे होगी?

रूस-तुर्की तनाव

– 30 सितंबर, 2015

सीरिया में रूसी वायुसेना की कार्रवाई शुरू

– दो अक्तूबर

तुर्की ने आरोप लगाया कि रूस सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की सत्ता को मजबूत करने के इरादे से सरकार-विरोधी विद्रोहियों के ठिकानों पर हमला कर रहा है.

– तीन और चार अक्तूबर

तुर्की ने रूसी लड़ाकू विमानों के उसकी सीमा में घुसने का आरोप लगाया और कहा कि सीरिया में स्थित एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम ने गश्त कर रहे उसके विमानों के रडार को बंद कर दिया.

– पांच अक्तूबर

नाटो ने तुर्की की सीमा का उल्लंघन न करने की चेतावनी दी. उसने यह भी कहा कि अगर ऐसा हुआ, तो रूसी विमानों को निशाना बनाया जायेगा.

– छह अक्तूबर

तुर्की के अधिकारियों ने रूसी राजदूत को तीसरी बार बुला कर चेतावनी दी और सीमा के उल्लंघन का आरोप लगाया. हालांकि, तुर्की के प्रधानमंत्री अहमेत दावतोग्लू ने जोर देकर कहा कि सीरिया की समस्या तूर्की-रूसी विवाद नहीं है तथा हम इसे रूस-नाटो संकट नहीं बनाना चाहते हैं. अमेरिका में सैन्य मुख्यालय पेंटागन के प्रवक्ता ने कहा कि कम-से-कम एक बार नाटो विमान को रूसी विमान से टकराने से बचने के लिए अपना रास्ता बदलना पड़ा.

-आठ अक्तूबर

तुर्की के राष्ट्रपति ने असद के समर्थन में चल रही रूसी कार्रवाई के विरोध में व्यापारिक संबंधों में कटौती करने की धमकी दी. अमेरिका और जर्मनी ने पूर्व-निर्धारित योजना के तहत तुर्की से विमानरोधी पैट्रियॉट मिसाइलें हटायीं. तुर्की ने उन्हें नहीं हटाने का निवेदन किया था.

-10 अक्तूबर

सीरियाई रक्षा प्रणाली ने सात तुर्की लड़ाकू विमानों का रडार बंद कर उन्हें परेशान किया.

-12 अक्तूबर

रूस ने अपने लड़ाकू विमानों की रक्षा के लिए अत्याधुनिक सुखोई-30 विमान तैनात किये. माना जाता है कि यह कदम नाटो जहाजों से रक्षा के लिए उठाया गया है.

-15 अक्तूबर

तुर्की और रूसी अधिकारियों ने इन तनावों पर बातचीत की. तुर्की का आरोप था कि 30 सितंबर से 13 बार रूसी विमान उसके विमानों के बहुत निकट आ चुके हैं.

-16 अक्तूबर

एक अमेरिकी सैन्य अधिकारी ने बताया कि तुर्की ने उसकी सीमा में घुस आये एक रूसी ड्रोन विमान को गिरा दिया है. इस बात से रूस ने इनकार किया. रूस ने अपने युद्धकों की रक्षा में लगाये गये सुखोई लड़ाकू विमानों को हटाया. तुर्की ने रूस को कड़ी चेतावनी दी कि वह मास्को में कुर्द कार्यालय खोलने पर चुप नहीं बैठेगा.

-छह नवंबर

अमेरिका ने दक्षिणी तुर्की में छह एफ-15सी लड़ाकू विमान तैनात किया.

-12 नवंबर

अमेरिका ने अतिरिक्त छह एफ-15इ युद्धक तुर्की-स्थित अपने ठिकाने पर भेजा. ऐसा उसने इसलामिक स्टेट के खिलाफ नाटो की कार्रवाई में मदद के इरादे से किया था.

-18 नवंबर

अमेरिका और ब्रिटेन ने फ्रांस से नाटो के अनुच्छेद-पांच को लागू नहीं करने का अनुरोध किया, ताकि रूस और तुर्की का तनाव जटिल न हो.

-20 नवंबर

तुर्की ने सीरियाई तुर्कमेन गांवों पर रूसी बमबारी पर विरोध जताने के लिए रूसी राजदूत को तलब किया.

-21 नवंबर

रूसी वायुसेना के संरक्षण में सीरियाई सेना ने तुर्कमेन इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की.

-22 नवंबर

तुर्की ने अपनी वायु सीमा से होकर इराक को की जानेवाली रूसी हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति रोकी. इन हेलीकॉप्टरों को ईरानी सीमा से भेजा गया था.

-24 नवंबर

तुर्की के दो एफ-16 लड़ाकू विमानों ने एक रूसी युद्धक सुखोई-24 जेट को मार गिराया. उसका आरोप है कि यह विमान उसकी सीमा में घुस आया था और बार-बार दी जानेवाली चेतावनियों को अनसुना किया. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इसे ‘पीठ में छुरा भोंकनेवाली’ हरकत कहा.

-एक दिसंबर

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तुर्की को रूस से तनाव कम करने को कहा.

-दो दिसंबर

रूस के आंशिक आर्थिक प्रतिबंध के जवाब में तुर्की ने 2016 में रूस से आयातित रसोई गैस में 25 फीसदी की कटौती करने की घोषणा की. इससे पहले उसने तुर्की की खाड़ी से रूसी नौसेना की आवाजाही को बंद कर

दिया था.

शायद नो मैन्स लैंड में था विमान

अब तक की मीडिया खबरों से बहुत हद तक यह स्पष्ट हो गया है कि एसयू-24 मामले में दोनों ही देश सही नहीं बोल रहे हैं. तुर्की का कहना है कि रूसी विमान सीरिया में बमबारी करते हुए उसके एयरस्पेस में प्रवेश कर गया था, जिसके बाद उसने उसे पांच मिनट में दस बार चेतावनी दी, लेकिन इसके बावजूद विमान वापस नहीं गया.

जबकि, रूस का कहना है कि एसयू-24 तुर्की की वायु सीमा में नहीं था. वहीं बेल्जियम के भौतिक विज्ञानियों ने एक विश्लेषण दिया है, जिसके अनुसार उपलब्ध कराये गये वीडियो के अनुसार, विमान की ऊंचाई, उसकी रफ्तार और लक्ष्य किये जाने के बाद गिरने की दूरी, और वास्तविक रफ्तार के अनुसार उतनी दूरी तय करने में लगा समय व चेतावनियों की आवृत्ति, आपस में मेल नहीं खाते.

यानी तुर्की का यह दावा सही नहीं प्रतीत होता है. वैज्ञानिक का यह भी कहना है कि रूसी सरकार द्वारा सार्वजनिक किये गये मानचित्रों में यह दिखाया गया है कि निशाना लगने के बाद जहाज 90° डिग्री दूसरी दिशा में मुड़ गया था, जो कि नामुमकिन है. इसलिए यह माना जा सकता है कि विमान या तो तुर्की की सीमा तक पहुंच गया होगा अथवा दोनों देशों के बीच के ‘नो मैन्स लैंड’ में कहीं होगा.

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