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अविश्वास के रंग की कालिख

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संदर्भ खुर्शीद महम्मूद कसूरी की पुस्तक का विमोचन अनुराग चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार वो कहते हैं न विचारों से असहमत होना अलग बात है, पर उसे प्रकट न करने देना, लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. सोमवार को मुंबई में कुछ ऐसा ही भाव देखने को मिला, जब शिवसैनिकों ने पाकिस्तान के पूर्व मंत्री खुर्शीद महम्मूद कसूरी […]

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संदर्भ खुर्शीद महम्मूद कसूरी की पुस्तक का विमोचन

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अनुराग चतुर्वेदी

वरिष्ठ पत्रकार

वो कहते हैं न विचारों से असहमत होना अलग बात है, पर उसे प्रकट न करने देना, लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. सोमवार को मुंबई में कुछ ऐसा ही भाव देखने को मिला, जब शिवसैनिकों ने पाकिस्तान के पूर्व मंत्री खुर्शीद महम्मूद कसूरी की पुस्तक के विमोचन से पहले सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर कालिख पोती. इस घटना से न केवल मुंबई की साख को चोट पहुंची है, बल्कि महाराष्ट्र में भाजपा व शिवसेना के रिश्तों की कड़वाहट भी सामने आयी है. पेश है यह विश्लेषण.

मुंबई, भारत की आर्थिक राजनीति के साथ-साथ उदारवादी संस्कृतिकर्मियों का शहर भी है. फिल्म, संगीत, कला, खेल, विभिन्न प्रकार के भोजन अौर बहुलवादी संस्कृति यहां का गौरव है. मुंबई में घटी घटना न केवल भारत में, बल्कि दुनिया में चर्चा का विषय बन जाती है.

एेसे में पाकिस्तान के भूतपूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महम्मूद कसूरी की किताब ‘नाइदर हॉक नॉर ए डोव-एन इनसाइडर्स अकाउंट ऑफ पाकिस्तान्स फॉरेन पॉलिसी’ के विमोचन की सबेरे उपनगर किग्स सर्कल में बीच सड़क पर अायोजक सुधींद्र कुलकर्णी को रोक मुंह को काला करने की घटना ने न केवल भारत-पाक रिश्तों के रंग पर कालिख लगा दी, बल्कि महाराष्ट्र में भाजपा अौर शिवसेना के रिश्तों में पहले से जमी कड़वाहट को अौर कटु बना दिया है.

वामपंथियों के साथ राजनीति करनेवाले आइअाइटी स्नातक सुधींद्र कुलकर्णी एक-दो दशकों से भी ज्यादा समय से दक्षिणपंथी भाजपा के विचार केंद्रों एवं दो शीर्ष सत्ता पुरुष अटलबिहारी वाजपेयी अौर लालकृष्ण आडवाणी के नजदीक रहे अौर भारत-पाक रिश्तों को मजबूत करनेवाले पाकिस्तानी विचारक एवं पूर्व विदेश मंत्री कसूरी के भी नजदीकी रहे हैं.

अंबानी समूह के ऑब्जर्बर फाउंडेशन के अध्यक्ष सुधींद्र कुलकर्णी द्वारा यह कार्यक्रम कड़ी पुलिस सुरक्षा में नेहरू साइंस सेंटर, वर्ली में संपन्न तो हो गया, पर इसके पहले सरकार में भागीदार शिवसेना प्रसिद्ध गजल गायक गुलाम अली का जगजीत सिंह की याद में होनेवाले कार्यक्रम को रद्द कराने में सफल रही. पाकिस्तान की शह पर मुंबई के खिलाफ आतंकवादी हमले को मुंबईवासी अभी भूले नहीं हैं, पर शिवसेना जिस तरह से सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर आक्रामक है, उससे संकेत मिलते हैं कि भारत-पाक से ज्यादा यह मसला शिवसेना-भाजपा के बीच पैदा हो रहे अविश्वास की कहानी ज्यादा कर रहा है. वैसे भी महाराष्ट्र में पनपी शिवसेना राष्ट्रीय राजनीति में कभी महत्वपूर्ण नहीं रही है.

महाराष्ट्र का प्रांतीय दल शिवसेना मराठी अस्मिता की पहचान के लिए जाना जाता है. मराठी मानुस की पहचान, आजीविका के लिए प्रयत्न करनेवाली यह राजनीतिक ‘शक्ति’ कार्टूनकार अौर अपने तीखे बोल के लिए पहचाने जानेवाले बाल ठाकरे ने पैदा की थी. आज भी महाराष्ट्र का मध्य वर्ग वगैर शिवसेना के अपना अस्तित्व स्वीकार नहीं कर पाता है. वह मानसिक रूप से इस पार्टी के साथ इतना सहज हो गया है कि दोनों एक-दूसरे के बगैर सामाजिक-राजनीतिक रूप से अलग नहीं हो सकते.

शिवसेना ने अपने को ‘आक्रामक’ दिखाने के लिए, यूनियनों को तोड़ने के लिए हिंसा का सहारा लिया था, पर उसने अंतरराष्ट्रीय रिश्तों, विशेष कर राजनय की नयी कोशिशों को कमजोर करने के लिए प्रचार-प्रसार, हद तक पागलपन से जुड़े खेलों, क्रिकेट, संगीतकारों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, पुस्तक विमोचन का लोकार्पण, प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाया अौर उनको शिवसेना के ‘अपने तरीकों’ से ठीक करने का तरीका भी ढूंढ़ निकाला. ‘भय’ शिवसेना का मुख्य हथियार बना, शिवसेना के ‘मुंबई बंद’ में जन-जीवन ठहर जाता था.

हर रोज ट्रैफिक अौर आवाजाही से भरी रहनेवाली सड़कें सुनसान हो जाती थीं. सेना के शालीन विरोध में चेहरे पर ‘टार’ फेंक देना, जबरदस्ती रंग डाल देना, अौरतों द्वारा चूड़ियां लेकर प्रदर्शन करना, भाषण करते हुए वक्ता को गर्दन पकड़ कर उठा लेना, दस-पंद्रह व्यक्तियों को इकट्ठा कर नारेबाजी करना शामिल है.

शिवसेना के मुख्य रणनीतिकार अौर प्राण बाल ठाकरे थे. उनकी मृत्यु के पूर्व ही शिवसेना, ठाकरे परिवार के भीतर विभाजित हो गयी. राज ठाकरे ने उग्र महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का निर्माण किया जो कुछ समय तक प्रभावी रह प्रभावहीन हो गयी है. शिवसेना जो भाजपा को अपना ‘जूनियर’ सहयोगी मानती थी, तब असहज हो गयी, जब भाजपा ने शिवसेना के साथ चुनाव के पूर्व अपना चुनावी गंठबंधन तोड़ लिया अौर अकेले चुनाव लड़ महाराष्ट्र विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में जीत हासिल कर सरकार बना ली. यह सरकार शिवसेना की मदद से चल रही है. पर दोनों दलों के बीच ‘कड़ुवाहट’ बढ़ रही है.

एक साथ सरकार चला रहे शिवसेना-भाजपा गंठबंधन की सरकार में यूं तो विपक्ष के नेता का पद कांग्रेस को मिला हुआ अौर महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष एवं नांदेड़ से सांसद अशोक चव्हाण के खास राधाकृष्ण विरवे पाटील उस पद पर विराजमान हैं, पर असल में महाराष्ट्र के विधानसभा में नहीं, पर सरकार के खिलाफ हर सार्वजनिक मंच पर उद्धव ठाकरे ही विरोध, असहमति की आवाज हैं. शिवसेना के मंत्रियों का दखल नहीं के बराबर है. नौकरशाही न केवल शिवसेना के मंत्रियों के विभागों बल्कि भाजपा के मंत्रियों को भी कमजोर मानती है.

शिवसेना ने 1993 में अपने को ‘हिंदुत्व’ की मुख्य धारा का प्रमुख हिस्सा मानते हुए राष्ट्रवाद, पाक आतंकवाद का विरोध, मुंबई में हुए बम विस्फोट, ट्रेनों अौर स्टेशनों पर हुई आतंकवादी कार्रवाई के खिलाफ माहौल को बनाया अौर भाजपा की राजनीतिक भूमि अपने पास रखी ही नहीं, बल्कि उस पूंजी में वृद्धि भी की.

शिवसेना ने पहला ब्राह्मण मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के रूप में दिया अौर उसी तर्ज पर नागपुर के ब्राह्मण देवेंद्र फड़नवीस को भाजपा ने नेतृत्व की कमान सौंपी है. जिस प्रकार से गुजरात में पटेल समुदाय आरक्षण को लेकर सामाजिक उथल-पुथल मचाये हुए है, उसी प्रकार महाराष्ट्र में भी मराठा समुदाय इस नये सामाजिक समीकरण से विचलित है. वर्तमान सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में मराठों के आर्थिक वर्चस्ववाले संगठनों विशेषकर सहकारी बैंकों में जातिगत रूप से बदलाव कर रही है, वह एक चुनौती बन राजनीतिक परिदृश्य को बदल रही है.

शिवसेना मुंबई महानगरपालिका के अगले वर्ष होनेवाले चुनावों को लेकर चिंतित है, क्योंकि यह महानगरपालिका शिवसेना के लिए ‘ऑक्सीजन’ का काम करती है. मुंबई में पर्युषण के दौरान मांस की बिक्री का मामला हो, या इंदु मिल, दादर में बाबा साहेब के स्मृति स्थल का मसला हो, शिवसेना ने भाजपा का हर मौके पर विरोध किया है.

शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे के पास अपने दल का संस्थागत ढांचा पास में है अौर संगठन में वे एकछत्र हैं.

शिवसेना बिहार के चुनावों को बहुत महत्वपूर्ण मान रही है. भाजपा को यदि वहां अपेक्षाकृत चुनाव परिणाम नहीं प्राप्त होते हैं, तो महाराष्ट्र में मध्यावधि चुनाव संभावित है अौर सेना संभवतया: अपने मंत्रियों को भी फड़नवीस मंत्रिमंडल से हटा ले.

शिवसेना के लिए मुंबई की राजनीति महत्वपूर्ण है. संगीतकार गुलाम अली के कार्यक्रम को रोकना, कसूरी के कार्यक्रम में बाधा डालना उसके पुराने फॉर्मूले को परखने जैसा है. क्या इस दौरान मुंबई का उदारवादी चेहरा दागदार हो चुका है. आर्थिक राजधानी का विशेष आकर्षण उसमें निवेश करनेवालों को आकर्षित करना भी है.

मुंबई में ‘मराठी अस्मिता’ के दौर में कई उद्योग गुजरात चले गये. बहुत-सा निवेश कर्नाटक अौर तमिलनाडु चला गया. ऐसे में उदारवाद अौर आर्थिक निवेश के इस दौर में शिवसेना की गतिविधियां न केवल कानून-व्यवस्था की स्थिति को चुनौती दे रही हैं, बल्कि यह संदेश भी दे रही हैं कि राज्य सरकार में भागीदारी कर रहा एक धड़ा इसका हिस्सा है, पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने सरकार में प्रभाव को बनाये रखा अौर वर्ली स्थित नेहरू सेंटर में पुस्तक विमोचन का आयोजन 200 से भी पुलिसकर्मियों की मदद से पूरा कराया.

यह सरकार की मौजूदगी का प्रखर संकेत है. मुख्यमंत्री का यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि इस कांड से मुंबई की साख कम हुई है. शिवसेना की आक्रामक पहल भाजपा के लिए चुनौती बन गयी है.

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