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मुलायम सिंह के समाजवाद पर बाजारवाद का रंग!

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खुद को समाजवादी कहने वाले मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन पर शाहखर्ची देख लोग हैरान हैं. यही मुलायम सिंह कुछ दिनों पहले तक मायावती के जन्मदिन पर होनेवाले खर्चो पर सवाल उठाया करते थे. सादगीपसंद लोहिया का शिष्य लंदन की बग्घी की सवारी में शान क्यों समझने लगा, इस बारे में पढ़िए यह विेषण. मुलायम […]

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खुद को समाजवादी कहने वाले मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन पर शाहखर्ची देख लोग हैरान हैं. यही मुलायम सिंह कुछ दिनों पहले तक मायावती के जन्मदिन पर होनेवाले खर्चो पर सवाल उठाया करते थे. सादगीपसंद लोहिया का शिष्य लंदन की बग्घी की सवारी में शान क्यों समझने लगा, इस बारे में पढ़िए यह विेषण.

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मुलायम सिंह का राजनीतिक सफर कुछ अजीब-सा है. इटावा के एक स्कूल में एलटी ग्रेड टीचर के इस मुकाम तक पहुंच जाने की. जिस वर्ष डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हुई थी, उसी वर्ष मुलायम सिंह जसवंत नगर से विधायक चुने गये थे. वे उस मध्यवर्ती जाति से आते थे, जिसके तब के नेता चौधरी रामसेवक यादव और रामगोपाल यादव (प्रो राम गोपाल यादव नहीं) और हरमोहन सिंह यादव का समाजवादियों के बीच डंका बजता था. मगर ये सब नेता कालांतर में खत्म हो गये और जिस नेता ने लोहिया जी के बाद उनकी राजनीतिक पूंजी संभाली, उसमें मुलायम सिंह अव्वल हो गये. इसमें दो चीजें बड़े काम की रहीं. एक तो उनका यादव होना और पिछड़ी व मध्यवर्ती जातियों के बीच से नेतृत्व का खत्म हो जाना.

1977 की जनता पार्टी के वक्त जब वे उत्तर प्रदेश की राम नरेश यादव सरकार के समय सहकारिता राज्यमंत्री बनाये गये, तब भी उनकी कोई पूछ नहीं थी और उनकी छवि एक ऐसे नेता की थी जिस पर चंबल के डाकुओं को शरण देने का आरोप था. तब रविवार ने एक स्टोरी छापी थी कि भर्थना, इटावा में मुलायम की एक जनसभा में एक महिला ने खड़ी होकर कहा कि ‘अरे जेऊ तो आय काल हमाये यहां डकैती डारन आओ तो. याखी अंगुरिया दयाखो हम चबाय डाली थी.’ इतना सुनते ही उस जनसभा से एक व्यक्ति अपना कंबल छोड़ कर मंच से कूदा और भाग गया. बताया जाता है कि वह चंबल का एक डाकू था. तब आलोचना तो खूब हुई मगर मुलायम सिंह का सफर कोई रोक नहीं सका. 1980 में वे बाबू बनारसी दास सरकार में भी रहे. लेकिन इस बीच उन्होंने चौधरी चरण सिंह से अपनी नजदीकी बना ली और 1982 में चौधरी साहब ने उन्हें लोकदल का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. यह मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट था.

वे प्रदेश के बड़े नेता के रूप में उभरने लगे और 1985 के विधानसभा चुनाव में चौधरी साहब ने उनसे टिकट बंटवारे में राय ली. बाद की कांग्रेस सरकार में वे नेता विरोधी दल बने. बस यहीं से मुलायम सिंह का राजनीतिक सफर ऊपर की तरफ बढ़ने लगा. वीपी सिंह को मात देने के लिए राजीव गांधी को यूपी में एक ऐसा नेता चाहिए था, जो वीपी के रजवाड़े की जमीनों के किस्से उजागर कर सके. इसके लिए मुख्यमंत्री एनडी तिवारी और नेता विरोधी दल मुलायम सिंह में एक तानाबाना बुना गया और मुलायम ने अपने पूरे कार्यकाल में सरकार पर हमले किये भी और नहीं भी किये. यानी वे प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इशारे पर उन्हीं की सरकार के वित्त मंत्री वीपी सिंह को आड़े हाथों लेते रहे. नतीजा यह हुआ कि जब कांग्रेस का पतन हुआ, तो जो नयी सरकार सूबे में बनी उसके मुखिया मुलायम सिंह चुने गये. मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उनकी सरकार मंडल-कमंडल आंदोलन के दौरान गिरी, तो उन्होंने अपनी लोकदल को तिलांजलि देते हुए नयी पार्टी बना ली समाजवादी पार्टी, जिसके वे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने.

मुलायम सिंह का राजनीतिक सफर अब परवान चढ़ने लगा. समाजवादी पार्टी पर उन्होंने समाजवाद और यादवी राजनीति का मुलम्मा चढ़ाया. वोट बैंक की यह राजनीति काम कर गयी और सूबे में बाबरी मसजिद ढहने के बाद जब कल्याण सिंह सरकार गिरी और डेढ़ साल के राष्ट्रपति शासन के बाद विधानसभा चुनाव हुए, तो उन्होंने कांसीराम के साथ दलित वोटों का समझौता किया और कांसीराम को इटावा से संसद भिजवा कर यूपी में सपा और बसपा की मिली-जुली सरकार बनवा ली. मगर गांवों की अर्थ व्यवस्था में यादव-कुर्मी सामंत थे और दलित भूमिहीन किसान. इसलिए यह समझौता चल नहीं पाया. नतीजा हुआ 1995 का मीराबाई गेस्ट हाउस कांड. इसके बाद तो मुलायम और मायावती में ऐसी ठनी कि दोनों में तीन और छह के रिश्ते बन गये. मायावती इस नेता से इतना नाराज हो गयीं कि उन्होंने पिछड़ों की बजाय सवर्ण हिंदुओं की राजनीति करने वाली भाजपा की बांह थाम ली. नतीजा भी अनुकूल हुआ. मायावती सत्ता में आ गयीं और मुलायम सिंह दूर होते गये. वह तो 2003 में जब मुलायम सिंह अपने साथ अमर सिंह को बिचौलिया बना कर लाये, तो उनकी राह फिर सुगम होने लगी. भाजपा की शरण गही गयी और भाजपा नेता लाल जी टंडन ने जुलाई 2003 में मायावती सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार गिरवा दी तथा सदन का बायकाट कर मुलायम सिंह की सरकार बनवा दी.

लेकिन मुलायम सिंह को अमर सिंह ने समाजवादी राजनीति से उतना ही दूर कर दिया और इटावा के सीधे-सादे स्कूल टीचर को बॉलीवुड की सैर हवा लगा दी. 2004 से शुरू हुआ सैफई महोत्सव. सांस्कृतिक कार्यक्र म के नाम पर आइटम डांस होने लगे. करोड़ों रु पये इस मेले पर खर्च होने लगे. मुलायम राज का मतलब गुंडा राज हो गया. किसी को धमकाया गया, तो किसी को ललचाया गया और सपा का वह राज शुरू हुआ, जिससे यूपी तब तक अनजान था. 2007 में जब मायावती सरकार बनी, तो अमर सिंह छिटक गये. मुलायम सिंह को अपने सजातीय लोगों की याद आयी. पर, चूंकि मुलायम वोट बैंक की राजनीति में माहिर हैं इसलिए 2012 में सपा फिर सत्ता में आयी पर अबकी इस सरकार में परिवार के कई लोगों की निगाह थी. मुलायम ने दावं चला और बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया.

लेकिन इन्हीं मुलायम सिंह ने अपने 75वें जन्मदिन को जिस अंदाज में मनाया, उससे यह तो लग ही गया कि मुलायम सिंह आज किसी सोशिलस्ट पार्टी के नेता नहीं बल्किउस कॉरपोरेटी पार्टी के मुखिया हैं, जो इटावा जिले के सैफई नामक स्थान से चलती है. और जिसमें ए टू जेड तक सिर्फ और सिर्फमुलायम परिवार के ही लोग हैं. खुद पुराने समाजवादी भी दबे-ढके स्वर में मुलायम सिंह की इस शाहखर्ची की निंदा कर रहे हैं. लेकिन मुलायम इस सारे तामझाम में न केवल सक्रि य रूप से शरीक रहे बल्किअत्यंत फूहड़ अंदाज में इसे सही ठहरा रहे हैं.

क्या एक खांटी समाजवादी के लिए अजूबा नहीं कि जीवन भर समाजवाद की दुहाई देनेवाले मुलायम सिंह की सपा ने आम चुनाव में लोकसभा की जो छह सीटें जीती थीं, उनमें से दो पर वे स्वयं और बाकी चार में से एक पर बहू, व बाकी एक-एक पर भतीजे थे. यही नहीं बाद में सितंबर में जो उपचुनाव हुए उसमें मुलायम सिंह ने अपनी खाली की गयी लोकसभा सीट पर अपने पोते तेजप्रताप को जितवाया. अभी हाल में यूपी से राज्यसभा के लिए सपा ने जिन छह लोगों को टिकट दिया और जितवाया उसमें एक उनके भाई रामगोपाल यादव भी हैं. ऐसा लगता है कि पूरा उत्तर प्रदेश मुलायम का कॉरपोरेट घराना बन गया है. बेटा मुख्यमंत्री और भाई शिवपाल सूबे का सबसे रसूखदार मंत्री. ऐसे मुलायम को यदि अभी भी समाजवादी कहा जायेगा, तो कहना पड़ेगा माफ करना आपका समाजवाद लिजलिजा और गलीज है. विशुद्ध तौर पर ब्राह्मणवादी समाजवाद है. मुलायम सिंह जी किस मुंह से अब बसपा सुप्रीमो मायावती की निंदा करेंगे कि वे अपने जन्मदिन को किसी महारानी की भांति मनाती हैं.

मुलायम सिंह के जन्मदिन पर सपा सरकार के ताकतवर मंत्री आजम खान ने रामपुर की मुहम्मद अली जौहर यूनीवर्सिटी में भव्य और बेहद खर्चीले अंदाज में मनाया. खुद मुलायम सिंह ने 75 फिट चौड़ा और 500 किलो वजन वाला बर्थ डे केक काटा और एक शानदार विक्टोरिया (बग्घी) में सवार होकर वे जौहर यूनीवर्सिटी गये. 22 नवंबर को मुलायम सिंह ने 75 साल पूरे कर लिये और एक दिन पहले आधी रात से ही कार्यक्र म शुरू हो गये. रामपुर के स्कूल-कॉलेज दो दिन तक बंद रखे गये. हंसराज हंस को गायन हेतु बुलाया गया और ऐसा वादन चला कि लोग बाग ऊं घ-ऊं घ कर जाने लगे. सभी दलों ने मुलायम सिंह के इस अ-समाजवादी खर्च की आलोचना की है.

मुलायम सिंह उस प्रदेश और उस पार्टी के प्रतिनिधि हैं जहां पर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, राजनारायण और उग्रसेन जैसे फक्कड़ समाजवादी रहे हैं. जिन्होंने अपना सब कुछ सामाजिक न्याय, समानता व भाईचारे के लिए गंवा दिया, पर कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया.

पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह भी उसी कुत्सित ब्राह्मणवाद के शिकार हो गये हैं, जिसका वे जीवन भर विरोध करते रहे हैं. क्या पिछड़ी जातियों के नेताओं के इस हश्र से नहीं लगता कि निकट भविष्य में ब्राह्मणवाद एक नये रूप में मौजूद होगा और तब शायद इस श्रेष्ठतावादी ब्राह्मणवाद से लड़ पाना मुश्किल होगा!

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