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फिर समय की कसौटी पर संसद

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संसद के पिछले सत्र के अनुभव के बाद लगता है कि यह सत्र संजीदा और सार्थक होगा. इसमें तीन प्रमुख अध्यादेशों को कानून बनवाना सरकार के लिए बहुत जरूरी है. संसद का शीत सत्र कल से शुरू हो रहा है और आज देश पहली बार अपना संविधान दिवस मनाने जा रहा है. 1949 में 26 […]

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संसद के पिछले सत्र के अनुभव के बाद लगता है कि यह सत्र संजीदा और सार्थक होगा. इसमें तीन प्रमुख अध्यादेशों को कानून बनवाना सरकार के लिए बहुत जरूरी है.
संसद का शीत सत्र कल से शुरू हो रहा है और आज देश पहली बार अपना संविधान दिवस मनाने जा रहा है. 1949 में 26 नवंबर को हमारा संविधान स्वीकार किया गया था, जो 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ. इस साल हम देशभर में संविधान से जुड़े कार्यों को देखेंगे. इस साल डॉ भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती भी मनायी जा रही है. इन दिवसों की औपचारिकताओं के साथ यह देखने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है कि हमारे लोकतंत्र के सिद्धांत और व्यवहार में किस तरह की विसंगतियां हैं. समाज के श्रेष्ठ और निकृष्ट दोनों इसी राजनीति में हैं. इसकी एक परीक्षा संसद के सत्रों में होती है. इसमें दो राय नहीं कि भारतीय संसद समय की कसौटी पर खरी उतरी है, पर अफसोस के मौके भी आये. इस साल संसद का शीत सत्र शोर-शराबे का शिकार रहा. उससे हमारे लोकतंत्र के आलोचकों को मौका मिला. चुनौती यह साबित करने की है कि राजनीति घटिया काम नहीं है.
संसद हमारे विमर्श का सर्वोच्च मंच है. 13 मई, 2012 को उसके 60 वर्ष पूरे होने पर उसकी विशेष सभा हुई थी. इस सभा में सांसदों ने आत्म-निरीक्षण किया. उन्होंने संसदीय गरिमा को बनाये रखने और कुछ सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर और संसद का समय बरबाद होने पर चिंता जतायी और यह संकल्प किया था कि यह गरिमा बनाये रखेंगे. बहस के दौरान ऐसा मंतव्य व्यक्त किया गया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य हों. यह संकल्प उस साल ही टूट गया. यह हमारे लोकतंत्र का बड़ा अंतर्विरोध है. शोर भी संसदीय कर्म का हिस्सा है, पर वह कितना हो, कब हो और किस तरह हो इसे लेकर भिन्न-भिन्न राय है. अलबत्ता इतना समझ में आता है कि राजनीति अच्छे वक्ताओं को तैयार नहीं कर रही है, क्योंकि लगता है कि संजीदा बहस उपयोगी नहीं रही.
चुनाव और संसदीय सत्र दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती हैं. दोनों ही गतिविधियां देश के जीवन और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं. चुनाव और संसदीय कर्म ठीक रहे, तो काया पलटते देर नहीं लगेगी. पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में शिकायत रही है. चुनाव के दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चरम सीमा पर होते हैं और संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता है.
संसद के पिछले सत्र के अनुभव के बाद लगता है कि यह सत्र संजीदा और सार्थक होगा. इसमें तीन अध्यादेशों को कानून बनवाना सरकार के लिए जरूरी है. नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अमेंडमेंट बिल, कॉमर्शियल डिवीजन एंड कॉमर्शियल अपीलेट डिवीजन ऑफ हाइकोर्ट्स एंड कॉमर्शियल बिल, और आर्बिट्रेशन एंड कंसीलिएशन (संशोधन) विधेयक. मॉनसून सत्र के धुल जाने के कारण कुल आठ बिल लोकसभा में और 11 राज्यसभा में अटके हुए हैं. इनमें सबसे बड़ी चुनौती (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) विधेयक को पास कराने की है. इसके अलावा भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक भी अटका पड़ा है.
मॉनसून सत्र में व्यापमं घोटाला और ललित मोदी प्रसंग छाया रहा. इस वजह से अनेक सरकारी विधेयक पास नहीं हो पाये. दोनों प्रसंग महत्वपूर्ण थे, पर दोनों मसलों पर बहस नहीं हो पायी. उल्टे पूरे सत्र में संसद का काम ठप रहा. लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस के 25 सदस्यों को हंगामा मचाने के कारण पांच दिनों के लिए निलंबित कर दिया था. पिछले सत्र की कटुता को दूर करने के उद्देश्य से लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सभी सदस्यों को पत्र लिख कर कहा है कि वे सदन की गरिमा बनाये रखने की उम्मीद करती हैं, क्योंकि कई बार मुद्दों पर मतभेद होने के कारण शिष्टता को ताक पर रख दिया जाता है.
बहरहाल यह पहला मौका नहीं था, जब राजनीति के कारण संसदीय कर्म प्रभावित हुआ हो. इसलिए इसे ठीक रखने के लिए दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों को साथ बैठ कर विचार करना होगा. कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने कहा है, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है. देश में जो हो रहा है, उसे देखना हमारी प्राथमिकता है. संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता.’ उनकी बात ठीक है, पर विधेयक भी उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए. यदि उनमें दोष है तो सरकार के साथ मिल कर उनमें सुधार करायें. यदि राष्ट्रीय राजनीति में हैं, तो प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था को रास्ते पर लाना भी आपकी जिम्मेवारी है.
सत्तारूढ़ दल को भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि उसकी मर्जी से ही सारा काम होगा. सत्र को चलाना उसकी जिम्मेवारी है और विपक्ष को विश्वास में लेना उसका कर्तव्य है. फिलहाल ऐसा लगता है कि जीएसटी पर सहमति बन सकती है. संसद में जीएसटी, बैंकरप्सी कोड, रियल एस्टेट रेग्युलेशन, भूमि अधिग्रहण, फैक्ट्री संशोधन और आरबीआइ एक्ट संशोधन जैसे कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके पड़े हैं, जिनका अर्थव्यवस्था से सीधा रिश्ता है. जीएसटी संविधान संशोधन विधेयक है. उसके लिए दोनों सदनों में विशेष बहुमत के अलावा राज्यों की विधानसभाओं के बहुमत से भी उसे पास कराना जरूरी है.
राज्यसभा में सत्तापक्ष अल्पमत में है. सरकार को समर्थन मिलने में समय लगेगा. एक नया प्रश्न सामने आया है. राज्यसभा चुना गया सदन नहीं है, तो क्या उसे निम्न सदन के ऊपर महत्व मिलना चाहिए? वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में कहा कि जब एक चुने हुए सदन ने विधेयक पास कर दिये, तो राज्यसभा क्यों अड़ंगे लगा रही है? उनके मुताबिक, बहस होनी चाहिए कि संसद का ऊपरी सदन क्या चुने हुए निचले सदन से पारित विधेयकों को रोक सकता है?
भारत में दूसरे सदन की उपयोगिता को लेकर संविधान सभा में काफी बहस हुई थी. दो सदन वाली विधायिका का फैसला इसलिए किया गया, क्योंकि इतने बड़े और विविधता वाले देश के लिए संघीय प्रणाली में ऐसा सदन जरूरी था. यह पूरी तरह प्रत्यक्ष चुनाव के सहारे गठित सदन भले ही नहीं है, पर चुना हुआ तो है. इसके चुनाव का तरीका अलग है. यह संतुलन बनानेवाला या विधेयकों पर फिर से गौर करनेवाला पुनरीक्षण सदन है. राज्यसभा सरकार को बना या गिरा नहीं सकती, पर लगाम रख सकती है. क्या हमें संसदीय व्यवस्था के लिए सांविधानिक सुधार की जरूरत है? यह बहस शीत सत्र के बाद और मुखर होगी. यह बड़े स्तर पर सांविधानिक समस्या है, पर फिलहाल यह राजनीतिक अहम की समस्या है. संवादहीनता इसके मूल में है. इसे दूर करना चाहिए.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com

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