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शहीद आत्मा की सिसकियां

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चुनाव के वक्त पर यह पत्र एक पाठक ने हमें भेजा है, इनके बहुत से तर्क से हम और आप असहमत हो सकते हैं, इसके बावजूद एक पाठक के पत्र को हम यहां यह कहते हुए छाप रहे हैं किये चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बन सकते? पी जोसफ कुछ दिन पूर्व मैं रोज की तरह […]

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चुनाव के वक्त पर यह पत्र एक पाठक ने हमें भेजा है, इनके बहुत से तर्क से हम और आप असहमत हो सकते हैं, इसके बावजूद एक पाठक के पत्र को हम यहां यह कहते हुए छाप रहे हैं किये चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बन सकते?
पी जोसफ
कुछ दिन पूर्व मैं रोज की तरह मोरहाबादी के मैदान में अहले सुबह जा रहा था. नींद जल्दी खुल गयी, तो नियत समय से पहले ही घर से निकल पड़ा था. बिरसा स्टेडियम के पास से गुजर रहा था कि सिसकियों की आवाज सुनायी दी. मैं ठिठक गया. कुछ डर गया, फिर सोचा पता नहीं कौन है, पर सिसकियां और तेज होती गयीं. हिम्मत जुटा कर मैंने आवाज लगायी, कौन है वहां? सड़क का सन्नाटा उन सिसकियों की आवाज को और गंभीर बना रहा था. मैंने फिर पूछा, कोई है? एक रुंधी आवाज आयी, मैं एक शहीद की आत्मा हूं.
दो वर्ष पूर्व इसी राज्य में हुए नक्सली हमले में मेरा जीवन समाप्त हुआ था. डर के मारे मैं सहम गया. हिम्मत जुटा कर मैंने फिर पूछा पर.. आप यहां क्या.. क्यों.. हो? आत्मा ने कहा आप लोग हमारे नाम पर कार्यक्रम रखे थे ना, उसी में आया था. फिर क्या हुआ? वो तो शहीद सम्मान समारोह था ना?
मैंने कुछ कहने की कोशिश की, हां मरने के बाद भी आप लोग हमें चैन से नहीं रहने देते हो, श्रद्धांजलि के नाम पर मात्र फूल चढ़ाते हो. हमारे रिश्तेदारों को एक शॉल ओढ़ा कर जिम्मेदारी खत्म कर लेते हो और फिर हमारे नाम पर लाखों रुपये वसूली करके, संगीत समारोह में मस्ती करते हो. हलकट जवानी.. ऐसे गीत बजा कर नाचते हो, कब्र में भी हमें अमन से नहीं रहने देते, पर यह समारोह तो पुलिस परिवार के तरफ से ही आयोजित था.. यही तो दुख की बात है.
पुलिस के आला पदाधिकारियों ने शहीदों के नाम पर प्रत्येक जिले से लाखों रुपये की वसूली की. यह सब पैसा कहां से आया? क्या उनके दाताओं की सूची सार्वजनिक करेंगे? क्या इस राशि की रसीद दी गयी थी? पूरा काला पैसा जिलों से इकट्ठा किया गया, देनेवालों ने जो इसे कॉशन मनी के रूप में दिया होगा, ताकि उन्हें किसी झूठे केस में न लपेटा जाये. क्या पुलिस के लोग इस पूरे पैसे का हिसाब देंगे? राशि का स्रोत बतायेंगे? हद तो तब हुई, जब सिने कलाकारों के साथ पुलिस के आला पदाधिकारी भी गाने बजाने लग गये. लगता है, ये सब अपना शौक पूरा करने के लिए ही शहीदों को बहाना बनाते हैं. जिंदगी में तो इन्हें ङोलते ही रहे, मौत के बाद भी.. आखिर हमारा कसूर क्या है?
कार्यक्रम के बाद एक रंगारंग पार्टी भी थी. वहां सभी रंगीन पानी पीकर झूम रहे थे. वह तो भला हो, सोशल मीडिया का, जिसके कारण सारी तसवीरें बाहर आ गयी. वहां वरीयतम पदाधिकारी के हाथों में प्याले लिये फोटो दिखा कर उनकी महिला पदाधिकारी के साथ हरकतें देख कर मैं दंग हूं, ये है, इनका असली चेहरा, असली रूप! लेकिन ये सब हमारे नाम पर क्यों? हमारी आत्मा को शांति के लिए सिने कलाकारों को इतनी मोटी रकम क्यों दी गयी? अच्छा होता कि जितनी राशि एकत्रित की गयी थी, उसे हमारे परिवारों में बांट दी जाती. कम से कम मां के दो-तीन माह की दवा का खर्च तो निकल जाता. पर उन्हें तो बस एक शॉल ओढ़ा कर विदा कर दिया.
आनेवाले चुनावों को देखते हुए, तुरंत आश्रितों को नौकरी देने का भी वादा किया गया, पर शहीदों के नाम पर पैसा इकट्ठा कर उसका ऐसा उपयोग क्यों? अपने आप को झारखंडी संस्कृति के स्वयं-भू रक्षक घोषित करने वाले पदाधिकारी, नेता क्यों ऐसे कार्यक्रमों में शरीक होते हैं? क्यों ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं होती? इनकी संपूर्ण राशि का हिसाब क्यों नहीं सरकार मांगती? ये सभी सरकारी पदाधिकारी हैं, तब इनके द्वारा अपने पदों का दुरुपयोग कर प्राप्त की गयी राशि एवं उसके अनर्गल व्यय के लिए क्या ये उत्तरदायी नहीं हैं?
यह सब बाते सुन कर मैं, अवाक था. वास्तव में क्या हमारी रक्षा के लिए प्राण -न्योछावर करनेवाले शहीदों को सम्मान से याद करते हैं? या केवल यह एक वार्षिक उत्सव है. पुलिस के आला पदाधिकारी अपने वाहनों पर तारे, झंडे, बत्ती जला कर, दो गाड़ी स्कॉर्ट लेकर शहर में घूमते हैं. जंगल में बैठ कर नक्सली ऑपरेशन के नाम पर पार्टियां चलती है. कभी इन्हें अपने जवानों की थोड़ी भी चिंता क्यों नहीं होती? कभी पुलिस लाइन्स में जाकर बैरेक, चौकी, खाने की स्थिति को कोई नहीं देखता. दूर जंगल में स्थित पिकेट की क्या हालत है. यह कौन देखेगा. पुलिस लाइन्स में तो अजब कानून है. छुट्टी देना, डय़ूटी देना सभी के लिए पैसा लिया जाता है.
कई जवान रिजर्व में ही रखे जाते हैं, जो अपने निजी कार्यो में व्यस्त रहते हैं. अभी कुछ दिन पूर्व एक पुलिसकर्मी बोकारो में वसूली करते पकड़ा गया. वह व्यक्ति एक साल से अपने कर्तव्य स्थान से गायब था. रांची पुलिस के एक वरीयतम पदाधिकारी से उसका लगातार संपर्क था. एक दिन में 20-30 बार उक्त सिपाही अपने इस आका को खबर देते रहता था और उनके लिए वसूली करता था.
सभी बातें जांच में स्पष्ट भी हो गयीं. पर हमारा निर्णय लेने वाली सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा. राजधानी में पदस्थापित इस अधिकारी ने कभी किसी बड़ी घटना के बाद घटनास्थल नहीं देखा. इतने व्यवसायी, जमीन कारोबारी पर हमले हुए, हत्याएं हुईं, कभी कोई सुधि नहीं ली, पर क्रिकेट मैच की सुरक्षा देखना ये कभी नहीं भूलते. शहर में कोई कलाकार का कार्यक्रम हो, तो ये अति तत्पर रहते हैं.
वैसे ये क्रिकेट मैच का भी बड़ा विचित्र फेरा है. इसका आयोजन क्रिकेट एसोसिएशन के द्वारा किया जाता है पर सारी व्यवस्था आला पुलिस पदाधिकारी स्वयं ही संभाल लेते है. यहां तक की पास का वितरण भी पुलिस मुख्यालय से होता है. अन्य राज्यों में संपूर्ण सुरक्षा व्यवस्था के लिए सरकार पूरा शुल्क वसूलती है. किंतु यहां बस पदाधिकारियों को पास बांटना काफी है.
आखिर किस नियम के तहत इन मैचों के लिए पुलिस सुरक्षा उपलब्ध करायी जाती है? इसके लिए कोई शुल्क क्यों नहीं लिया जाता, यह एक जांच का विषय हो सकता है. यहां क्रिकेटर्स की बसों को बाकायदा सायरन बजाते हुए, ट्रैफिक रोक कर पार कराया जाता है. यह कौन सा प्रोटोकॉल है.. कोई पूछता तक नहीं है. संपूर्ण महकमा मैच को लेकर परेशान रहता है और आयोजक बिना किसी खर्च के चंद पास बांट कर अपना काम करते हैं. कर्मियों की कमी का रोना-रोनेवाले पुलिस पदाधिकारियों को क्रिकेट मैच की सुरक्षा के लिए हजार जवान आसानी से मिल जाते हैं.
अभी कुछ दिन पूर्व रकीबुल एवं लव-जिहाद का मामला जोर-शोर से उठा. रोज अखबारों में उनकी कारगुजारियां प्रकाशित हुईं. कई बड़े पदाधिकारी के नाम भी स्पष्ट रूप से सामने आये. किंतु कार्रवाई वहीं शून्य रही. राजधानी के एक पदाधिकारी का भी नाम लिया गया, जिन्होंने पीड़िता को ही समझाया कि चुप रहने में कितनी भलाई है. राज्यों के अपराध आंकड़े भी प्रकाशित हुए, जिसमें यह स्पष्ट हुआ कि झारखंड जैसे छोटे राज्यों में अनुसंधान के लिए लंबित मामलों की संख्या देश में सर्वाधिक है.
पर कहीं कोई असर नहीं हुआ. सब जैसे थे! यहां आला अधिकारी अपने निजी स्वार्थ के लिए पुलिस कर्मियों का कितना दुरुपयोग करते हैं, इसके कई उदाहरण मिल जायेंगे. एक पदाधिकारी ने किशनगंज में अपना होटल चलाने के लिए पांच पुलिसकर्मियों को लगा कर रखा था. किसी ने पटना में अपने पुराने आकाओं के घर, तो किसी ने कहीं और हमारे पुलिसकर्मी लगा कर रखे हैं. यदि इन सब को एकत्रित किया जाये, तो एक कंपनी अतिरिक्त बल राज्य को प्राप्त हो सकेगा. आला पदाधिकारी अपने शौक में व्यस्त हैं और सरकार के बड़े अधिकारी बाल-गोपाल के साथ वृंदावन में मक्खन खाने में व्यस्त हैं. ऐसे में जनता के पास क्या रास्ता बचता है? उन्हें, आये दिन वारदातों का सामना करना है, ट्रैफिक जाम से जूझना है. पुलिस कर्मी अपनी नौकरी कर रहे हैं.
नक्सलियों के जाल में फंस कर अपनी जान गवां रहे हैं. सेवा ही परम धर्म कहनेवाली झारखंड पुलिस शहीदों के नाम पर नाच-गान एवं पार्टी करके उन्हें श्रद्धांजलि दे रही है. जीवन में तो इन जवानों को कोई चैन मिलता नहीं, कम से कम मरने के बाद तो चैन से रहने दें. पर वह की गंवारा नहीं होता. अभी फिर चुनाव है, देखिए इसमें कितनी जानें जाती हैं, फिर अगले वर्ष उन आत्माओं के नाम पर किसके ठुमके लगते हैं. बहरहाल.. हम तो सिर्फ देख ही सकते हैं और इन आत्माओं की सिसकियां सुन सकते हैं.

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