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पूर्वोत्तर के राज्यों में उग्रवादी हिंसा का नया चरण

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तीन दशकों में पूर्वोत्तर में हुए सबसे बड़े उग्रवादी हमले में 18 सैनिकों की शहादत ने इस क्षेत्र में हिंसा के फिर से उभार के खतरनाक संकेत दिया है. सरकार द्वारा युद्ध-विराम और शांति-वार्ता करने तथा विद्रोहियों के समर्पण के लिए उत्साहित करने के साथ रक्षा बलों की कोशिशों से पिछले कुछ वर्षों से माहौल […]

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तीन दशकों में पूर्वोत्तर में हुए सबसे बड़े उग्रवादी हमले में 18 सैनिकों की शहादत ने इस क्षेत्र में हिंसा के फिर से उभार के खतरनाक संकेत दिया है. सरकार द्वारा युद्ध-विराम और शांति-वार्ता करने तथा विद्रोहियों के समर्पण के लिए उत्साहित करने के साथ रक्षा बलों की कोशिशों से पिछले कुछ वर्षों से माहौल में बदलाव दिख रहा था.

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त्रिपुरा से सशस्त्र सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून हटाया जाना इसी बदलाव का उदाहरण था, किंतु इस हमले ने सभी संबद्ध पक्षों को पूरे परिदृश्य पर पुनर्विचार के लिए विवश किया है. इस समस्या के समाधान के प्रयास में राजनीति, रक्षा नीति और विदेश नीति के कारक समान रूप से महत्वपूर्ण हैं. प्रस्तुत है पूर्वोत्तर की वर्तमान स्थिति पर एक विमर्श आज के समय में..

दीर्घकालिक समाधान जरूरी

अजय साहनी

आंतरिक सुरक्षा मामलों के जानकार

मणिपुर के हमले से सबक लेते हुए उत्तर-पूर्व में विकास के साथ सरकारी संस्थानों की पहुंच लोगों तक हो, यह सुनिश्चित करने का प्रयास भी सरकार को प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए.उत्तर-पूर्व के उग्रवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के साथ ही राजनीतिक तौर पर भी कोशिशें जारी रहनी चाहिए. उत्तर-पूर्व के लोग अब हिंसा से तंग आ चुके हैं और अगर सरकार सही नीति अपनाये, तो वहां शांति का माहौल स्थापित किया जा सकता है.

मणिपुर में उग्रवादियों द्वारा सेना के 18 जवानों की की गयी हत्या से साफ जाहिर होता है कि उत्तर-पूर्व में हालात सामान्य नहीं हैं. यह पहला मामला नहीं है. मई महीने में ही नागालैंड में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड(खापलांग गुट) ने चार सैनिकों की घात लगा कर हत्या कर दी थी.

ये दोनों हादसे म्यांमार सीमा के नजदीक हुए हैं. यह काफी मुश्किल इलाका है. जंगल और पहाड़ी इलाका होने के कारण उग्रवादियों को छिपने की जगह आसानी से मिल जाती है और वे हमला कर म्यांमार चले जाते हैं. इसके अलावा यहां कई तरह की अन्य

चुनौतियां भी हैं.

डोगरा रेजीमेंट के 18 जवानों की हत्या को खुफिया विफलता के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. यह एक सुनियोजित हमला था. एनएससीएन (खापलांग) को इसके लिए जिम्मेवार माना जा रहा है. भारत सरकार के साथ मार्च महीने में शांति समझौते से अलग होने की घोषणा करते हुए इस संगठन ने सेना पर हमले की धमकी दी थी. उत्तर-पूर्व में मणिपुर सबसे अशांत राज्य है.

यहां कई उग्रवादी संगठन जैसे यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ मणिपुर, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर हैं. ये संगठन भारत सरकार के साथ हुए शांति समझौते में शामिल नहीं रहे हैं. इसके अलावा कई जातीय संगठन जैसे केएनए, एनएससीएन (आइएम) और पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी जैसे अन्य संगठन भी हैं. यहां सेना के जवानों पर हमला करना कोई नयी बात नहीं है. उग्रवादी संगठनों के हमले और सेना की जवाबी कार्रवाई से मणिपुर का माहौल तनावपूर्ण रहता है. विकास की कमी, जातीय समूहों के बीच घृणा के कारण हिंसक गतिविधि होती रहती है.

वर्ष 2010 में मणिपुर सरकार द्वारा एनएससीएन (आइएम) के नेता मुइवा को अपने गांव जाने की इजाजत नहीं देने के कारण 2 महीने तक नागा संगठनों ने राज्य की नाकेबंदी कर दी थी.

राज्य के संस्थानों की असफलता से उग्रवादी संगठनों ने अवैध वसूली का नेटवर्क तैयार कर लिया है. स्थानीय लोगों के बीच हिंसा का सहारा लेकर उग्रवादी संगठनों ने अपनी पैठ मजबूत कर ली है. इस हिंसा को रोका जा सकता है, अगर सरकार यह सुनिश्चित करे कि शांति समझौते का पालन करनेवाले संगठनों को हथियारमुक्त किया जाये.

लेकिन सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया. आज उल्फा, एनएससीएन (खापलांग) और कई अन्य उग्रवादी संगठनों ने मिल कर यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ वेस्ट साउथ-इस्ट एशिया नामक संगठन बना लिया है.

कई दशकों से उत्तर-पूर्व के राज्य अशांत रहे हैं. इसकी मुख्य वजह विकास न होना और आंतरिक सुरक्षा का बेहतर माहौल नहीं होना रहा है. नागालौंड में उग्रवादी संगठनों के साथ समझौते के कारण हालात सामान्य रहे. लेकिन नागा नेताओं के साथ राजनीतिक बातचीत की गति धीमी होने के कारण एक बार फिर माहौल खराब हो रहा है. एनएससीएन (खापलांग) गुट बेहद खतरनाक संगठन है.

अब विभिन्न उग्रवादी संगठन मिल कर हिंसा को नया आयाम देने की कोशिश कर रहे हैं. सुरक्षा बलों की कार्रवाई के कारण उग्रवादी संगठन बिखर गये थे. संगठन में आपसी विवाद और नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण इनका प्रभाव सिकुड़ गया था, लेकिन वे पूरी तरह खत्म नहीं हो पाये थे. अब मिल कर उग्रवादी संगठन फिर से जिंदा होने की कोशिश कर रहे हैं.

सेना ने अपनी कार्रवाई से इलाके में जो बढ़त बनायी थी, उसका राजनीतिक नेतृत्व ने फायदा नहीं उठाया. तात्कालिक समाधान के लिए उग्रवादी संगठनों से युद्ध विराम का समझौता कर लिया. उत्तर-पूर्व की समस्या के दीर्घकालिक समाधान के बजाय राजनीतिक समाधान किया गया.

इसके लिए स्वायत्त क्षेत्र बनाने की पहल की गयी. जातीय समूहों की मांगों को ध्यान में रखा गया और अब वहां मौजूदा अन्य समूह के लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. समाधान संविधान के दायरे में खोजने की कोशिश नहीं की गयी. समस्या का सैद्धांतिक हल खोजने के बजाय अवसरवादी समाधान की कोशिश की गयी. गैर सैद्धांतिक समाधान से अन्य समस्याएं सामने आने

लगती है.

पहले से तुलना करें, तो उत्तर-पूर्व में हिंसा घटी है. यह सरकार की नीतियों के कारण नहीं हुआ है, बल्कि उग्रवादी संगठनों के कमजोर होना प्रमुख कारण है. हिंसा में कमी का श्रेय सरकार बिना जमीनी हकीकत समङो लेने की कोशिश करने लगती है और जब हादसे होते हैं, तो फिर बौखलाहट की स्थिति देखी जाती है. भूटान और बांग्लादेश ने अपने देश से इन उग्रवादी संगठनों को खदेड़ दिया तो असम, नागालैंड, त्रिपुरा जैसे राज्यों में हिंसा में कमी आयी. इन देशों ने इन संगठनों के आर्थिक नेटवर्क पर भी नकेल लगा दी.

लेकिन म्यांमार ऐसा नहीं कर रहा है. भारत सरकार को म्यांमार से बात कर वहां मौजूदा उग्रवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बनाना चाहिए. अगर म्यांमार सरकार ऐसा करती है, तो उत्तर-पूर्व के उग्रवादी संगठनों के प्रभाव को सीमित किया जा सकता है.

इसके अलावा सरकार को तात्कालिक समाधान के बजाय जमीनी हकीकत के आधार पर समाधान खोजने की पहल करनी चाहिए. मणिपुर में सेना के जवानों पर हमले से सबक लेते हुए उत्तर-पूर्व में विकास के साथ सरकारी संस्थानों की पहुंच लोगों तक हो, यह सुनिश्चित करने का प्रयास भी सरकार को प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए.

उत्तर-पूर्व के उग्रवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के साथ ही राजनीतिक तौर पर भी कोशिशें जारी रहनी चाहिए. उत्तर-पूर्व के लोग अब हिंसा से तंग आ चुके हैं और अगर सरकार सही नीति अपनाये, तो वहां शांति का माहौल स्थापित किया जा सकता है.

बंदूक नहीं, बातचीत ही है सही रास्ता

बीनालक्ष्मी नेपराम

कंट्रोल आर्म्स फांउडेशन ऑफ इंडिया से जुड़ी हैं

बुनियादी सुविधाओं विशेष रूप से स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें, तो दो लाख की आबादी पर मात्र दो अस्पताल हैं. सरकार को बंदूक का जवाब बंदूक से देने की प्रक्रिया को त्यागते हुए बातचीत और विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए.

मणिपुर में जो संघर्ष चल रहा है, वह आत्मसम्मान और पहचान के लिए ज्यादा है, न कि सिर्फ गरीबी के लिए. स्थानीय प्रशासन की नाकामियों ने समस्या को और विकराल कर दिया है.

बीते गुरुवार मणिपुर में सेना के जवानों की जिस तरह से हत्या की गयी, उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता. इस एक घटना ने मणिपुर में या यू कहें कि पूरे नार्थ इस्ट को फिर से उग्रवाद की चपेट में ढकेलने का संकेत दिया है.

सेना का कोई भी जवान हो, जो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए डय़ूटी पर लगा है, विपरीत हालात में परिवार से दूर रह कर काम कर रहा है, उसका मारा जाना बिल्कुल ही ठीक नहीं है. लेकिन हिंसा की कोई पहली घटना नहीं है. अभी तक सिर्फ मणिपुर में बीस हजार लोग मारे जा चुके हैं, यानी बीस हजार विधवाएं है, जो विपरित परिस्थति में जीवन यापन कर रही हैं. 1990 से लेकर 2015 तक 984 सुरक्षा कर्मी शहीद हो गये. इसी दौरान 2248 नागरिक और 2763 उग्रवादी भी मारे गये.

कोई हत्या हो, चाहे सेना की, उग्रवादियों की या फिर नागरिकों की इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए. बीते गुरुवार को हुई वारदात ने हमें फिर से न सिर्फ मणिपुर बल्कि पूर्वोतर के लिए नये सिरे से सोचने को मजबूर कर रहा है ताकि इस पूरे इलाके में शांति हो.

इस घटना के बात केंद्रीय रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और सैन्य प्रमुख की उच्च स्तरीय बैठक बुलायी गयी और इस बैठक में इस घटना की समीक्षा करते हुए यह आदेश दिया गया है कि ढूंढ़ कर मारो और नष्ट करो ‘ऑल आउट सर्च एंड डिस्ट्रॉय’ ऑपरेशन चलाने की बात कही गयी. लेकिन ऐसे में सवाल उठता है कि इससे किसको फायदा होगा.

क्या सेना के ऑपरेशन के जरिये हम मणिपुर की समस्या का समाधान कर सकते हैं. क्या यही एक रास्ता है मणिपुर या पूरे उत्तर पूर्व में हिंसात्मक गतिविधियों से निपटने के लिए. क्या इससे मणिपुर में शांति लायी जा सकती है. जवाब है कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता. तो फिर लगातार हम इन इलाकों में शांति की स्थापना के लिए सेना क्यों भेजते हैं.

लगातार 40 वर्षो से एक ही तरह की नीति को अपना कर केंद्र व राज्य की सरकारें मणिपुर में उग्रवाद की समस्या को सुलझाना चाहते हैं. जब भी कोई घटना होती है, तो राज्य सरकार अतिरिक्त सैन्य बल की मांग करती है, केंद्र सरकार स्थिति की समीक्षा करती है और अतिरिक्त सैन्य बल भेज दिया जाता है. लेकिन इससे समस्या बढ़ती चली गयी. कोई भी सरकार 45 बिलियन लोगों को सेना के जरिये नियंत्रित नहीं कर सकती. पूरे पूर्वोतर का 98 फीसदी बॉर्डर पांच देशों को छूते हैं.

मणिपुर में हिंसा की समस्या से निपटने के लिए हमें समस्या के अन्य पहलुओं पर विचार करना होगा. अभी तक ऐसा लग रहा है कि न राज्य की सरकार और न ही केंद्र की सरकार सही मायने में मणिपुर और पूर्वोतर की समस्या को समझ पायी है. यदि समझ भी रही है तो समाधान का रास्ता सही नहीं है. सरकार अभी तक खुफिया तंत्र के संकेत पर फैसला लेकर और उसके सुझाव पर कार्रवाई करते हुए सेना का जमावड़ा बढ़ा देती है. सेना, अफ्स्पा आदि को लागू करने या भेजने की जो नीति अपनायी गयी है, उससे समस्या और बढ़ी है.

इस घटना से यह साफ हो गया है कि 1990 के बाद इंडो-बर्मा रिवोल्यूशनरी फ्रंट 1990 के बाद एक बार फिर से संगठित होने के प्रयास में है. हमें इस परिप्रेक्ष्य को सामने लाते हुए नागर संगठनों को साथ लेते हुए आगे की रणनीति बनानी होगी.

मणिपुर में 25 फीसदी युवा पढ़े-लिखे बेरोजगार हैं. 70 लाख युवा बेरोजगारों की एक लंबी फौज है, जिनके पास करने को कुछ नहीं है. यह सरकारी आंकड़े हैं. वह विकास की प्रक्रिया में खुद को भागीदार बना कर रोजी रोजगार पाना चाहता है.

भ्रष्टाचार चरम पर है. सब इंस्पेक्टर से लेकर डिप्टी कलक्टर सभी पदों के लिए रेट निर्धारित हैं. आम घरों का युवा जब इतने पैसे नहीं दे पाता, तो उसके सामने बेरोजगारी के सिवा कोई विकल्प नहीं है. विकास के अभाव में वह उग्रवादियों द्वारा आसानी से बहकावे में आ सकता है. मणिपुर में महिलाएं काफी मजबूत हैं. बुनियादी सुविधाओं विशेष रूप से स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें, तो 2 लाख की आबादी पर मात्र दो अस्पताल हैं.

सरकार को बंदूक का जवाब बंदूक से देने की प्रक्रिया को त्यागते हुए बातचीत और विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए. मणिपुर में जो संघर्ष चल रहा है, वह आत्मसम्मान और पहचान के लिए ज्यादा है, न कि सिर्फ गरीबी के लिए. स्थानीय प्रशासन की नाकामियों ने समस्या को और विकराल कर दिया है.

मणिपुर में महिलाएं काफी मजबूत हैं. पिछले छह दशक से लगातार हो रहे संघर्ष और मौत की घटनाओं के बीच भी काफी सकारात्मक रुख अख्तियार किया है. उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन चलायें हैं, लेकिन सरकार जो भी बातचीत की प्रक्रिया शुरू करती है, उसमें महिलाओं को भागीदार नहीं बनाया जाता.

सिर्फ मणिपुर में ही नहीं, बल्कि पूरे नार्थ इस्ट में वर्तमान में 17 शांति वार्तायें चल रही हैं, लेकिन किसी भी वार्ता में कोई भी महिला या उनसे जुड़े संगठनों की भागीदारी नहीं है. मणिपुर में बिना महिलाओं को भागीदार बनाये कोई भी दीर्घ कालिक शांति प्रक्रिया नहीं चलायी जा सकती. महिला संगठनों ने कई बार इस मुद्दे को उठाया है, लेकिन केंद्र या राज्य सरकार इस बात पर ध्यान नहीं देती.

(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

कुछ प्रमुख सक्रिय संगठन

शेष भारत से 23 किलोमीटर चौड़ी पट्टी, जिसे सिलिगुड़ी गलियारा कहते हैं, के जरिये जुड़ा पूर्वोत्तर भारत भारत कई दशकों से हिंसक उग्रवाद का शिकार है. आजादी के तुरंत बाद नागा क्षेत्रों में शुरू हुई अलगाववादी हिंसा आज पूरे क्षेत्र की त्रसदी है. पूर्वोत्तर में सक्रिय उग्रवादी गिरोहों पर एक नजर..

नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड- खापलांग

– मणिपुर के चंदेल जिले में सेना के काफिले पर गुरुवार को हुए हमले की जिम्मेवारी लेनेवाले एनएससीएन-खापलांग गुट की स्थापना 30 अप्रैल, 1988 को हुई थी. यह संगठन मूल नागा अलगाववादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड में दो नागा जातीय समूहों- कोंयाक और तांग्खुल- में विवाद का परिणाम था. कोंयाक तबके ने खोले कोंयाक और एसएस खापलांग के नेतृत्व में एनएससीएन (खापलांग) बनाया. तांग्खुल तबके, एनएससीएन (आइजक-मुइवा) के नेता आइजक चिसी स्वू और टी मुइवा हैं.

एसएस खापलांग के नेतृत्व में गुट पूर्वोत्तर के नागा-बहुल तथा म्यांमार के कुछ इलाकों को मिला कर ग्रेटर नागालैंड बनाना चाहता है. नागालैंड के पूर्वी हिस्से और अरुणाचल के तिराप व चांगलांग जिलों में यह गिरोह सक्रिय है. ताजा हमले में मारे गये अकेले उग्रवादी की शिनाख्त खांपलाग के सदस्य के रूप में की गयी है.

कांग्लेईपाक कम्युनिस्ट पार्टी, मणिपुर

– इस पार्टी की स्थापना 13 अप्रैल, 1980 को वाइ इबोहांबी के नेतृत्व में हुई थी और इसका उद्देश्य मणिपुर को भारत से अलग करना तथा मेतेई संस्कृति की रक्षा करना है. इसके नाम में जुड़ा कांग्लेईपाक मणिपुर का ऐतिहासिक नाम है. वर्ष 1995 में इसका संस्थापक प्रमुख इबोहांबी सुरक्षा बलों द्वारा मारा गया था. उसके बाद यह संगठन कई गुटों में बंट गया था, लेकिन खबरों के अनुसार 2006 के मई महीने में साझा बैठक में इन गुटों ने फिर से एक होने का निर्णय किया था.

कांग्लेई यावोल कान्ना लुप

– इस गुट की स्थापना विभिन्न उग्रवादी गिरोहों को मिलाकर जनवरी, 1994 में हुई थी. मेतेई तबके के हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करनेवाला यह गुट अनैतिक गतिविधियों, भ्रष्टाचार और नशाखोरी के विरोध में संलग्न है तथा यह पूर्वोत्तर के साझा ‘राष्ट्रवाद’ की वकालत करता है. लुप मणिपुर के चार घाटी जिलों-इंफाल पूर्व, बिशेनपुर, थुबाल और इंफाल पश्चिम में सक्रिय है. कांग्लेईपाक पार्टी के साथ लुप पर भी सैनिकों पर हुए ताजा हमलों में शामिल होने की आशंका जतायी जाती है.

ङोलियांगग्रॉंग युनाइटेड फ्रंट

– वर्ष 2011 में मणिपुर में स्थापित यह गुट ङोलियांगग्रॉंग इंपुइ, चिरु और अन्य क्षेत्रीय अल्पसंख्यकों के हितों का प्रतिनिधित्व का दावा करता है. भारतीय सुरक्षा बलों के अलावा इसका मुख्य संघर्ष आइजक-मुइवा के एनएससीएन गुट से है. इस गिरोह का अध्यक्ष कामसन है और मुख्य कमांडर जैनचुइ कामेई है.

युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा)

– पूर्वोत्तर के इस सबसे हिंसक और ताकतवर उग्रवादी संगठन का गठन सात अप्रैल, 1979 को असम के सिबसागर में हुई थी और इसका उद्देश्य ‘संप्रभु समाजवादी असम’ की स्थापना करना घोषित किया गया था. अविभाजित उल्फा में उसके राजनीतिक इकाई की जिम्मेवारी अरबिंद राजखोवा की थी, जबकि उसके मिलिट्री इकाई को परेश बरुआ संभालता था. वर्ष 1986 में इस गुट ने अविभाजित एनएससीएन और म्यांमार के काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी से प्रशिक्षण और हथियारों के लिए संपर्क किया था. बाद में उसके तार पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आइएसआइ और अफगान लड़ाकों से भी जुड़े.

वर्ष 2011 के पांच फरवरी को उलफा के शीर्ष नेताओं के एक बड़े धड़े ने यह घोषणा की कि संगठन बिना किसी पूर्व शर्त के भारत सरकार से बातचीत के लिए तैयार है. इसकी पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए सरकार ने भी विभिन्न गिरफ्तार नेताओं और काडरों को जमानत देने और फरार कार्यकर्ताओं को निशाना न बनाने जैसी पहलें की थीं. लेकिन परेश बरुआ के नेतृत्व में संगठन के एक तबके ने सरकार से बातचीत के निर्णय को खारिज कर दिया.

केंद्र सरकार, असम सरकार और उल्फा के एक गुट के साथ तीन सितंबर, 2011 को हुए समझौते में तीनों पक्षों ने अपनी संबंधित गतिविधियों को रोकने की घोषणा कर दी. अगस्त, 2012 में परेश बरुआ द्वारा अरबिंद राजखोवा को निष्कासित कर अभिजीत बर्मन को संगठन का मुखिया बनाने के निर्णय के साथ ही उल्फा का औपचारिक विभाजन हो गया.

नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड

– तीन अक्तूबर, 1986 में रंजन दैमरी के नेतृत्व में एक अतिवादी संगठन बोडो सिक्यूरिटी बल के नाम से बनाया गया था, जिसका नाम 25 नवंबर, 1994 को बदलकर नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड कर दिया गया. मई, 2005 से इस संगठन और असम तथा केंद्र सरकारों के बीच युद्धविराम की स्थिति है, परंतु अभी तक कोई औपचारिक शांति-वार्ता शुरू नहीं हो सकी है.

इस संगठन का उद्देश्य ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तर के बोडो-बहुल क्षेत्रों को मिलाकर स्वतंत्र और संप्रभु बोडोलैंड की स्थापना है. रंजन दैमरी की जगह 2008 के दिसंबर महीने में धीरेन बोरो को गुट का अध्यक्ष बनाया गया था. दैमरी फिलहाल बांग्लादेश में है. इस घटनाक्रम को संगठन में विभाजन के रूप में भी देखा जाता है, पर फ्रंट ने ऐसी किसी भी स्थिति से इंकार किया है.

अन्य उग्रवादी संगठन

कामतापुर लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन, मणिपुर लिबरेशन फ्रंट, गारो लिबरेशन आर्मी, त्रिपुरा लिबरेशन फ्रंट समेत कई उग्रवादी समूह पूर्वोत्तर के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय हैं.

पूर्वोत्तर के नौ उग्रवादी संगठनों की एका

भारत सरकार की उग्रवाद-विरोधी कार्यवाहियों का सामना करने और अपने अस्तित्व तथा उद्देश्य को व्यापक करने के लिए इस वर्ष के शुरू में पूर्वोत्तर भारत में सक्रिय नौ भूमिगत उग्रवादी संगठनों ने एक साझा मंच बनाया है. इस मंच का नाम यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ वेस्टर्न साउथइस्ट एशिया रखा गया है. इस नाम में निहित पश्चिमी दक्षिणपूर्व एशिया उस बड़े क्षेत्र का संकेतक है जहां ये संगठन काम कर रहे हैं. इस क्षेत्र में उत्तर-पूर्व भारत, भूटान, उत्तर बंगाल और म्यांमार शामिल है.

इस फ्रंट में नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड (खापलांग), उल्फा (इंडिपेंडेंट)-परेश बरुआ गुट, कांग्लेईपाक कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्लेई यावोल कुन्ना लुप, पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांग्लेईपाक, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (सोंग्बजीत गुट) शामिल हैं.

एनएससीएन (खापलांग) के प्रमुख एसएस खापलांग को इस समूह का अध्यक्ष बनाया गया है. खबरों के मुताबिक, परेश बरुआ को संयोजन और हथियारों की आपूर्ति तथा विदेशी एजेंसियों से संपर्क और समर्थन का काम सौंपा गया है. यह एकजुटता पूर्वोत्तर में शांति-बहाली की कोशिशों के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है और मणिपुर में डोगरा रेजिमेंट की टुकड़ी पर हुए खतरनाक हमले के पीछे कई गिरोहों की साङोदारी के संकेत हैं.

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